Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 88 17032 A sstory वंदे वीरम् । जैन भार स भानु प्रथम भाग । कर्ता चार्य श्रीमद्विजयानन्द मूरि शिष्य महोपाध्यायश्रीमल्लक्ष्मीविजय शिष्योपाध्याय श्रीमद्धपविजयशिष्य श्रीमदवल्लभविजय जी प्रसिद्ध कर्ता जसवन्तराय जैनी लाहौर (पंजाब) [सर्वहक्क स्वाधीन] (२४३६ आत्म सम्बत् १४ बत् १९६७ ईस्वी सन १९१० शीन प्रैस लाहौर में दुनीचंद प्रिन्टर के अधिकार से छपी। मवार १०००] १९४-१० । मूल्य ।) 16 (207) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KKNKKASKIRS नोट जो महाशय जैन भानु के दूसरे भाग के ग्राहक होना चाहते हैं, वह कृपा करके अभी से अपने नाम ग्राहक श्रोण में दर्ज करा दें। ******RNRYKARSKA Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निबंध श्रीजनधर्मोपदेशक मुनि श्रीमद वल्लभावजय जी महाराज जन्म १९२७ दीक्षा १९४४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निबंध उपोद्घात। माणि को शुद्धधर्म की प्राप्ति और उस पर शुदश्रदान का पाना अतीव कठिन है, दो पैसे का मट्टी का वासन (वर्तन) खरीदना हो तो लोग परीक्षा पूर्वक खूब ठोक बजा कर खरीदते हैं, परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि धर्म रूपी अमूल्य रत्न के खरी. दने समय परीक्षा नहीं की जाती, वह रत्न भी कैसा ? जो भवातरों में मुख देनेवाला है, इसलिये सर्व साधारण के हितार्थ निवेदन है कि यदि आप को आत्मकल्याण की इच्छा है तो परीक्षा पूर्वक शुद्धधर्म को अङ्गीकार कर उसका पालन करें। काल के प्रभाव से अनेक प्रकार के पाखण्ड मत प्रचलित हो गये और हो रहे हैं ॥ जैनमत की दो बड़ी शाखायें प्रसिद्ध हैं, । १. शेताम्बर, २ दिगम्बर, दोनों ही मूर्तिको मानते हैं, जो जैनियों का मूल सिद्धान्त है ॥ मूर्तिउत्थापक लुकागच्छ के बजरंग जी यति का शिष्य लवजी नाम शिष्य हुआ, उस लवजी ने अपने गुरु से परामः मुख हो दो और को अपने साथ ले विना गुरु धारे दीक्षा ली और मुंह पर कपड़े की पट्टी वान्धी अर्थात सतारवें सैके में मूर्तिउत्थापक मुंहबन्धा पन्थ निकाला, जो ढूंढक, साधमार्गी और स्थानकवासी वगैरह नामों से आजकल पुकारा जाता है। ___यद्यपि इस पन्थवाले अपने आप को जैनमतानुगत की प्रगट करते हैं परन्तु वास्तव में वह न जैन हैं और न जैन को शाखा, बलकि जैनाभास हैं; क्योंकि इनका आचार व्यार वेष श्रद्धा और प्ररूपना सर्वथा जैनमत से विपरीत और निराली है जिनका विस्तार पूर्वक वर्णन करना हम उचित नहीं समझते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . प्रायः लोगों को मालूम होने से, अब हम यह बात सिद्ध कर दिख. लानी चाहते हैं कि यह पन्थ बेगुरा संमूर्छिमवत् है, अन्यान्य विद्वानों के प्रमाण तो कदाचित् हमारे ढूंढक पंथियों को न भी रुचें परन्तु देखो, इसी पन्थ की मानीती पार्वती स्वरचित मानदीपिका पोथी के पृष्ठ १२-१३ में लिखती है कि :__" इस रीती से पूर्वक यतिलोकों की क्रिया हीन हो रही थी मोई पूर्वक यतियों की लबजी नाम यति ने क्रिया हीन देख कर अनुमान १७२० के साल में अपने गुरु को कहने लगे कि तुम शास्त्रों के अनुसार आचार क्यों नहीं पालते तब गुरु जी बोले कि पंचमकाल में शास्त्रोक्त संर्पूण क्रिया नहीं हो सक्ती तव लवजी बोले कि तुम भ्रष्टाचारी हो मैं तुम्हारे पास नहीं रहुंगा मैं तो शास्त्रों के अनुसार क्रिया करूंगा जब उसने मुख वस्त्रिका मुख पर लगाई। ऋषिराज इंडिया साधु विराचिन सत्यार्थसागर में लिखा है कि संवत् १७०९ में लवजी शाह-तिवारे ऋषि लवजी गच्छ बोसरावी (त्याग के) निकला तेहने साथे ऋषि थोभण जी ? ऋषि संखयोनी २ इन दोनों ने दीक्षा लीनी,लोकों ने इंडिया नामदिया" ..बस पाठकवृन्द ढूंढियोंके ही घरके पूर्वोक्त दोनों प्रमाणोंसे स्वयं तात्पर्य निकाल लेवें कि सतारवें सैकेमें लवजी ने मुख पर पट्टी लगाई परन्तु यह कहीं नहीं लिखा कि अमुक के पास जाकर पुनः दीक्षा ली। जब लवनी के गुरु भ्रष्टाचारी हुए और उनको छोड दिया तो चाहिये था कि कोई सदाचारी गुरु धारण किया होता,सो तो कियाही नहीं, अतःसिद्ध हुआ कि यह ढूंढकपन्थ बेगुरा है-हां यदि अब भी पार्वती वा अन्य किसी दूंढकपन्थी को मालूम हो तो बता देवे ।। जिस पार्वती ढूंढनी का पूर्वोक्त वर्णन आया है जो आज कलमान की मारी फूली नहीं समाती, जो अपने नाम के साथ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डिता बालब्रह्मचारिणी वगैरह पूंछड़ों को देख खूब हृष्टः पुष्ट हो रही है, जिसकी बाबत अंबाला शहर (पंजाब) निवासी ऋषिकेश शर्मा-इंढक-जैनरत्न-समाचार पत्रके-एडीटरने आर्यभूषण मैशीन प्रेस मेरठ में छपवाकर एक हैंडविल निकाला था, जिसकी नकल यह है: शिवप्रिया चरित्र * अपर नाम * (ढुंढक साधुवों की गुरुणी की पोल).. इस पुस्तक के अवलोकन करने से मान दग्धा पार्वती (द्वंढकणी) की विद्या, बुद्धि, विचार, संयम प्रमाद, ईर्षा, द्वेष, पण्डिताई, ब्रह्मचर्य, भली प्रकार प्रगट होजावेगा मूल्य प्रति पुस्तक १) उसी पार्वती ढूंढनी ने “ कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा" इस कहावत को सार्थक कर एक पोथी रची जिम को लाला मेहरचन्द, लछमनदास ने संवत् १९६२ में छपवाया, और नाम रख दिया "सत्यार्थ चन्द्रोदय जैन"॥ .. यद्यपि ऐसी पोथी (परमार्थ से थोथी) का उत्तर रूप खण्डन के लिये परिश्रम करना उचित नहीं, तथापि "शाठयंशठमतिकुर्यात" इस वाक्यानुसार तथा अतीव प्रेरणा से तपगच्छाचाये श्रीमद्विजयानन्द सूरि (प्रसिद्ध नाम श्री आत्मारा)जी के शिष्य प्रशिष्यविख्यात श्रीमान् श्रीमुनिवल्लभविजय जी महाराज ने उत्तर क खण्डन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) लिखना प्रारम्भ किया और स्यार कर दिया, फिर भी चाहा कि इस को प्रकट न करना ही श्रेय है परन्तु हमारे ढूंढकभाई मि. बाडीलालवत् अनेक प्रकार के असन्तोषकारक और पूरे २ गप्पाष्टक प्रकट करते रहे । इस से तंग हो कर लाचार हम की भी मुनिमहाराजके परिश्रम को सफल करना पड़ा। हम नहीं चाहते थे कि अबला की थोथी पोथी के खण्डनार्थ ही मुनि जी अपना सवला विद्वत्ता को प्रकट करते, परन्तु अबला की कृति में कई जीवों को अनुपकार और कुगति का कारण हो जाने का भय है क्योंकि अबलाने सारी पोथी में कई प्रकार के स्त्रीचरित्र खेल भोले भद्रिक जीवों को अपने मायावी जाल में फंसाने का पूरा २ उद्यम किया है इसलिये उपकारदृष्टि से मुनिजी कृत खण्डन को जैनभानु नाम से छपवा कर प्रकट करना पड़ा है । यद्यपि सम्पूर्ण पुस्तक को छावा देना उचित था और चाहा था कि संपूर्ण ही छपवाई जावे; विभाग न किये जावें, परन्तु प्रायः लोगों की मांग अधिक आने से और सम्पूर्ण पुस्तक के छपने में प्रायः देर हो जाने के भय से अधुना केवल प्रथम भाग छपवा कर प्रकट किया जाता है और प्रार्थना की जाती है कि याद शीघ्रता के कारण दृष्टिदोष से वा छापे की गलती से कहीं कोई अशुद्धि रह गई मालूम हो जावें तो शुद्ध कर लेवें और कृपया खबर कर देवें जिस से पुनराशत्ति में शुद्धि की जावे इति शुभम् ॥ आप श्रीजैनश्वेताम्बरसंघ का दास, जसवन्तराय जैनी, लाहौर (पंजाब)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भानुः "नमोर्हत्सिद्याचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः” ऐंद्रश्रेणिनता प्रतापभवनं भव्यांगिनेत्रामृतं सिद्धांतोपनिषद्विचारचतुरैः प्रीत्या प्रमाणीकृता मूर्तिः स्फूर्तिमती सदा विजयते जैनेश्वरी विस्फुरन् मोहोन्मादघन प्रमादमदिरामत्तैरनालोकिता। १ । देवान् गुरून्नमस्कृत्य स्मृत्वा देवी सरस्वतीम् प्रत्युत्तरं ददे किञ्चित् हुँढकानां हिताय वै ॥१॥ विदित हो कि इस दुषमार पंचमकाल महाविकराल में प्रायः जहां देखो हाल बेहाल होरहा है, प्रयेक वस्तु की प्रायः हानि होती जाती है, जो कि कहने में नहीं आती है पंचकल्प भाष्य में तथादुषमारे के अर्थात् पांचवें अरे के स्वाध्याय में फरमाया है कि-पंचमकाल में प्रायः पाणी बहुत दुःखी होवेंगे, नगर ग्राम समान होवेंगे, ग्राम मरघट (उमसान) समान होवेंगे पूर्ण ज्ञान और ज्ञानी नहीं होवेगा, मुक्ति भरतक्षेत्र में कोई नहीं पावेगा, वीतराग के वचन के उत्थापंक मन कल्पित पंथ के संस्थापक, कुमति जन बहुत होवेंगे, जो कदाग्रह के वश से अपने वचन का स्थापन, और शास्त्रवचन का उत्थापन करेंगे, धर्म के रस्त के तोड़नेवाले, पाखंड के जोड़नेवाले, ससार्थ के मेटनेवाले, अससार्थ की शय्या में लेटनेवाले, आगमशाखा के मेटक, दुराचारिणी की तरह चेटक के करने वाले अति होवेगे, चोर चरट अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) बोल के नाश करने में घरह, बोलने में फक्कड़, और करने में लाल बुजक्कड़ की कमी नहीं होवेगी, साधुजन दुख्यांगे, दुर्जन सुख पायंगे, राजा प्रजा को सतावेंगे, लोक लक्ष्मी से दुःख पायेंगे, मुंह मांगा मेघ नवरसेगा, दिन रात लोक तरसेगा, बल, वीर्य, पराक्रम, बुद्धि, आयु, पृथिवी, औषधियों का रस कस दिन प्रति दिन कम होवेगा ! इत्यादि जो कुछ कहा है सो प्रायः सब प्रयक्ष होरहा है, धर्म की अवनति तो ऐसी होती जाती है, कि जो कहने में नहीं आती है जिसमें भी जैनधर्म, कि जिसका है ऐन मर्म, जो देता है स्वर्ग अपवर्ग का शर्म, ऐसा ढीला होगया है, कि जिसके माननेवाले प्रायः