Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 34
________________ जैनविद्या - 22-23 25 में स्खलित हुए हों तथा ऐसे कौन हैं जो उनसे काव्यसुधा का पानकर रसिकजनों के मध्य प्रतिष्ठा को प्राप्त न हुए हों अर्थात् उन्होंने अपनी सेवा करनेवाले शिष्यों को व्याकरण, षड्दर्शन, जिनवाणी और काव्य की समुचित शिक्षा प्रदानकर उन्हें इन विषयों में पारंगत किया था। पं. देवचन्द्र को इन्होंने व्याकरण में पारंगत किया था। मालव नरेश अर्जुनवर्मा के गुरु बाल सरस्वती महाकवि मदनोपाध्याय ने इनसे काव्य शास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी। राजा विन्ध्यवर्मा के महासन्धिविग्रहिक (परराष्ट्र मंत्री) कवीश विल्हण इनकी काव्य रचना से इतना प्रभावित रहे कि अपनी रचनाओं में उनका अनुकरण करने में गौरव मानते रहे । कवि अर्हद्दास ने अपने 'मुनिसुव्रत काव्य', 'पुरुदेव चम्पू' और 'भव्यजनकण्ठाभरण' में आशाधर के 'धर्मामृत' और उनकी सूक्तियों से प्रभावित होने का स्पष्ट उल्लेख किया है। आशाधर की शिष्य-मण्डली में केवल गृहस्थी नहीं, अपितु वादीन्द्र विशालकीर्ति, यतिपति मदनकीर्ति, मुनि उदयसेन, भट्टारक विनयचन्द्र, मुनि सागरचन्द्र आदि गृहत्यागी भी रहे बताये जाते हैं। नलकच्छपुर निवासी खण्डेलवाल अल्हण के पुत्र पापा साहु के अनुरोध पर आशाधर ने 'जिनयज्ञकल्प सटीक' की रचना की थी और खण्डेलवाल केल्हण ने उसका गाकर प्रचार किया था तथा उसकी प्रथम पुस्तक लिखी थी। पं. जाजाक की प्रेरणा से 'त्रिषष्टिस्मृति पञ्जिका' रची गई और खण्डेलवाल महणकमलश्री के पुत्र धीनाक ने उसकी प्रथम पुस्तक लिखी। पोरवाड़ वंशीय श्रेष्ठि समुद्धर के पुत्र महीचन्द्र साहु के अनुरोध पर 'सागार धर्मामृत टीका' तथा हरदेव और धनचन्द्र के निवेदन पर 'अनगार धर्मामृत टीका' की रचना आशाधर ने की थी। इनकी ग्रन्थ प्रशस्तियों में कुछ अन्य नाम भी उल्लिखित हैं, यथा - खण्डेलवाल कल्याण, माणिक्य, विनय, बहुदेव, पद्मसिंह और उदयी स्तम्भदेव। आशाधर ने सन् 1193 ई. से सन् 1250 ई. के मध्य विन्ध्यवर्मा, अर्जुनवर्मा और उसके पुत्र सुभटवर्मा (प्रशस्तियों में यह नाम उल्लिखित नहीं है), देवपाल और उसके पुत्र जैतुगिदेव नामक पाँच परमारवंशीय मालवाधिपतियों का राज्यकाल देखा था। अपने पिता और पुत्र की भाँति राजसेवा में न होने के कारण आशाधर स्वान्तःसुखाय ही सरस्वतीआराधना, साहित्य-साधना और ज्ञान वितरण में निरत रहे प्रतीत होते हैं। वे मुनि नहीं थे। गृहस्थ रहकर ही उन्होंने यह सब साधना की थी, किन्तु कदाचित् अपनी जीवन-संध्या में वे संसार से उपरत (वैरागी) हो चले थे ऐसा उन्हें प्राप्त 'सूरि' और 'आचार्यकल्प' आदि सम्बोधनों से भासित होता है। व्याकरण, काव्य, अलंकार, शब्दकोश, आयुर्वेद, षड्दर्शन, मनुस्मृति, जिनवाणी, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र, न्यायशास्त्र इत्यादि विविध लौकिक

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