Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 52
________________ 43 जैनविद्या - 22-23 था। वि.सं. 1249 के लगभग जब शहाबुद्दीन गौरी ने पृथ्वीराज को कैद करके दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया था और अजमेर पर भी अधिकार कर लिया था, तभी पण्डित आशाधर मांडलगढ़ (मेवाड़) छोड़कर धारानगरी में आए होंगे - म्लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षतित्रासाद्विन्ध्य नरेन्द्र दो परिमलस्फूर्ज त्रिवर्गोजसि। प्राप्तो मालव मंडले बहुपरीवारः पुरीभावसत् यो धारामपठन्जिन प्रमिति वाक्शास्त्रं महावीरतः॥ पण्डितप्रवर तत्समय किशोरावस्था के रहे होंगे क्योंकि उन्होंने व्याकरण और न्यायशास्त्र वहीं आकर पढ़ा था। आपके विद्यागुरु प्रसिद्ध विद्वान पंडित महावीर थे। यदि उस समय पण्डितप्रवर की उम्र पन्द्रह-सोलह वर्ष की रही हो तो उनकी जन्म वि.सं. 1235 के आसपास हुआ होगा। उनका अन्तिम उपलब्ध ग्रंथ 'अनगारधर्मामृत' की भव्य कुमुदचन्द्रिका टीका वि.सं. 1300 की है। उसके बाद वे कब तक जीवित रहे, यह पता नहीं लेकिन पैंसठ वर्ष की उम्र तो उन्होंने अवश्य प्राप्त की होगी, इतना तो तय है । विन्ध्य वर्मा, सुभट वर्मा, अर्जुन वर्मा, देवपाल, जैतुगिदेव नामक पाँच राजा पण्डित आशाधरजी के समकालीन थे। __पण्डितप्रवर आशाधर ने प्रचुर परिमाण में साहित्य की सर्जना की है। वे उच्चकोटि के कवयिता, व्याख्याता और मौलिक चिन्तना के स्वामी थे। उनके बीस ग्रन्थों का उल्लेख 'मिलता है, जिनका विवरण इस प्रकार है - 1. प्रमेयरत्नाकर ___इस कृति को स्यादवाद विद्या का निर्मल प्रसाद बतलाया है। यह गद्य ग्रंथ है और बीच-बीच में इसमें सुन्दर पद्य भी प्रयुक्त हुए हैं। 2. भरतेश्वराभ्युदय यह सिद्धयङ्क है अर्थात् इसके प्रत्येक सर्ग के अन्तिम वृत्त में 'सिद्धि' शब्द आया है। यह स्वोपज्ञटीका सहित है। इसमें प्रथम तीर्थंकर के पुत्र भरत के अभ्युदय का वर्णन होगा। यह सम्भवतः महाकाव्य है। 3. ज्ञानदीपिका _ यह धर्मामृत (सागार-अनगार) की स्वोपज्ञपंजिका टीका है। कोल्हापुर के जैनमठ में इसकी एक कनड़ी प्रति थी, जिसका उपयोग स्व. पं. कल्लाण भरमाप्पा निटवे ने सागारधर्मामृत की मराठी टीका में किया था और उसमें टिप्पणी के तौर पर उसका

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