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* समुद्रमें जिनेश्वरकी प्रतिमा-मूर्तिके आकारकी मछलियाँ होती हैं । उनको देखकर दूसरी कई मछलियाँ सम्यक्त्ववान बनती हैं और अपने आत्माका कल्याण करती हैं । जब अगाध समुद्रमें रहनेवाले जलचर आत्मा भी इस तरह निमित्त पाकर आत्मकल्याण करते हैं तब मनुष्योंको जिनप्रतिमा-मूर्ति कितनी उपकारक हो सकती है इसका विचार बुद्धिशालियोंको अवश्य ही करना उचित है । निमित्त प्राप्तकर प्राणियोंके विचार बदलते हैं और वे पश्चात्तापादि कर आत्मसाधनमें लग जाते हैं। इसमें संदेहके लिये कोई स्थान नहीं है।
जिन प्रतिमा-मूर्ति आदि निमित्तोंकी जितनी जरूरत है उतनी ही जरूरत उनके आदर्श चरित्रोंको जानने की है। उसी जरूरतको पूर्ण करनेके लिए, संस्कृत प्राकृतको नहीं जाननेवालोंके लिए, समयानुकुल लोकरुचिको ध्यानमें लेकर श्रीयुत कृष्णलाल वर्माजीने चौबीस तीर्थकरोंके उत्तम चरित्रोंकी रचना राष्ट्रभाषा हिन्दीमें की है। इनका मूल आधार कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य रचित त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र है। ___ प्रत्येक आत्मा तीर्थकरोंके पवित्र चरित्रामृतका पानकर अपनी
आत्माको पवित्र बना सके इस हेतुसे वर्माजीने वर्तमानकी लोक भाषामें ये चरित्र तैयार किये हैं। भाषा इतनी सरल और सुंदर है कि बेपढ़े स्त्री पुरुष बालक और बालिका तक इस ग्रन्थको समझ सकते हैं और अपनी आत्माका हित साध सकते हैं । वर्माजीके लिखे हुए ग्रन्थोंमें हमेशा भाषा सौष्ठवकी रक्षा होती है।
*उपदेश प्रासाद ग्रन्थके तीसरे विभागके तेरहवें स्तंभमें यह वर्णन है।
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