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जैनविद्या - 22-23
अप्रेल - 2001-2002
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कलिकाल कालिदास आचार्यकल्प पं. आशाधरजी
- डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल
जैन श्रमण परम्परा में साधु अहर्निश ज्ञान-ध्यान और तप में लीन रहते हैं। किन्तु जो गृहस्थ-जीवन में भी अपना सारा समय ज्ञान-ध्यान-तप में लगाकर जगत का कल्याण करते हैं वे गृहस्थ उन साधुओं से भी महान हैं जो दिगम्बर वेष धारण कर अहर्निश निर्माण-ध्वंस के अध:कर्म और सामाजिक कार्यों में अनुरक्त रहकर पवित्र श्रमणाचार की विराधना करते हैं। जैन साहित्यकाश में समय-समय पर ऐसी प्रतिभासम्पन्न गृहस्थ विभूतियाँ हुई हैं जिन्हें न केवल राजाश्रय प्राप्त था अपितु वे अपने समय के मुनिराजों, भट्टारकों, पण्डितों एवं जन-सामान्य के श्रद्धा के पात्र, उनके गुरु और जैन दर्शन के अधिकृत प्रकांड विद्वान माने जाते थे। ज्ञान, यश और अंतरंग निर्मल परिणति - इन तीन का सुयोग विरल और अद्भुत होता है। ऐसे व्यक्तित्व समाज को महिमा-मण्डित तो करते ही हैं, मानव जगत के सिरमौर भी होते हैं। ऐसी ही एक विभूति थी आचार्यकल्प, पण्डितरत्न महाकवि पं. आशाधरजी, जिन्होंने जैनदर्शन के चारों अनुयोगों का विशद अध्ययन कर प्रथमानुयोग; द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग और भक्ति मार्ग तथा न्याय, व्याकरण, काव्य-अलंकार, शब्दकोश, योगशास्त्र और वैद्यक आदि विषयों पर लगभग बीस ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में अधिकारिक रचना की और निष्पही गृहस्थ-मनीषी जैसा धार्मिक