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जैनविद्या - 22-23 पिताश्री की आज्ञा से रचे थे। इसमें आत्मा-परमात्मा विषयक यथार्थ वस्तुस्थिति का गूढ़ रहस्य उद्घाटित हुआ है। अध्यात्म रहस्य में आत्मा के तीन भेद किये हैं - 1. स्वात्मा, 2. शुद्धस्वात्मा और 3. परब्रह्म । इनका स्वरूप और प्राप्ति का उपाय भी दर्शाया है । आचार्य कुन्दकुन्द और अन्य आचार्यों ने आत्मा के तीन भेद बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के रूप में किये हैं। समान स्वरूप होते हुए उन्हें भिन्न नाम देना पण्डित जी के मौलिक चिन्तन का कौशल है। सिद्धान्ताचार्य (स्व.) पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री के मतानुसार यह प्रसन्न किन्तु गम्भीर रचना है। इसे पढ़ते ही अर्थ-बोध हो जाता है। उसका रहस्य समझने के लिए अन्य शास्त्रों की सहायता लेनी होती है, जो योगाभ्यास का प्रारम्भ कर रहे हों उनके लिए यह बहुत प्रिय है। _ 'अध्यात्म रहस्य' कृति प्राप्त करने का बहुत प्रयास किया किन्तु प्राप्त नहीं हो सकी। जब कभी प्राप्त होगी, उस पर लिखने की भावना है ताकि जैनजगत उसकी विषय-वस्तु से परिचित हो सके। जिनयज्ञकल्प (सटीक)
प्राचीन जिन प्रतिष्ठाशास्त्रों के आधार पर भट्टारकीय तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप पं. आशाधर जी ने 'जिनयज्ञकल्प' नाम से प्रतिष्ठा शास्त्र की रचना की थी। यद्यपि पण्डित जी अंतर-बाह्य रूप से वीतरागता को समर्पित थे, फिर भी उन्होंने जैनाचार के नामधारी महानुभावों के लौकिक हितार्थ इसकी रचना कर अज्ञानीजनों को जैनधर्म से सम्बद्ध रखने का प्रयास किया। उनकी इस दृष्टि या भावना का आभास जिनयज्ञकल्प के तृतीय अध्याय - यागमण्डल पूजा की निम्न पंक्ति से होता है25 - __ अव्युत्पन्न द्रशः सदैहिक फल प्राप्तीच्छायार्चन्ति यान ( देवान) (66) अर्थ - अज्ञानीजन ऐहिक फल की प्राप्ति की इच्छा से देवी-देवताओं को पूजते हैं।
उक्त कथन कर पण्डित जी ने यह घोषित कर दिया कि वीतरागता के महान उद्देश्य की पूर्ति हेतु अज्ञानियों-कृत कार्यों का अनुकरण न करें अन्यथा इच्छित इष्ट की प्राप्ति नहीं होगी। सुविज्ञ पाठक एवं गृहत्यागी साधक महानुभाव उन्मुक्त भाव से पं. आशाधरजी की उक्त भावना/अभिप्राय को सही परिप्रेक्ष्य में समझेंगे, ऐसी भावना है। उपसंहार __पं. आशाधरजी विद्याभ्यासी, विद्यारसिक और महान पुस्तक शिष्य थे। वे अपने ज्ञान एवं लक्ष्य के प्रति प्रामाणिकतापूर्वक समर्पित थे। इसीकारण उन्होंने अपनी रचनाओं में आत्मा के अकर्त्ता-अभोक्तारूप ज्ञायक स्वभाव की प्राप्ति का रत्नत्रयरूप राजमार्ग की व्याख्या निश्चय-व्यवहार नय के सुमेल-सुसंगतिपूर्वक की। कहीं किसी स्तर पर अपेक्षित