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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.१६ शिलालेख और ग्रंथप्रशस्तियां :
डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर द्वारा संग्रहित जैन शिलालेख संग्रह भाग १ से ५ तक के ग्रंथ में उन राजकुमारीयों, राजरानियों, श्रेष्ठि पत्नियों आदि श्राविकाओं का वर्णन है जिन्होने जिन मन्दिरों, जिन मुर्तियों व उच्च श्रावक-श्राविकाओं के समाधी स्थलों का निर्माण कराया। ये श्राविकाएं इतिहास की कड़ी को जोड़ने में लाभदायक सिद्ध हुई हैं।
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इसी प्रकार जैसलमेर जैन लेख संग्रह भाग १ २३ में, जैन प्रतिमा लेख संग्रह बीकानेर, जैन लेख संग्रह में, जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह में, पाटण जैन धातु प्रतिमा लेख में, जिनमूर्ति प्रशस्ति लेख, ऐतिहासिक लेख संग्रह, प्राचीन लेख संग्रह, ब्राह्मी इंस्क्रिप्शन्स आदि लेख संग्रहों में उन उल्लेखनीय श्राविकाओं का वर्णन है जिन्होंने अपने धन का उपयोग वीतराग प्रभु की मूर्ति के निर्माण में व्यय नहीं किन्तु सदुपयोग किया तथा पुण्य का अनुबंध किया। ऐतिहासिक संशोधन में ग्रंथकारों और लिपिकारों की प्रशस्तियां बड़ा महत्व रखती हैं।
श्रीमान् कस्तूरचंदजी कासलीवाल ने अपने प्रशस्ति संग्रह में उन श्राविकाओं का वर्णन किया है जिन श्राविकाओं ने अपने धन का सदुपयोग साहित्य ग्रंथों के प्रणयन में लगाया । श्रुतज्ञान तथा महापुरुषों के चरित्र को सुनने पढ़ने से शुद्ध भावों का प्रसरण होता है। उन श्राविकाओं ने उस समय मुद्रण व्यवस्था नहीं होते हुए भी लिपिकारों से ग्रंथों एवं शास्त्रों की प्रतिलिपियां लिखवाकर आचार्यों को, व साधु-साध्वियों को, श्रावक-श्राविकाओं व चतुर्विध श्रीसंध को भेंट की जिससे श्रुतज्ञान का प्रचार प्रसार बढ़ा।
इसी प्रकार श्रीमान् अमृतलाल मगनलाल शाह ने अपने प्रशस्ति संग्रह में उन श्राविकाओं का साहित्यिक योगदान प्रकाशित किया, जिन्होंने जिन वाणी के मूल आगमों को, आगम पर लिखी गई वृत्तियों को, महापुरुषों के चरित्रों को लिखवाकर भेंट में दिया ।
१.२० पुरातात्विक साक्ष्य :
पुरातात्विक साक्ष्यों का अवलोकन करते हुए श्राविकाओं की मूर्ति, एवं श्राविका के चित्र का आधार हमें प्राप्त हुआ है । माउंट आबू के लूणवसहि मन्दिर के निर्माता महाअमात्य तेजपाल तथा श्राविका अनुपमादेवी का चित्र प्राप्त होता है। नेशनल म्युज़ियम दिल्ली में मुख्य द्वार के बायीं ओर प्रवेश करते ही नमस्कार मुद्रा की विनम्र मुद्रा में खड़ी (श्राविका ) उपासिका की मूर्ति प्राप्त होती है। दिल्ली चांदनी चौक नौग्रहा के जैन मन्दिर में वंदना की मुद्रा में बायें घुटने को मोड़कर नमस्कार मुद्रा में हाथ जोड़ी मुगल काल की श्राविकाओं के चित्र तथा आचार्य श्री की सभा में उपदेश श्रवण करती हुई श्राविकायें, श्रावक आदि समुदाय के चित्र प्राप्त होते हैं जो प्रमाणित करते हैं कि श्राविकायें जिन मूर्ति की उपासना, साधु संतों का सत्संग, प्रवचन - श्रवण आदि कार्य करती थी व धर्म के प्रति आस्थाशील थी ।
देवगढ़ (ललितपुर) स्थित श्री दि० जैन० अतिशय क्षेत्र स्थित सुखी दंपत्ति के चित्र में चित्रित श्राविका का चित्र प्राप्त होता है। मथुरा के चतुर्विध प्रस्तरांकन पर श्राविकाओं के चित्र है तथा अभिलिखित जैन आयागपट्ट भी श्राविकाओं द्वारा निर्मित हैं जो पूजा के उपयोग में आते थे। वे चित्रपट वर्तमान में भी उपलब्ध हैं। इमेजस फ्रम अर्ली इण्डिया नामक ग्रंथ में पृ. ६३ तथा पृ. २१६ पर श्रावकों द्वारा हाथों में फूलमाला लिये तथा श्राविकाओं द्वारा नमस्कार मुद्रा में स्त्री पुरुष के चित्र मथुरा शिल्प शैली का चित्रण करता है। तथा चतुर्थ एवं पांचवी शताब्दी की वंदना की मुद्रा में बैठी हुई एक प्रतिमा भी है। प्रतिमा की ओर निरखती हुई श्राविका के वस्त्र क्षत्रिय तथा संपन्न घराने के प्रतीक हैं। उस प्रतिमा की पूजा उसने पहले भी की थी। उसने बायें हाथ में फल लिया है तथा पुनः वह पूजा की मुद्रा में ही प्रतिमा का दर्शन करती हुई चित्र में प्रतीत होती है।
१.२१ हस्तलिखित ग्रंथों की प्रशस्तियों में श्राविकायें :
प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर के ज्ञान भण्डार में हस्तलिखित ग्रंथों की कुछ प्रतियों में श्राविकाओं के कृतित्व का परिचय प्राप्त होता है। इसमें कुछ स्वतंत्र रचनाएं हैं तो कुछ चातुर्मास की विनती पत्र के रूप में लिखी गई हैं। कुछ श्राविकाओं के पठनार्थ लिखी गई शास्त्रों की, चौपाई आदि की हस्तलिखित प्रतियां भी उपलब्ध हुई हैं।
मुनि जंबूविजय द्वारा संपादित जैसलमेर के प्राचीन जैन ग्रंथ भंडारों की सूची में जिनभद्रसूरि ताड़पत्रीय एवं जिनभद्रसूरि कागजी हस्तलिखित प्रतियों में जिन श्राविकाओं का योगदान रहा उन ऐतिहासिक नामों की अकारादि क्रम से सूची दी गई है।
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