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जैनविद्या - 22-23 से राजगुरु मदन ने रचा। इससे प्रतीत होता है कि पण्डित आशाधरजी के पिता सलखण अर्जुन वर्मा के महासन्धि-विग्रह मंत्री रहे हों। इस प्रकार पण्डित जी की तीन पीढ़ियाँ राजाश्रय से सम्मानित, लोककल्याणक जैन दर्शन एवं जैनाचार से सम्बद्ध थीं। ऐसा धार्मिक एवं लौकिक अभ्युदय का सुखद संयोग अतिशय पुण्य-योग से ही प्राप्त होता है।
वि.सं. 1249 (ई. सन् 1292) में शहाबुद्दीन गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को कैदकर दिल्ली को राजधानी बनाई और अजमेर पर अधिकार कर लिया। उसके आक्रमणों से उत्पन्न भय एवं जीवन की सुरक्षा हेतु पं. आशाधरजी के परिवार के सदस्य धारानगरी में आकर बस गये। उस समय मालवा की धारानगरी विद्या का केन्द्र बनी हुई थी। वहाँ विख्यात शारदा सदन नामक विशाल विद्यापीठ था जो जैन विद्वानों एवं श्रमणों के ध्यान
और अध्ययन का केन्द्र था। उस समय पण्डित जी की उम्र 10-15 वर्ष के लगभग थी। धारा नगरी में आशाधरजी ने सुप्रसिद्ध विद्वान पं. महावीर से व्याकरण और न्याय शास्त्र का अध्ययन किया था। राजा विन्ध्य वर्मा का राज्य समाप्त होने पर आप धारानगरी से दश कोस की दूरी पर स्थित नलकच्छपुर (नालछा) आ गये। नलकच्छपुर के तत्कालीन राजा अर्जुनवर्मदेव थे। उनके (पं. आशाधर के) जीवनकाल में पाँच राजाओं ने राज्य किया। वहाँ 30-35 वर्ष रहकर आपने श्री नेमिनाथ जिनालय में जैनदर्शन के साहित्य की रचना की और उनकी टीकाएँ लिखीं। पण्डित जी की साहित्य-सृजन-साधना से जैन साहित्य को नवीन ऊँचाई तो मिली ही पं. जी भी उसके साथ अमर हो गये। गुरुओं के गुरु ___ पं. आशाधरजी विलक्षण प्रतिभा एवं असाधारण योग्यता के कवि और विद्वान थे। उनकी साहित्य-साधना और अंतर-बाह्य सहज-सरल जीवन साधर्मी बन्धुओं, भट्टारकों, साधुओं
और जन-साधारण के लिए प्रेरणा का स्रोत था। उन्होंने पण्डित जी को अपना गुरु स्वीकार किया था। आपने श्री वादीन्द्र विशालकीर्ति एवं भट्टारक विनयचन्द्र को क्रमशः न्यायशास्त्र
और धर्मशास्त्र का अध्ययन कराया था। इसी प्रकार भट्टारक देवचन्द्र एवं देवभद्र, मुनि उदयसेन, उपाध्याय मदनकीर्ति आदि ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया था। पं. आशाधरजी बहुश्रुत विद्वान के साथ ही सहृदय, निहँकारी, शिष्यों का सम्मान करनेवाले उदारमना महानुभाव थे। यही कारण है कि उनकी साहित्य-सृजन-साधना के पीछे कोई-न-कोई साधर्मी श्रावक या मुनिराज रहे। आपने 'सागार धर्मामृत' ग्रंथ की टीका पौरपट्टान्वयी (परवार) मुनिराज श्री महीचन्द्र की प्रेरणा से की। 'अनगार धर्मामृत' की टीका धणचन्द्र एवं हरिदेव श्रावकों की प्रेरणा से की थी। 'इष्टोपदेश', 'भूपाल चतुर्विंशति' एवं 'आराधनासार' की टीकाएँ मुनि विनयचन्द्र की प्ररेणा से की थीं। जिनयज्ञकल्प सटीक पापा साधु के अनुरोध पर लिखा था। 'रत्नत्रय विधान' सलखणपुर निवासी श्री वागदेव की प्रेरणा