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. ( ४४ ) पर कदापि निज सती पार्वती की बुद्धि करके सिर न झुकावेंगे ॥ तथा पविती की मूर्ति को देखकर जैसे सती पार्वती के माननेवालों को एकदम पार्वती संबंधी निक्षेप का ज्ञान होवेगा, वैसी मूर्ति को देखकर शंकरपत्नी पार्वती के मानने वालों को कदापि न होवेगा इसी प्रकार शंकरपत्नी पार्वती की मूर्ति को देखकर जो कुछ उत्साह उसके मानने वालों को आवेगा, ढोढयों को कदापि न आवेगा, तो शोचना चाहिये कि उसमें क्या कारण है ? ।
तटस्थ-वस सिद्ध होगया कि जिसकी मूर्ति है उसकी वास्तविकता की ओर बलात् आकर्षण होजाता है और अपने मनोभिलषित पदार्थ का ज्ञान होने से झट सिर झुकाना आदि अपने प्रणामों का उस तरफ आकर्षण होजाता है, और झुक २ के नमस्कार किया जाता है, परंतु इस तात्पर्य के समझने वालों की बलिहारी है।
वेचक-इतना ही नहीं एक और बात भी सोचने लायक है कि नाम के लेने से तो एकदम वास्तविकता पर मन का आकर्षण नहीं भी होता है, परंतु मूर्ति के देखने से तो एकदम उसी तरफ दृष्टि होजाती है. जिसका अनुभव जगप्रसिद्ध है. कहने सुनने की कोई अधिक आवश्यकता नहीं है. बस इसी तरह श्रीजिनेश्वरदेव की बाबत भी विचार करना योग्य है, नतु वृथा हठ ही हठ करना योग्य है, जैसे श्रीजिनेश्वरदेव का पवित्र नाम श्रीऋषभदेवजी या श्रीशांतिनाथ जी, या श्रीपार्श्वनाथ जी, या श्रीमहावीर स्वामी जी लिया जाता है उसी वक्त उनके चारों निक्षेप की तर्फ ख्याल दौड़ता हुआ झट नियमित वस्तु में जा अटकता है, परंतु श्रीपार्श्वनाथ स्वामी का नाम लेने से श्रीशांतिनाथ स्वामी का, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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