Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 81
________________ ( ७ ) अकीदा हो तब तो वह अच्छा नहीं लेकिन अगर उनोंने झूठ मूट और मकारी के साथ उसे इमलिये मान रक्खा था कि उसके जरिये जैनियों को जो वेदों को नहीं मानते खंडन किया जाय " तो कुछ अच्छा है " यानि वेदों के नाम से अगर किसी मत के प्रचार करने में झूठ और नकारी से काम लिया जावे तो ऐसा करना बुरा नहीं है___अब यह ज़ाहिर है कि ऐसा शखस जो वेदों के नाम से जरूरत समझने पर सब किसम की फरजी कहानियां और वेदमंत्रों के झूठ मायने तय्यार करेगा उसमें किसी को क्या शक होसक्ता है ? यही बायम है कि उनके वेदभाष्य को आर्यसमाजियों के सिवाय कोई संस्कृत पंडित चाहे वह इस मुलक का हो और चाहे किसी और मुलक का ठीक नहीं मानता" बस इसी प्रकार यदि स्वामी जी ने “ मूर्ख " को बदल के "मूर्व" घसीट डाला होवे तो इस बात का पार्वती के पास क्या प्रमाण है ! जो वह अपने साथ स्वामी जी का भी नाम बदनाम करना चाहती है। और एक यह भी बात विचारने के योग्य है कि स्वामी दयानंदजी साहिब ने जैनियों के भेद की बाबत जो कुछ अर्थ किया है वह असस है, इतना ही नहीं, किंतु जो श्लोक लिखा है वह भी अशुद्ध है ! क्योंकि शुद्ध श्लोक यह है : "भुक्ते न केवली न स्त्री, मोक्षमेति दिगंबराः। प्राहुरेषामयं भेदो, महान् श्वेतांबरेः सह" ॥ स्वामी दयानंद साहिब ने “ केवली" के स्थान में "केवलं" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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