Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 48
________________ जैनविद्या - 22-23 39 कथन से अधिक कुछ नहीं कहा। किसी भी रूप में किसी विषय पर पक्षपात, पूर्वाग्रह या आगम के प्रतिकूल कथन नहीं किया। वे कल्पनाशील विचारक एवं लेखक थे। जहाँ कहीं उन्होंने स्व-कथन किया उसके साथ युक्ति और तर्क भी दिये ताकि परीक्षा-प्रधानी जैन बन्धु उस पर विचार एवं निर्णय कर सकें। शुद्धात्मा की उपलब्धि ही उन्हें इष्ट थी जो निश्चय नय के अवलम्बन से ही सुलभ है। निश्चयनय कर्ता, कर्म, करण आदि षट कारकों को वस्तु से अभिन्न मानता है जबकि व्यवहार नय षटकारकों को वस्तु से भिन्न देखता है। उनके अनुसार निश्चय से शून्य व्यवहार व्यर्थ है तदनुसार व्यवहार के बिना निश्चय भी सिद्ध नहीं होता। उनकी यह आगमोक्त दृष्टि स्वावलम्बन से स्वतंत्रता के सूत्र की पुष्टि करती है । पण्डित जी वीतरागी देव को ही वंदनीय मानते थे। भट्टारकीय युग में भट्टारकीय परम्परा का दृढ़तापूर्वक विरोध कर पण्डित जी ने कुदेवादि शासन देवी-देवताओं की पूजा का विरोध किया। श्रमण एकदेश वीतरागी होने के कारण पूज्य होते हैं। किन्तु, वीतरागताविहीन अजितेन्द्रिय मुनिराज, जो धर्म के इच्छुक लोगों पर भूत की तरह सवार होते हैं, को मिथ्यात्वी होने के कारण उनका त्रियोगपूर्वक त्याग करने का उपदेश दिया। नग्न भट्टारकों को भी पं. आशाधरजी ने इसी श्रेणी में रखा। यह संयोग या पण्डित जी के भाग्य की बात थी कि तत्कालीन विरोधीजन पण्डित जी के उक्त कथन को सहन कर गये और उसका प्रतिकार नहीं किया अन्यथा मरणान्तक दुखदायी कोई भी दुर्घटना पण्डित जी के जीवन में भी घट सकती थी। पण्डित जी को किसी पंथ विशेष से जोड़ने/सम्बन्ध करते समय तत्कालीन परम्परागत परिस्थितियाँ, पण्डित जी की विशाल मानवीय-हित-संचेतना, वीतरागता के प्रति पूर्ण समर्पण, अंतर-बाह्य निर्मल-विद्याभ्यासी जीवन आदि बिन्दु का समायोजन किया जाना अपेक्षित है। इतिहास की घटनाओं की पुनरावृत्ति किसी न किसी रूप में होती है। वर्तमान परिस्थितियाँ तेरहवीं शताब्दी से भी अधिक विस्फोटक एवं दुरूह हैं, जहाँ आगम की मर्यादा की बाढ़ को निर्ममतापूर्वक विकृत-अकृत किया जा रहा है। प्रत्येक आगम समर्थक-भाव प्रतिशोध को जन्म दे रहा है। अहिंसा की साधना को हिंसा-सर्प डस रहा है । धार्मिक सहिष्णुता एवं सद्भाव से जीवन शून्य हो गया है। धर्मचर्या व्यक्तिवादी अहंतुष्टि का कारण बनी है। अध:कर्म की व्याख्या तिरोहित हो गयी है। अकरणीय करणीय हो गया है। ऐसी स्थिति में पं. आशाधरजी का कर्तृत्व, आगमिक स्पष्टता, निजी दृष्टता आदि हमें नयी रोशनी-प्रेरणा दें, यही सहज भावना है। प्राणि धर्मामृत का पान कर सबको सुखी करें - स्वयं सुखी हों, यही पण्डित जी के सृजन की सार्थकता है।

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