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पूर्व पीठिका
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डॉ० प्रेमसुमन जैन के निबन्ध जैन कथा साहित्य में नारी की प्रतिष्ठा में प्राचीन आगमों की प्रसिद्ध कथा "धन्य की चार पुत्रवधुएं" प्रस्तुत की है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने उपदेशशतक में इस कथा को प्रस्तुत किया है, तथा छोटी बहू ससुर धनश्रेष्ठी द्वारा प्रदत्त कुल परम्परा रूपी धान्य को अपने श्रम से कई गुना कर देने वाली घर की स्वामिनी बनती है, इसका वर्णन प्राप्त होता है।३ हरिभद्रसूरि ने धूर्ताख्यान में आठवीं शताब्दी की नारी खण्डयाना द्वारा पांच सौ धूर्त पुरुषों पर वाद-विवाद द्वारा विजय की प्राप्ति तथा अन्त में उन्हें भोजन कराकर तप्त करती है, इसका वर्णन किया है, महाकवि स्वयम्भू को मंदोदरी द्वारा रावण को समझाने का प्रयत्न करना आदि का उल्लेख किया है।७४
१.१६ पुराण साहित्य में श्राविकाओं का योगदान
अ. पुराण का भारतीय संस्कृति में स्थान : प्राचीन भारत में पुराणों का महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है, ये हमारी संस्कृति एवं धर्म के संरक्षक है। इनका उद्देश्य सर्वसाधारण जनों को धार्मिक संस्कारों में दृढ़ करना तथा सरल, सुबोध भाषा में अध्यात्म के गूढ तत्त्वों को समझाना रहा है, इसलिए ही ये ज्ञान विज्ञान के कोष कहे जाते हैं। इनमें सभी वेद और उपनिषदों के ज्ञान को विभिन्न कथानकों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है।
पुराण साहित्य का विकास आज से नहीं, अपितु प्राचीन काल से ही होता आया है। इनकी कथा, कहानी और दृष्टांत प्राचीन ही हैं। ये सर्वसाधारण के उपकार की दृष्टि से ही लिखे गए हैं। इनमें तत्वों का विवेचन लोकोपकारी कथानकों तथा प्रभावशाली दृष्टांतों द्वारा किया गया है, इसलिए इनका प्रभाव आज भी स्पष्ट है। यदि हम इसके विशिष्ट पहलुओं पर विचार करके देखें, तो इनकी शिक्षा को कभी भी किसी भी युग में अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। आज जो कुछ भी धार्मिकता हम देख रहे हैं, वह सब पुराण साहित्य का ही योगदान है। अतः यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि पुराण भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के लोकप्रिय और अनुपम रत्न हैं।
इसमें काल वर्णन, कुलकरों की उत्पत्ति, वंशावली, साम्राज्य, अरिहंत अवस्था, निर्वाण और युग विच्छेद का वर्णन है। दिगंबर परम्परा के आदिपुराण में उल्लेख है कि ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को लिपि विज्ञान एवं गणित की शिक्षा दी थी। पद्मपुराण में महासती सीता व महासती कौशल्या को कठिन परिस्थितियों में भी अपने ज्ञान और विवेक से सामना करते हुए चित्रित किया गया है। पाण्डवपुराण में महासती द्रौपदी एवं महासती कुंती के नारी जीवन का महान् आदर्श चित्रित किया गया है।
१.१७ प्रबंध साहित्य :
जैन परम्परा में आगमिक व्याख्याओं और पौराणिक रचनाओं के पश्चात् जो प्रबंध साहित्य लिखा गया, उसमें सर्वप्रथम सतीप्रथा का ही जैनीकरण किया हुआ एक रूप हमें देखने को मिलता है। तेजपाल-वस्तुपाल प्रबंध में बताया गया है कि तेजपाल और वस्तुपाल की मृत्यु के पश्चात् उनकी पत्नियों ने अनशन करके प्राण त्याग दिये। यहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् शरीर त्यागने का उपक्रम तो है किन्तु उसका स्वरूप सौम्य और वैराग्य प्रधान बना दिया गया है। वस्तुतः यह उस युग में प्रचलित सती प्रथा की जैन धर्म में क्या प्रतिक्रिया हुई थी, उसका सूचक है।
१.१८ ऐतिहासिक ग्रंथ :
ऐतिहासिक ग्रंथों में जैसे उत्तर प्रदेश और जैन धर्म, उत्तर भारत में जैन धर्म, दक्षिण भारत में जैन धर्म, मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म, जैनिज़म इन आंध्रा, श्री स्वर्णगिरि जालोर, इतिहास की अमर बेल ओसवाल, भ० पार्श्व की परम्परा का इतिहास, भट्टारक संप्रदाय, मद्रास व मैसूर प्रांत के प्राचीन जैन स्मारक, प्राचीन जैन स्मारक, खंडेलवाल जैन समाज का बृहद् इतिहास, भारतीय इतिहास एक दृष्टि, भारत के दिगंबर जैन तीर्थ, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ, जैन आगम में नारी, जैन धर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ, प्राचीन भारतीय अभिलेख संग्रह भाग १ आदि ग्रंथों में उन प्रतिष्ठित श्राविकाओं का वर्णन है, जिन्होंने जिन मंन्दिरों, जिन मूर्तियों की स्थापना करवाकर जैन धर्म के प्रचार प्रसार में योगदान दिया तथा भिक्षुओं के लिए भूमि आदि का दान दिया।
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