छोड़ बैठे हैं सब कर्म, दिन प्रति दिन हास होकर अति सांत लेने लग गया है ! जिसका कारण चारों ओर से मारामार पड़ने से विचारा होगया लाचार, जिसमें समता का नहीं है पार, जिस अनुचित समता ने कर दिया इसे खुआर, किसीने नहीं लीनी झट सार, मिथ्यामतियों ने दिया पटक के मार, तो भी यह रहा ऐसा गुलज़ार, जो करता है बहार, रोते हैं अकल खोते हैं देख कर दुश्मन इसका प्रचार, क्या जाने सार, महामूढमिध्यात्वी गंवार, हीरे की सार, क्या जाने भंगी चमार ! देखिये ! किसी अकलमंद ने क्या अच्छा कहा है: " कदरे ज़र ज़रगर विदानद - कदरे जौहर जौहरी - शीशागर नादाँ च दानद - मेफ़रोशद संगहा - " قدر زر زرگر بداندقدرجوهر جوهري * شیشه گرنادان چه داند میفروشدسنگها बस इसी तरह सार असार परमार्थ के जाने विना मनमाने गपड़े मारनेवाला एक ढूंढपंथ विना गुरु, लवजी ने विक्रम संवत् १७०९ में मुंह पर कपड़े की टाकी बांध कर चलाया, बहुत भोले लोगों को भूलाया, देव दर्शन हटाया, अपना दृढ़तर कदा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रह दिलमें बठाया, सुगति में जाना मिटाया, प्रायः आज तक इस पंथ में कोई विद्वान् नहीं होने पाया है, जिसका प्रमाण रा० रा. वासुदेव गोविंद आपटे, बी० ए० इंदौरकरने मुंबई की हिंदु यूनियन क्लब में दिसम्बर १९०३ ईस्वी सन में बताया है, जो कि विविधज्ञान विस्तार नामक मासिकपत्र के जनवरी सन १९०४ के अंकमें मुंबई में छप कर प्रसिद्ध हुआ है, उसका कुछक अनुवाद यहां दिया जाता है, जो ठीक ठीक अकल में आता है । ___ " ढूंढिये नामक जैनशाखा के लोक मलोत्सर्ग के समय जो घिनावना कार्य करते हैं, उस बीभत्सव्यापार के वर्णन करने में संकोच होता है ! (नोट) ढूंढियेलोग श्वेतांबरीजैनियों में से निकला हुआ एक छोटा सा फिरका है यह मत कोई २५० वर्ष से निकला हुआ जिनमत के शास्त्रों से सर्वथा विरुद्ध है-श्वेतांबरों में ही ढूंढिया नामक एक शाखा है-इन लोगों का उल्लेख ऊपर अनेक जगह आया है, इन्हीं का मालवा में सेवड़े नाम है परन्तु ये स्वतः अपने को साधुमा ी अथवा मठमार्गी (थानक पंथी) कहते हैं, कारण कि यह लोक प्राय मठों में रहते हैं, यह पंथ बहुत विचित्र हैं, यह मूर्ति वगैरह नहीं मानते अर्थात् इन लोगों को मंदिरों की आवश्यकता नहीं है, मनोविकारों का दमन करना यही बड़ा धर्म है, ऐसा वे समझते हैं और इस धर्म का चितवन यही उसकी मानसपूजा है, तीर्थकरों के पवित्र आच रणों का अनुकरण करना ऐसा वे कहते हैं, परन्तु तीर्थकरों को कुछ विशेष मान देने की प्रथा उनमें नहीं है, उनके गुरु शुभ्रवर्ण के परन्तु कुछ मैले वस्त्र पहिनते हैं, श्वासोच्छवासक्रिया में उष्णश्वास से वायुकाय के जीव न मरें इसलिये मुख पर कपड़े की एक पट्टी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) बांधते हैं, और रस्ता चलते पादप्रहार से जीव जंतुओं की प्राण हानि न होवे इसलिये झाड़ने के लिये हाथ में एक नरम कूच लेकर फिरते हैं, इस कूच को रजोहरण कहते हैं, इसी के 'कटासन' अथवा 'ओघा' ऐसे भी नाम हैं, यह लोग सारी जिंदगी में कभी स्नान नहीं करते, हजामत नहीं कराते, हाथ से केश उखाड़ते हैं, इनका निवास मठों में रहता है, इन मठों को थानक कहते हैं, इस पंथ में शिक्षित लोगों की संख्या बहुत ही थोड़ी है, संस्कृत भाषा के जैन धर्मीग्रंथों के समझने योग्य विद्वत्ता शायद एक दो ही के अंग में होगी, जिन सूत्रों का गुजराती में भाषांतर हो चुका है उन्हीं को घोक घोक कर वे अपना निर्वाह करते हैं।" इस प्रकार इन अज्ञानियों के टोलों में एक बजदेश की जन्मी वाचाल पार्वती स्त्री आफँसी, जो कुछ समय आगरावाले स्वामी रन चंद ढूंढिये साधु के समुदाय में रही फिर कुछ देर इधर उधर देखती फिरती पंजाबी अमरसिंघ टुंढिये साधु की समुदायमें आकर मिलजुल गई, प्रायः इन पंजाबी ढूंढिये साधुओं में कोई चलता पुरज़ा न होने के कारण "निष्पादपे देशे एरंडोपि द्रुमायते” इस नीति से सर्व मरदों में औरत ही प्रधानता की कोटि में प्रवेश कर गई ! वस मान के घोड़े चढ़ जो कुछ मन में आया अज्ञानियों कोसमझाया! आप " सनातनजैनधर्मोपदशिका वालब्रह्मचारिणी जैनार्या जी श्रीमती श्री १००८ महासती श्रीपार्वतीजी" तथा "सनातन सत्यजैनधर्मोपदोशका बालब्रह्मचारिणी जैनाचार्याजी श्रीमती श्री १००८ महासती श्रीपार्वतीजी" इसादि लम्बक लम्बा दुम सार्टिफिकट ले लिया, और-"कहीं की ईट कहीं का रोड़ा भानुमतीने कुनवा जोड़ा"-की तरह मन घडत बातें बना बना एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोथी पोथी का सेवकों को प्रदान किया ! अपनी सम्यक्त्व को कलंकित कर सुगति को ताला