Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 42
________________ जैनविद्या - 22-23 33 के स्पष्टीकरण के साथ ही विषय से सम्बन्धित अन्य सामग्री एवं उद्धरण देकर जिज्ञासु पाठकों के लिए अधिक उपयोगी बना दिया है। अनगार धर्मामृत में साधु के एवं सागार धर्मामृत में गृहस्थों के स्वरूप और उनकी अंतर-बाह्यचर्या पर विस्तृत प्रकाश डाला है। धर्म वस्तु का स्वभाव होने के कारण अमृत-स्वरूप है अतः उसकी प्राप्ति के उपायरूप श्रमण और श्रावकों के लिए धर्मामृत ग्रंथ महत्वपूर्ण, पठनीय और मननीय है। 1. अनगार धर्मामृत - इसके नौ अध्याय हैं । प्रथम अध्याय में धर्म, निश्चय रत्नत्रय का स्वरूप और निश्चय-व्यवहार के भेदों का वर्णन 114 श्लोकों में किया है। अन्तिम श्लोक में ध्यान के क्रम एवं उसके फल का उल्लेख करते हुए कहा है कि "इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में मोह-राग-द्वेष को नष्ट करने से चित्त स्थिर होता है, चित्त स्थिर होने से ध्यान होता है। ध्यान से रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। रत्नत्रय से मोक्ष होता है और मोक्ष से सुख मिलता है"1 ___ दूसरे अध्याय का नाम सम्यक्त्वोपादन क्रम है, जिसमें 114 श्लोक हैं। इसमें सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन का स्वरूप एवं सम्यक्त्व की प्राप्ति का उपाय, नौ पदार्थ, पाँच लब्धि, आठ अंग, पच्चीस दोष आदि का वर्णन है तथा मिथ्यादृष्टियों के संसर्ग (साथ) का निषेध करते हुए आचार-भ्रष्ट मुनिराजों एवं भट्टारकों से दूर रहने का उपदेश दिया है। पण्डित जी ने मिथ्याज्ञानियों के सम्पर्क का भी निषेध किया है। पण्डित जी का यह उपदेश 'संगति अनुसार प्रवृत्ति' के मनोविज्ञान पर आधारित है। तीसरा अध्याय ज्ञानाराधना का है जिसमें 24 श्लोक हैं। इसमें ज्ञान के भेद-प्रभेद दर्शाकर ज्ञानाराधना को परम्परा-मुक्ति का कारण कहा है। ज्ञान-शून्य तप से मोक्ष नहीं पहुँचा जा सकता तथा तत्वज्ञानामृतपान से अमरता प्राप्त होती है, यथा - तत्वज्ञानामृतं सन्तु पीत्वा सुमनसोऽमरा।' पण्डित जी ने स्वाध्याय तप को उत्कृष्ट शुद्धि का कारण कहा है, उससे अनंतगुनी विशुद्धि होती है अत: मरण के समय आराधना की सिद्धि हेतु सदा स्वाध्याय तप करना चाहिये। चतुर्थ अध्याय चारित्राराधन का है जिसमें 183 श्लोक हैं। इसमें चारित्र का महात्म्य, पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति एवं पाँच समिति का विशद वर्णन है । संयम के बिना तप सफल नहीं होता। व्यवहार-संयमपूर्वक निश्चय-संयम की आराधना करने पर ही तपस्या फलदायक होती है। रत्नत्रय में एक समय प्रवृत्त एकाग्रता निश्चयसंयम है और प्राणिरक्षा तथा इन्द्रिय-नियंत्रण व्यवहार-संयम है। दोनों प्रकार का तप चारित्र में गर्भित है।

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