Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 87
________________ ( ७७ ) अशुद्धम् शुद्धम् । कठकम्मेवा कठकम्म वा पोथकम्मे वा पोत्यकम्मे वा लेपकम्मे वा लिप्पकम्मे वा .. गंठिम्मे वा गोठमे वा वेढिम्मे वा वेढिमे वा पुरीम्मेवा पूरिमे वा सघाइमेवा संघाइमे वा अरके वा अक्खेवा सज्झाव सम्भाव असज्झाव असम्भाव आवस्सएति आवस्सएत्ति कज्जइ बस आप इसी से अनुमान करलें कि सारी किताब में कितनी अशुद्धियें होंगी ॥ विवेचक-सच बात तो यह है कि-जबसे श्रीमन्महामुनिराज श्रीमद्विजयानंद सूरि ( आत्मारामजी ) महाराज जी साहिब का बनाया “ सम्यक्त्वशल्योद्धार" ग्रंथ प्रसिद्ध हुआ है, तब से ही पार्वती के पेट में शूल होरहा था, जिसके हटाने वास्ते बाईस वर्ष पर्यंत अंदर ही अंदर सोच करती रही, आखिर में कितनेक पंडितों की सहायता पाकर थोथी पोथी छपवाकर ऊपर २ से दुःख हटाया मालूम देता है, परंतु अंदर तो दःख वैसे का वैसा ही कायम है। यदि न होता तो सम्यक्त्वशल्योद्धार का पूरा २ जवाब देती, केवल नाम लेकर भाग कर अलग न हो बैठती, मालूम होता है कि स्त्रीचरित्र खेला है, क्योंकि पार्वती ने सोचा होगा कि अगर मैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat किजइ www.umaragyanbhandar.com

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