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जैनविद्या - 22-23
21 है। यद्यपि उसमें रचनाकाल निर्दिष्ट नहीं है, यह विदित होता है कि उसकी रचना विनयचन्द्र के लिए की गई थी।
'शोधादर्श-42' में प्रकाशित डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन के लेख 'जैन स्तोत्र-साहित्य' में पृष्ठ 240 पर उपर्युक्त 'जिन-सहस्रनाम-स्तवन' के साथ-साथ आशाधर के 'सिद्धगुणस्तोत्र', 'सरस्वति-स्तोत्र' और 'महावीर-स्तुति' का उल्लेख हुआ है। यह विदित नहीं है इनकी रचना कब हुई। इस प्रकार आशाधर की ज्ञात कृतियों की संख्या 20 से अधिक है। इनकी रचनाओं का परिचय क्रमशः निम्नवत है -
1. प्रमेयरत्नाकर - यह तर्कप्रबन्ध (तर्कशास्त्रीय ग्रन्थ) है । इसे कृतिकार ने 'स्याद्वाद विद्या का विशद प्रसाद' और 'निरवद्यपद्यपीयूषपूर' कहा है। प्रेमीजी के अनुसार यह गद्य में है, बीच-बीच में सुन्दर पद्य हैं और यह अनुपलब्ध है।
2. भरतेश्वराभ्युदयकाव्य - कवि ने स्वयं इसे सत्काव्य की संज्ञा दी है। उन्होंने इसे 'सिद्धयङ्क' कहा है, क्योंकि इसके प्रत्येक सर्ग के अन्त में 'सिद्धि' शब्द अंकित है। तीन प्रकार की विद्याओं के ज्ञाता कवीन्द्रों को आनन्द देनेवाला भरतेश्वर सम्बन्धी यह काव्य कवि ने टीकासहित स्व श्रेयस् (कल्याण) के लिए रचा बताया है। यह अनुपलब्ध है, किन्तु इसके 'सुधागर्व खर्व' पद आशाधर की 'मूलाराधना टीका' में तथा 'परमसमयसाराभ्याससानन्दसर्पत्' पद 'अनगार धर्मामृत टीका' में उद्धृत हैं और अध्यात्मरस से परिपूर्ण हैं । अत: अनुमान किया जाता है कि इस काव्य में भरत चक्रवर्ती की मोक्षप्राप्ति का वर्णन रहा होगा।
3. धर्मामृत शास्त्र - श्रावक (गृहस्थ) और मुनि धर्म का विवेचन करनेवाले इस शास्त्र का प्रणयन प्रथमतया 'ज्ञानदीपिका पञ्जिका' के साथ हुआ था। बाद में इसके 'सागार धर्मामृत' (गृहस्थ धर्म) और 'अनगार धर्मामृत' (मुनि धर्म) सम्बन्धी अध्यायों पर पृथक्-पृथक् 'भव्यकुमुदचन्द्रिका' नामक टीका ग्रन्थ आशाधर ने लिखे। अपनी ग्रन्थ प्रशस्तियों में आशाधर ने इस कृति का उल्लेख 'योऽर्हद्वाक्यरसं निबन्धरुचिरं शास्त्रं च धर्मामृतं' कहकर किया है । पं. कैलाशचन्द्रजी की 'धर्मामृत (अनगार)' की प्रस्तावना से विदित होता है कि कृतिकार ने 'अर्हद्वाक्यरसं' का अर्थ 'जिनागमनिर्यांसभूत' और 'निबन्धरुचिरं' का अर्थ 'स्वयंकृतज्ञानदीपिकाख्यपञ्जिकया रमणीयं' दिया है। अस्तु 'धर्मामृत शास्त्र' जिन आगम का सारभूत है और स्वरचित ज्ञानदीपिका पञ्जिका से रमणीय है। 'धर्मामृत' की पञ्जिका के प्रारम्भ में आशाधर ने लिखा है - "स्वोपज्ञधर्मामृतशास्त्रपदानि किंचित् प्रकटीकरोति'। अर्थात् यह पञ्जिका स्वोपज्ञ (स्व रचित) धर्मामृत शास्त्र के पदों को किंचित् रूप से प्रकट करती है, इसमें प्रत्येक पद्य के