दिया ! जिसको देखकर हमारा चित्त कर्णाद्र होकर मध्यस्थताको अवलंब के बिचारी को दुःखसागर में डूबने से बचाने के वास्ते कुछ प्रत्युत्तर द्वारा इसको पार करने का उपाय शोचता है जोकि बार्तालाप की तरह यहां प्रकट किया जाता है, सो निष्पक्षपाति सज्जनपुरुषों को जरूर आनन्द का दाता होगा। तटस्थ-क्या पार्वती ने कुछ अनुचित काम किया, है जो आप ऐसे परिश्रम के काम में हाथ डालते हैं ? विवेचक-अहो ! यही तो बड़ी भारी भूल है, कि अनुचित करके फेर मान में फूलना और मनोमय सुख में झूलना! परन्तु इस में कोई आश्चर्य नहीं है ! अपने मन में माना अहंकार किसको नहीं होता है ? यतः-उत्क्षिप्य टिभिः पादावास्ते भंगभयादिवः। स्वचित्तकल्पितो गर्वः कस्य नात्रापि विद्यते ॥१॥ भला ! जरा शोचना तो चाहिये कि इतनी लंबी उपाधि की दुम लगने से क्या स्त्रीत्व मिट जावेगा? कदापि नहीं, और बालब्रह्मचर्य का तो स्वयं ही ज्ञान होगा, निज अनुभव की बातों को माने न माने आप ही जाने, या ज्ञानी जाने, हम को इस बात का क्या ज्ञान ? श्री समवायांग सूत्र में फरमाया है कि-"अकुमार भूए जे केइ कुमार भूएत्तिहं वए" जो बालब्रह्मचारी नहीं और अपने आप को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो बालब्रह्मचारी कहता है, वह महामोहनीय कर्म बांधता है ॥ शोक ! महा शोक !! "जैनाचार्या" कहाना क्या योग्य है ? जैनमार्ग में स्त्री को "आचार्य" पदवी किसी सूत्र में नहीं चली है शरमकी बात है कि बड़े बड़े साधुओं के होते हुए भी स्त्रीमात्र को इस प्रकार शास्त्रविरुद्ध पदमदान होता है, परन्तु इसमें कोई आश्चर्य नहीं, अज्ञानीवर्ग का ऐमा ही काम होता है । और यह बात भी सस है कि जो जैसा होता है उसका वैसों के साथ ही मेल होता है मृगा मृगैः संग मनुव्रजंति गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरंगैः मूर्खाश्च मूखैः सुधियः सुधीभिः समानशीलव्यसनेषु सख्यम् ॥ १॥ फारसी में भी एक अकलमंद ने कहा है-“कुनद हमजिनस बा हमजिनस परवाज़, कबूतर वाकबूतर वाज़ बाबाज़" । کند هم جنس با هم جنس پرواز * کبوتر با کبوتر باز با باز ___ अस्तु तथापि हमारी तो यही हितोशक्षा है कि अपने सुधारे के वास्ते शास्त्रविरुद्ध बातों को जलांजलि देकर शास्त्रानु सार प्रति करनी योग्य है अन्यथा ," मनस्यन्यद्रचस्यन्यत् क्रियायामन्यदेवहि " यह न्याय हो जावेगा क्योंकि स्त्रीजाति का प्रायः स्वभाव ही होता है कि मन में तो कुछ और गान होता है, वचन से कुछ और ही भान करती है । क्या बत्तीस शास्त्रों में से किसी भी मूत्र में स्त्री को आचार्यपदप्रदान करना फरमाया है ? क्योंकि ढुंढकमतानुयायी लंबे लंबे हाथ करके पुकारते हैं कि हम बत्तीस सूत्रों के अनुसार चलते हैं, बत्तीस सूत्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) सही है, बाकी के सही नहीं । तटस्थ - यह तो सेवकों ने अपने दिल को खुश करने वास्ते लिख दिया है । विवेचक - यदि यह वात सस है तो इसका सुधारा कर देना योग्य है और आगे के वास्ते अपने सेवकों को ऐसे अनुचित काम करने से रोक देना योग्य है । तटस्थ - अस्तु भवितव्यं भवसेव - विचित्रा गतिः कर्मणाम्कर्मों की गति विचित्र है, इस संसार में कर्मों के वश से जीव की क्या क्या विटंबना नहीं होती है, "गतं न शोचामि कृतं न मन्ये" परंतु यह बताओ कि जो कुछ ससार्थचंद्रोदय में लिखा है, सो जैन शास्त्रानुकूल जैनशैली के अनुसार यथार्थ है या नहीं ? विवेचक - शोक ! अतीव शोक ! यदि जैनशास्त्रानुकूल जैनशैली के अनुसार होता, तो यह उद्यम ही क्यों होता ? अतः जो कोई मनुष्य पक्षपात की दृष्टि को त्याग कर देखेगा उसको साफ साफ नजर आवेगा, अन्यथा - " रागांधा नैव पश्यन्ति द्वेषांधाश्च तथैव हि " यह न्याय तो बना ही पड़ा है परन्तु यदि यथार्थ कथन किसी को मिथ्यात्वज्वर के प्रताप से न रुचे तो उस जीव के भाग्य की ही बात है, करीर के वृक्ष में पत्ते नहीं लगते तो इसमें वसंत ऋतुका क्या दोष है ? घू घू (उल्लू - घूबड़ ) पक्षी दिन में नहीं देखता तो सूर्य का इस में क्या दोष है ? जल की धारा चातकपक्षी के मुख में नहीं पड़ती तो इस में मेघ का क्या दोष है ? अपने २ भाग्य की ही बात है ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) यतः-पत्रं नैव यदा करीर विटपे दोषो वसंतस्य किं, नोलूकोप्यवलोकते यदिदिवा सूर्यस्य किं दूषणम् ॥ धारा नैव पतंति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणं, यत्पूर्व विधिनाललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः॥१॥ इस वास्ते यदि हमारा हितकारी शिक्षारूप लेख किसी को बुरा मालूम देवे तो इस में हमारा क्या दोष है ? उसके भाग्य की बात है। एक अश्वतर (खच्चर ) को किसी ने पूछा कि तेरी माता कौन है ! तब वोह बडे उत्साह के साथ बोला कि घोड़ी-पूछने वाले ने फिर पूछा कि तेरा वाप कौन है ? तब मन ही मन में शरमिंदासा होकर कहता है, चल यार, यारों के साथ ठठा नहीं किया करते, इसी तरह अपनी मान बड़ाई वाह २ मैं फूलकर यदि कोई ठीक २ बात कहे उसको अगर मगर लेकिन के नमकीने लफज़ों (शब्दों) में उड़ाया जावे वह कैसी शोक की बात है ? अच्छा वह जाने हमको क्या ? हम तो शुद्धान्तःकरण पूर्वक कहते हैं कि हमारा यह लेख किसी को बुरा लगे तो हम वार २ मिथ्यादुष्कृत देते हैं। निक्षेप विषयिक वर्णम्। निक्षेपों के विषय में पार्वती ने लंबा चौड़ा लिखकर स्था पत्रे काले किये हैं, क्योंके ढुंढियों के माने बत्तीस सूत्रों में से किसी भी सूत्र में ससार्थचन्द्रोदय में लिखे मूजिव वर्णन नहीं है, यदि है तो उस सूत्र का साफ २ पाठ दिखाना ढुंढयों महाशयों का अवश्य कर्तव्य है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८ ) तटस्थ-श्रीअनुयोगद्वार सूत्र का नाम लिखा तो है ? -श्रीअनुयोगद्वार सूत्र के नाम से जो लोकों को धोखा देना शुरू किया है वह भी एक बुद्धि की अजीर्णता है। बड़े भारी महात्मा विद्वान् टीकाकार महाराज के किये अर्थ न मानकर अपनी कल्पना के अर्थ कर या टब्बेवाले ने जो कुछ लिखा उसमें भी न्यूनाधिक करके अपनी कल्पना के अर्थ कर लिये हैं, परन्तु यह नहीं शोचा है कि जो कुछ बालावबोधादि के आश्रय से हम अपना टट्ट चलाये जाते हैं वह भी तो पांचों आरे में बलकि टीकाकार महात्माओं के होने के समय से बहुत ही पीछे हुए हैं, तो टब्बाबनानेवाले का वचन प्रमाण, और टीकाकार का वचन अप्रमाण, यह कैसा मूढ़ता का काम है ? अफसोस है। परन्तु इस मानने में एक बड़ा भारी भेद है, जिसको और कोई मतावलम्बी जलदी से नहीं समझ सकता है, किन्तु हमतो अच्छी तरह सब भेद जानते हैं, वह यह कि टीका, भाष्य, चूर्णि, और नियुक्ति संस्कृत प्राकृत में होती है उस में दुीढयों की दाल गलती नहीं है और न उसमें न्यूनाधिक हो सकता है, और भाषा में (टब्बे में) जैसा मन में आया लिख मारा, बस इसीलिये ढुंढकपंथ में प्रायः व्याकरण का पढ़ना मुख्य नहीं माना जाता है, क्योंकि व्याकरण के पढ़ने से तो फिर “छीके बैठी देवी चने चावे, वाला वचन प्रमाण रह नहीं सकता है, परन्तु व्याकरण के पढ़े विना अर्थ का पूरा पूरा परमार्थ मालूम नहीं होसकता है, इतना ही नहीं बलकि अर्थ का अनर्थ हो जाता है, अपने पुत्र को शिक्षा देता हुआ पिता कहता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) “यद्यपि बहु नाधीतं तथापि पठ पुत्र व्याकरणम् । स्वजनः श्वजनो मा भूत् सकृत् शकृत् सकलं शकलम्” ॥ और इसी बात के लिये श्रीमनव्याकरणादि सूत्रों में व्याकरण के पढ़ने की आज्ञा शास्त्रकार ने फरमाई है, ऋषिराज नामा ढुंढक साधु ने भी सखार्थ सागर के ३ पृष्टोपरि लिखा है कि- " अब पूर्ण शुद्ध शब्द शास्त्रार्थ तो समझने आता ही नहीं बुद्धि तुच्छ प्रश्न समुद्र सरीखे गंभीर बुद्धि विना कैसे समझे जाय इस वास्ते साधु श्रावकों को विद्या वा शास्त्रार्थ का जाणपणा चाहो तो व्याकर्ण तथा संस्कृत ग्रंथादि पढ़कर अनेक अपेक्षा से गुरु महाराज के उपदेश से देखो तव न्यायवंत होकर शुद्धमार्ग मुक्ति का समझो और प्रश्नव्याकर्ण सूत्र वा अनुयोगद्वारसूत्र में व्याकर्ण सूत्र पढ़ने की आज्ञा है" और कितने ही वालावबोध और टब्बे की आदि में या अंत में साफ साफ लिखा हुआ होता है कि यह अर्थ हमने टीका के अनुसार लिखा है, इत्यादि ॥ जैसे कि श्री अनुयोगद्वारसूत्र के बालाववोधकी समाप्ति में बालावबोध के कर्त्ता ने लिखा है कि- श्रीजीवर्षि के चरण कमल में भ्रमण समान शोभर्षि के शिष्य माहन ने यह अनुयोगद्वार सिद्धांत का बालावबोध बनाया, तथा सर्व अर्थ यहां मैंने टीका में लिखा देख कर लिखा है, परन्तु अपनी बुद्धि से स्वल्प मात्र भी नहीं लिखा है, तो भी इसमें यदि कोई असस लेख लिखा गया होवे तो बुद्धिमानों को शुद्ध कर लेना योग्य है । तथाच तत्पाठः - श्री जीवर्षिक्रमांभोजमधुलिहा शोभर्षि दीक्षितेन माहननाम्ना विरचितोयमनुयोग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) द्वारसिद्धांतवालावबोधः तथा सर्वोप्यत्र मया वृत्ति दृष्टोर्थो लिखितोस्तीति न तु स्वल्पोपि स्वमनीषिकया तथापि यत्किंचिदिह वितथ्यं भवेत्तबुद्धिमद्भिःशोध्यम्। इससे सिद्ध है कि इस बालावबोध के लिखनेवाले आचार्य पांचवें आरे में टीकाकार महाराज के पीछे हुए हैं और वह छद्मस्थ पुरुष थे, एक