Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 45
________________ ( ३७ ) दुराग्रह को त्यागकर पूर्वाचायों का शरण मंजूर कर लेवें जिससे निस्तारा होवे । नहीं तो जमालि की तरह संसार में रुलना ही पड़ेगा ! ! तथा इस बात का भी ज़रा उनको ख्याल करना चाहिये कि यदि नियुक्ति आदि पूर्वाचार्यों के किये अर्थ नहीं माने जावेंगे तो केवल मूल मानने के हठ से ढुंढकमतावलम्बियों के गले में बड़ा भारी लंबा रस्सा पड़ जावेगा कि जिससे मुक्त होना अतीव कठिन होगा, क्योंकि पूर्वोक्त सूत्रों के मूलपाठ से मैथुन सेवे तो शबल दोष लगता है यह सिद्ध होता है, तो इससे यही साबत होवेगा कि मैथुन सेवने से साधु चारित्र से भ्रष्ट नहीं होता है, दोष लगता है, सो आलोचना प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध हो जावेगा तो फिर अपघात करने की क्या जरूरत है ? और उपदेश में फरमाया जाता है कि साधु अपघात तो कर लेवे परंतु शील को खंडन न करे, अर्थात् मैथुन न सेवे ! अब बताना होगा कि शास्त्रकार के कथन का असली क्या आशय है. और उसमें प्राचीन प्रमाण के विना मनःकल्पित बात मानने योग्य कदापि न होवेगी, इसवास्ते यदि सुख और सद्गति की जरूरत है तो अभिमान को छोड़, कुगुरों की फांसी को तोड़, अपने मन को सत्वर पूर्वाचायों के प्रति बहुमान करने में जोड़ना योग्य है आगे उनकी मरज़ी, परंतु यह तो जरूर समझ लेना कि मरज़ी में आवे पूर्वर्षि प्रणीत प्राचीन अर्थों को माने, और मरज़ी में आवे ना माने, तथापि नाम, स्थापना और द्रव्य इन तीनों के माने विना तो कदापि छुटकारा नहीं होवेगा, और विना इन तीनों के केवल भावनिक्षेपा शशशृंग होजावेगा, क्या नाम, स्थापना और द्रव्य के विना केवल भाव ही भाव किसी घघरीवाली के पास या किसी पगड़ी वाले के पास या किसी सिरमुंडों के पास या किसी जटाधारी के पास देखा वा सुना है ? नहीं ! नहीं ! कहाँ से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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