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जैनविद्या - 22-23
पूजापाठ 17. जिनयज्ञकल्प सटीक (सं. 1285) 18. नित्यमहोद्योत 19. सहस्रनामस्तव (स्वोपज्ञविवृति सहित) 20. रत्नत्रय विधान-सटीक (सं. 1282)
अन्य ग्रन्थ - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष के अनुसार आपने वाग्भट्ट संहिता नामक न्याय ग्रंथ की रचना की। कोषकार ने ग्रंथ-सूची में आराधनासार टीका का उल्लेख नहीं किया है। यह टीका आमेर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध है। इसी प्रकार पं. आशाधरजी कृत 'शांत्यर्थ होम विधान' (तीन पृष्ठीय) अनेकान्त ज्ञान मन्दिर, बीना में उपलब्ध है, ऐसा ग्रंथ सूची से ज्ञात हुआ है।
स्व-ग्रंथों के आद्य टीकाकार - महाकवि पं. आशाधरजी ने स्वरचित ग्रंथों की टीका करते समय आद्य टीकाकार-विद्वान होने का परिचय दिया है। आपने अपनी टीकाओं में पूर्ववर्ती जैनाचार्यों, यथा - कुन्दकुन्दाचार्य, अमृतचन्द्राचार्य, भट्टाकलंकदेव, भगवजिनसेनाचार्य, अपराजिताचार्य, गुणभद्राचार्य, मुनिराज रामसेन, आचार्य सोमदेव, आचार्य अमितगति, आचार्य वसुनन्दि, प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दि की रचनाओं के श्लोक आदि उद्धृतकर अपने बहुमुखी ज्ञान-विद्या और पांडित्य का प्रमाण दिया है।
इतना ही नहीं आपने जैनेत्तर ग्रंथकार, यथा - भद्ररूद्रट, वाग्भट्ट, वात्स्यायन, मनु, व्यास आदि की रचनाओं को उद्धृत कर अपनी उन्मुक्त ज्ञानार्जन-प्रकृति का भी परिचय दिया है। आपने जैनाचार्यों के नाम का उल्लेख किये बिना अनेक जैनागमों की गाथाओं
और श्लोकों का उल्लेख कर अपने विषय की पुष्टि की है। टीकाओं में अन्य अनेक ऐसी गाथाएँ भी हैं जिनके स्रोत भी ज्ञात नहीं होते। यह पण्डित जी को महापंडित एवं विशाल व्यक्तित्ववाला सहज सिद्ध करता है। उनकी संस्कृत टीकाएँ बोधगम्य एवं विषय के अनुरूप भावयुक्त हैं । पांडित्य-प्रदर्शन के साथ ही हृदय को उद्वेलित करने की क्षमता उनमें विद्यमान है। उनकी रचनाएँ एवं टीकाएँ जैन साहित्य की बहूमूल्य निधि हैं। पण्डित जी की विशिष्ट कृति-धर्मामृत' ___ पण्डितप्रवर आशाधरजी ने सम्वत् 1300 में 'धर्मामृत' ग्रंथ की रचना पूर्ण की। यह उनकी विद्वत्तापूर्ण कृति है जिसके कारण उन्हें आचार्यकल्प के रूप में अभिहित किया गया। धर्मामृत के दो भाग हैं - प्रथम भाग का नाम अनगार धर्मामृत है और द्वितीय भाग का नाम सागार धर्मामृत है। यह संस्कृत भाषा की पद्य रचना है । ग्रंथकार ने इसकी स्वयं ही भव्यकुमुद चन्द्रिका टीका और ज्ञान दीपिका नामक पंजिका लिखी। इनमें विषय-वस्तु