छद्मस्थ के वचन मानने और अन्य टीकाकार महासमर्थवान् पुरुषों के वचन नहीं मानने ऐसी श्रद्धा आत्मार्थी धर्मार्थी भवभीरु प्राणी की कदापि नहीं हो सकती है, इसवास्ते टीका को न मानने से मनःकल्पित अर्थ के तानने से ढुंढकमतानुयायी को क्या कहना चाहिये ? इस बात का न्याय हम वाचकवर्ग के ही स्वाधान करते हैं, क्योंकि निक्षेपों के विषय में इंद्र गोपालदारकादि के दृष्टान्त पार्वती ने लिखे हैं वह अनुयोगद्वारसूत्र के मूल में तो क्या बत्तीस सूत्रों के मूल में भी कहीं नहीं हैं, इस से सिद्ध है कि पार्वती ने बालावबोध से चुराये हैं और वालाबबोधवाला साफ टीका के अनुसार चलता है तो फिर टीका के मानने में क्यों लज्जा आती है ? गुड़ खाना गुलगुलों से परहेज ॥ और यदि धर्मदास जी, धर्मसिंह जी, लवजी, भीषण जी आदि ढुंढियों का लिखा टब्बा ही मान्य है तो वह सस लिख गये हैं या असस इसमें क्या प्रमाण ? तथा उन्होंने अपने मतलब के अधिकारार्थ टब्बे में नहीं डाले हैं इसमें क्या प्रमाण है ? प्रत्युत उन्होंने स्वार्थ सिद्ध करने के लिये कई बातें मनःकल्पित टब्बे में लिख दी प्रसक्ष दीखती हैं यथा रजोहरण की दसी कैसी और कितनी होवें इस का प्रमाण, रजोहरण की दंडी का प्रमाण, मुखवस्त्रिका का प्रमाण, चादर का प्रमाण, चोल पट्टक का प्रमाण इसादि बत्तीस सूत्रां क मूल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५ ) पाठ में कहीं भी नहीं हैं परन्तु टब्बे में कहीं कहीं अपना मनाकल्पित व्यवहार लिख मारा है। भस्मग्रह का वर्णन, सोलह स्वप्न, बारां वर्ष का दुष्काल, वीरविक्रम, जंबूस्वामि चरित्र, चंदनबाला का वर्णन, मरुदेवी माता ने हाथी के होदे में केवलज्ञान पाया, सूरिकांता रानी ने परदेशी राजा को अंगूठा देकर मार डाला, महावीर स्वामी की तपस्या, वीर भगवान का अभिग्रह, वीर भगवान के ४२ चौमासे, महावीर स्वामी की निर्वाणभूमि, अंतगड़ सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, निरयावलिया सूत्र इसादि कितने ही सूत्रों के टब्वे कथा सहित कहां से लिखे गये हैं ? क्योंकि बत्तीस सूत्रों के मूल में तो पूर्वोक्त बातें कहीं भी वर्णन नहीं हैं. तो अब उत्तर देना चाहिये, कि क्या केवल बत्तीस सूत्रों के मूल पाठ मात्र या पाठ मात्र काही अर्थ मानने से ढूंढकपंथानुयायीयों का गुज़ारा हो सकेगा ? कदापि नहीं, तो फिर टीकाकारों पर कि, मूल में तो है नहीं टीका में कहां से आया? ऐसा कुविकल्प करके क्यों अपनी दुर्विदग्धता जाहिर की जाती है ? टीकाकार महाराज तो नियुक्ति,भाष्य,चूर्णि,गुरुपरंपरानुसार वर्णन करते हैं,और नियुक्ति, भाष्य चूणि सर्व पूर्वधारी महात्माओं की रचना है, उनका तिरस्कार करके गुरुपरंपरा से बहिर्भूत धर्मदास जी आदि के कथन पर निश्चय करना इससे अधिक और क्या आभिग्रहिक मिथ्यात्व होता है ? इस वास्ते केवल मूल पाठ और टब्बे के घमंड में आकर उचितानुचित विना विचारे अंड वंड लिखकर पूर्वाचार्यों की अवज्ञा करनी, और उनके किये माचीन अर्थ नहीं मानने, मनः कल्पित नये अर्थ करने और भोले भद्रिक जीवों को अपने मायाजाल में फंसाना अच्छा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) नहीं हैं, क्योंकि नय निक्षेप के नाम से जो पत्रे काले किये हैं सो अपनी चालाकी दिखाकर स्याही से अपना मुख सफेद करना चाहा है प्रथम तो"नैगमः संग्रहश्चैव व्यवहार ऋजु सूत्रको । शब्दः समभिरूढश्वा एवं भूति नयोऽमी ।१" यह श्लोक ६ पृष्ठ में लिखा है सो अशुद्ध है शुद्ध पाठ यह है। "नैगमः संग्रहश्चैव व्यवहारर्जु सूत्रको । शब्दः समभिरूढश्व एवं भूत नया अमी" ॥१॥ दूसरा यह श्लोक बत्तीस शास्त्रों के मूल पाठ में से किस सूत्र का मूल पाठ है ? बताओ! अफसोस कि पद पद में अपनी बत्तीस सूत्रों के मानने की प्रतिज्ञा से चलायमान होकर निग्रहकोटि की खाड़ में पड़ना सो क्या बात है ? सस है पुत्र के लक्षण पालने में से ही दिख पड़ते हैं “ मतिर्गसनुसारिणी" इस महावाक्यानुसार अंत में उत्सूत्रमरूपकता का निग्रहस्थान रूप नरकखाड़े में गिरना होना ही है इसमें किसी का क्या ज़ोर चलता है किया कर्म अवश्यमेव भोगना पड़ता है। यदुक्तम्--"नत्थिकडाणं कम्माणं मुक्खो इत्यादि तथा"। अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतंकर्म शुभाशुभम्। नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ॥१॥ और ससार्थचन्द्रोदय पुस्तक बनाने का परमार्थ केवल श्री जिनप्रतिमा तथा श्रीजिनप्रतिमा के पूजन के उत्थापन सिवाय और कुछ भी नहीं जाहिर होता है और इसीवास्ते चार निक्षेपों का मनःकल्पित वर्णन पार्वती ने लिख मारा है, परन्तु इससे क्या? