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अपने जाइ आदि कुटंबकी आज्ञा लेके दीक्षा लेंनेके एक वर्ष पहिले लोकांतिक देवते आकर कहते है है भगवान् ! धर्म तीर्थ प्रवर्त्तावो. तद पीछे एक वर्ष पर्यंत तीनसौ कोटि ग्यास्सी करोम असी लाख इतनी सोने मोहरें दान देके बने म होत्सवसें दीक्षा स्वयमेव लेते है किसीकों गुरु नही करते है क्योंकि वेतो आपही त्रैलोक्यके गुरु होनेवाले और ज्ञानवंतहै तद पीछे सर्व पापके त्यागी होके महा अद्भुत तप करके घातो कर्म चार कय करके केवली होते है. तद पोछे संसार तारक उपदेश देकर धर्म तीर्थ के करनेवाले से पुरुष तीर्थकर होते है. उपर कहे हुए वीस धर्म कृत्यों का स्वरूप संक्षेपसे नीचे लिखते है. अरिहंत १ सिद्ध २ प्रवचन संघ ३ गुरु आचार्य ४ स्वविर ५ बहुश्रुत ६ तपस्वी ७ इन सातों पदांका वात्सल्य अनुराग करनेसें इन सातों के यथावस्थित गुण उत्कीर्तन अनुरूप उपचार करनेसें तीर्थंकर नामकर्म जीव बांधता है इन पूर्वोक्त सातों अर्हतादि पदोंका अपने ज्ञानमें वार वार निरंतर स्वरूप
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