Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 12
________________ ( ४ ) बांधते हैं, और रस्ता चलते पादप्रहार से जीव जंतुओं की प्राण हानि न होवे इसलिये झाड़ने के लिये हाथ में एक नरम कूच लेकर फिरते हैं, इस कूच को रजोहरण कहते हैं, इसी के 'कटासन' अथवा 'ओघा' ऐसे भी नाम हैं, यह लोग सारी जिंदगी में कभी स्नान नहीं करते, हजामत नहीं कराते, हाथ से केश उखाड़ते हैं, इनका निवास मठों में रहता है, इन मठों को थानक कहते हैं, इस पंथ में शिक्षित लोगों की संख्या बहुत ही थोड़ी है, संस्कृत भाषा के जैन धर्मीग्रंथों के समझने योग्य विद्वत्ता शायद एक दो ही के अंग में होगी, जिन सूत्रों का गुजराती में भाषांतर हो चुका है उन्हीं को घोक घोक कर वे अपना निर्वाह करते हैं।" इस प्रकार इन अज्ञानियों के टोलों में एक बजदेश की जन्मी वाचाल पार्वती स्त्री आफँसी, जो कुछ समय आगरावाले स्वामी रन चंद ढूंढिये साधु के समुदाय में रही फिर कुछ देर इधर उधर देखती फिरती पंजाबी अमरसिंघ टुंढिये साधु की समुदायमें आकर मिलजुल गई, प्रायः इन पंजाबी ढूंढिये साधुओं में कोई चलता पुरज़ा न होने के कारण "निष्पादपे देशे एरंडोपि द्रुमायते” इस नीति से सर्व मरदों में औरत ही प्रधानता की कोटि में प्रवेश कर गई ! वस मान के घोड़े चढ़ जो कुछ मन में आया अज्ञानियों कोसमझाया! आप " सनातनजैनधर्मोपदशिका वालब्रह्मचारिणी जैनार्या जी श्रीमती श्री १००८ महासती श्रीपार्वतीजी" तथा "सनातन सत्यजैनधर्मोपदोशका बालब्रह्मचारिणी जैनाचार्याजी श्रीमती श्री १००८ महासती श्रीपार्वतीजी" इसादि लम्बक लम्बा दुम सार्टिफिकट ले लिया, और-"कहीं की ईट कहीं का रोड़ा भानुमतीने कुनवा जोड़ा"-की तरह मन घडत बातें बना बना एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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