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( १०७ ) सेवने का पाप कदापि नहीं होना चाहिये, प्रत्युत बढ़ा भारी - पुण्य और धर्म होना चाहिये कि जिस काम के करने से पार्वती और ढूंढिये साधु सदृश उत्तम जीव बने, क्योंकि उनके विषय सेवन से माता पिता का रुधिर और वीर्य मिलकर पार्वती और ढूंढिये साधुओं का उपादानकारण बना, जिस उपादान कारण से फिर पार्वती समान पंडिता और ढुंढिये साधु समान पंडित बने, निःसंदेह पार्वती की श्रद्धा और कल्पनानुकूल विषय सेवने वालों को खूब आनंद वन गया, विषयानंद भी लेलिया, पुण्य भी प्राप्त कर लिया, और ढूंढक साधु और साध्वी बनने वाले संतान भी बना लिये, वाह, वाह, पार्वती के समान बुद्धिवाली पंडिता जिस कुल या जाति में होवे, वह कुल. या जाति क्यों न प्रसिद्ध होवे, मालूम होता है कदाचित पार्वती की इस फिलासफी को सोचकर ही जगरांवां में ढुंढक साधु साध्वी का संमीलन हुआ होगा ॥
अरे भाई ! उपादान कारण वह होता है जो स्वयं कार्य रूप होजावे, जैसे कि घट कार्य का उपादान कारण मृत्तिका है, परंतु कुंभकार, चक्र, दंडा आदि नहीं. तात्पर्य यह है कि कार्य रूप पर्याय के पूर्व जो कारणरूप पर्याय होता है, उसका नाम उपादान कारण है, ना कि और किसी का इसवास्ते पार्वती का जो ख्याल है मत्र उजाड़ में रोना नयनों का खोना है, वस सिद्ध हुआ कि द्रव्यजिन जिनेश्वरदेव का जीव है, नाकि माता पिता का रुथिर और वीर्य ! खबर नहीं पूर्वोक्त अपूर्वज्ञान किस थेली में से पार्वती ने निकाला है, सत्य है मतांध प्राणी अनर्थ का ख्याल नहीं करता है, और वस्तु के उपादानकारण को द्रव्य कहना, यह भी पार्वती की अज्ञता का सूचक है. क्योंकि वस्तु तो आपही द्रव्य है । यथा जीव द्रव्य, अजीव द्रव्य, इनका उपादान कारण क्या कोई आकाश
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