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) एक पार्वती क्या तो सब ढूंढक जैनमत से बिलकुल अनभिज्ञ हैं और ऐसी दशा में यदि ढूंढक लोक अर्थ का अनर्थ करें तो इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है। यतः-एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेकः तदाद्भिखे सह संगमनं द्वितीयम् । एतद्वयं यदि न यस्य स तत्वतोंधस्तस्यापमार्गचलने खलु कोपराधः ॥१॥ और इसीवास्ते खास करके ऐसे मनुष्यों के लिये हमारी हितशिक्षा नहीं है, क्योंकि जिसकी जो आदत पड़ जाती है, प्रायः वह उपदेश द्वारा हटानी कठिन होती हैं, पानी को कितना ही गरम किया जावे परन्तु आखिर में फिर ठण्डा ही होजाता है, यतः स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा। सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ॥ १ ॥ अथवायो हि यस्य स्वभावोस्ति स तस्य दुरतिक्रमः। श्वा यदि क्रियते राजा किंन अत्ति उपानहम् ॥१ ___ भावार्थ-जो जिसका स्वभाव पड़ जाता है दूर होना कठिन होता है, यदि कुत्ते को राजा बना दिया तो क्या वह जूती नहीं खाता है ? कुत्ते की दुम को चाहे बारह वर्ष नलकी में रक्खें फिर टेढ़ी की टेढ़ी, तथापि भव्य जीवों का ख्याल करके यह प्रयास फलीभूत समझा जाता है, और यदि किसी सत्यगवेपी को गुणकारी होजावे तो इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं ? पार्वती की अण्ड वण्ड मनःकल्पित फांसी में फंसने से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) बहुत जीव बच जावेंगे, बस इसलिये अब निक्षेपों का अर्थ जो टीकाकार पूर्वाचार्य महात्मा का किया हुआ है, वैसा का वैसाही यहां लिखते हैं जिससे साक्षरवर्ग में अज्ञान से फूले हुए पेट रूप ढोल की पोल आपही जाहिर होजावेगी, पंडितजन खूब जान जायेंगे कि पार्वती की बोली विना तोली पाप की झोली ही खोली है, क्योंकि अपनी कल्पना की सिद्धि के लिये मनःकल्पित बातें लिखकर निक्षेपों का वर्णन अगड़म सगड़म लिखकर धोखा दिया है; परंतु साफ २ नाम, स्थापना, द्रव्य, और भाव इन चारों का स्वरूप वर्णन नहीं किया है, कहां से करे ? जबकि बत्तीस सूत्रों के मूलपाठ में चार निक्षेपों का अर्थ ही नहीं है तो कहां से ले आवे ! क्योंकि चोरी करी हुई अन्त में पकड़ी जाती है कदाचित् थोड़ा सा वर्णन कर दिया जावे तो उस शास्त्र का या टीका का नाम लेना मुश्किल होजावे, तो बलात्कार वह शास्त्र अथवा टीका माननी पड़े, इसवास्ते ऊपर ही ऊपर से कुहाड़ी मारने की शिक्षा खूब पाई है, माया करना तो स्त्री जाति का स्वभाव ही है, तटस्थ - आपका का कहना बहुत ही ठीक है क्योंकि झूठ बोलना, विना विचारा काम करना, माया फरेव का करना, मूर्खता करनी, अतिलोभ का करना, अशुचि रहना, और निर्दय होना यह दोष प्रायः स्त्रियों में स्वभाव से ही सिद्ध होते हैं, यत : अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलोभता । अशौचं निर्दयत्वं च स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः ॥ १ सो यह पूर्वोक्त दोष पार्वती ने अपने आप में ठीक सिद्ध कर दिखाये हैं, देखो, बालब्रह्मचारिणी कहां कहां शास्त्रों के अर्थ के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) अनर्थ करे हैं, जिसमें सखार्थचन्द्रोदय का निष्पक्षपातता से विचार करना ही ससाससका निर्णय करना है, विना गुरुगमता के किताबों का बनाना, आचार्यापद का धारण करना इसादि स्त्रीगण के अनुचित काम का करना साहस नहीं तो और क्या है ? माया का तो पूछना ही क्या है ? प्रायः ससार्थचन्द्रोदय की सारी किताव ही माया से भरी हुई है। पूर्वाचार्यों के अर्थ न मानकर अपनी कल्पना से अण्ड वंड अर्थ के अनर्थ करने इससे और क्या मूर्खता होती है ? मान बड़ाई के लोभ में तो फंसी ही पड़ी है, वरना मरद दुढिये साधुओं के विद्यमान होते हुए व्याख्यान करना, आचार्या बनना किसने फरमाया है ? अशुचि का अनर्थ तो जो कुछ करती है आप ही जानती है, ऋतु के आने पर भी शास्त्राध्ययनादि का परहेज नहीं है, इससे अधिक और क्या अशुचि अपकर्म होगा ? शास्त्रवचनों के उत्थापने से अपने आप का घात करना इससे अधिक कौन सी निर्दयता है। विवेचक-अच्छा ! प्रारब्ध की बात है, हम क्या करें। लो अब देखो ? नाम, स्थापना, द्रव्य, और भाव का अर्थ लिख दिखाते हैं, यदि परभव का डर होवे, और अपने कल्याण का मन होवे, यथार्थ अर्थ का विचार कर सस का स्वीकार और असस का परिहार तत्काल कर देना योग्य है आगे उनकी मरजी, वह जानें उनके कर्म ॥ नामनिक्षेपस्वरूपवर्णनम्। अथ नामस्थापनाद्रव्यभावस्वरूपमभिधीयते तत्रादौ नामस्वरूपं यथा यद्वस्तुनोभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थ निरपेक्ष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) पर्यायानभिधेयं च नाम यादृच्छिकं च तथा ॥ १ ॥ विनेयानुग्रहार्थ मेतद्व्याख्या - यद्वस्तुन इंद्रादिरभिधान मिंद्र इत्यादि वर्णावली मात्र मिदमेव ' आवश्यक' लक्षण वर्णचतुष्टयावली मात्रं यत्तदोर्नित्याभिसंबंधात् तन्नामेति संटकः । अथ प्रकारांतरेण नाम्नो लक्षणमाह स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षं पर्यायानभिधेयं चेति तदपि नाम यत् कथं भूतमित्याह अन्यश्चासावर्थश्चान्यार्थो गोपालदारकादि लक्षणः तत्र स्थितं अन्यत्रेद्रादावर्थे यथार्थत्वेन प्रसिद्धं तदन्यत्र गोपालदारकादौ यदारोपितमित्यर्थः अतएवाह तदर्थ निरपेक्ष इति तस्येंद्रादिनाम्नोर्थः परमैश्वर्यादि रूपस्तदर्थः सचासावर्थश्चेति वा तदर्थस्तस्य निरपेक्षं गोपालदारकादौ तथा तदर्थस्याभावात् पुनः किं भूतं तदित्याह पर्यायानभिधेयमिति शक्रपुरंदरादीनां गोपालदारकादयोहींद्रादिशब्दैरुच्यमाना पर्यायाणां अनभिधेयमवाच्यं अपि शचीपत्यादिखि शक्रपुरंदरादिशब्देनाभिधीयते अतस्तन्नामापि नाम तद्वतोरभेदोपचारात पर्यायानभिधेयमित्युच्यते च शब्दान्नाम्न एव लक्षणान्तरसूचकं शचीपत्यादौ प्रसिद्धं तन्नाम वाच्यार्थशून्ये अन्यत्र गोपालदारकादौ यदारोपितं तदपि नामेति तात्पर्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) तृतीय प्रकारेणापि लक्षणमाह यादृच्छिकं च तथेति तथाविध व्युपत्ति शून्यं डित्थकपित्थादि रूपं यादृच्छिकं स्वेच्छया नाम क्रियते तदपि नामेत्यार्यार्थः॥ ॥स्थापनानिक्षेपस्वरूपवर्णनम् ॥ स्थापनालक्षणं च सामान्यत इदम् । यत्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण यच्च तत्करणि । लेप्यादि कर्म तत् स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च॥२ इति विनेयानुग्रहार्थमत्रापि व्याख्या। तु शब्दो नामलक्षण स्थापनालक्षणस्य भेदसूचकः सचासावर्थश्च तदर्थो भावेंद्रभावावश्यकादि लक्षणस्तेन वियुक्तं रहितं यदस्तु तदभिप्रायेण भावेंद्रायभिप्रायेण क्रियते स्थाप्यते तत् स्थापनेति संबंधः । किं विशिष्टं यदित्याह। यच्च तत्करणि तेन भावेंद्रादिना सहकरणि सादृश्यं तस्य तत्करणि तत्सदृशमित्यर्थः । च शब्दात्तदकरणि चाक्षादि वस्तु गृह्यते अतत्सदृशमित्यर्थः । किं पुनस्तदेवं भृतं वस्त्वित्याह । लेप्यादि कति । लेप्यपुत्तलिकादीत्यर्थः। आदि शब्दात् काष्ठपुत्तलिकादि गृह्यते । अक्षादि अनाकारं च । कियंतं कालं तत् क्रियत इत्याह । अल्पः कालो यस्य तदल्पकालमित्वरकाल मित्यर्थः । च शब्दाद्यावत्काथकं शाश्वतप्रतिमादि । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९ ) यत्पुनभीवेंद्राद्यर्थराहितं साकारमनाकारं वा तदर्थाभिप्रायेण क्रियते तत् स्थापनेति तात्पर्यमित्यार्यार्थः । नामस्थापनानिक्षेपभेदवर्णनम् । प्रसंगान्नामस्थापनयोर्विशेषः प्रतिपाद्यते 66 अत्र नामस्थापनयोरभेदं पश्यन्निदमाह " नाम ठवणाणं कोपइविसेसोत्ति ” नामस्थापनयोः कः प्रतिविशेषो न कश्चिदित्यभिप्रायः । तथाह्यावश्यकादि भावार्थशून्ये गोपालदारकादौ द्रव्यमात्रे यथा आवश्यकादि नाम क्रियते तत्स्थापनापि तथैव तच्छून्ये काष्ठकर्मादौ द्रव्यमात्रे क्रियतेऽतो भावशून्ये द्रव्यमात्रे क्रियमाणत्वा विशेषान्नानयोः कश्चिद्विशेषः । अत्रोत्तरमाह । नामं आवकहियमित्यादि ” नाम यावत्कथिकं स्वाश्रयद्रव्यस्यास्तित्वकथां यावदनुवर्त्तते न पुनरंत राप्युपरमते । स्थापना पुनरित्वरा स्वल्पकालभाविनी वा स्याद्यावत्कार्थका वा । स्वाश्रयद्रव्ये अवतिष्ठमानेपि काचिदंतरापि निवर्त्तते काचित्तु तत्सत्तां यावदवतिष्ठते इति भावस्तथाहि - नाम आवश्यकादिकं मेरु जंबूद्वीप कालिंग मगध सुराष्ट्रादिकं च यावत् स्वाश्रयो गोपाल दारकदेहादिः शिलासमुच्चयादि व समस्ति तावदव तिष्ठत इति तद्यावत्कथिकमेव । स्थापना तु आवश्यक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com "" "" Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) वेन योग्यः स्थापितः स क्षणांतरे पुनरपि तथाविध प्रयोजनसंभवे इंद्रत्वेन स्थाप्यते पुनरपिच राजादित्वे नेत्यल्पकालवर्तिनी । शाश्वतप्रतिमादिरूपा तु यावकथिका वर्त्तते तस्मात्तु अहंदादि रूपेण सर्वदा तिष्ठतीति स्थापनेति व्युत्पत्तेः स्थापनात्वमवसेयं न तु स्थाप्यते इति स्थापना शाश्वतत्वन केनापि स्थाप्यमानवाभावादिति।तस्माद्भावशून्य द्रव्याधारसाम्येप्यस्त्यनयोः कालकृतो विशेषः । अत्राह । ननु यथा स्थापना काचिदल्पकालीना तथा नामापि किंचिदल्पकालीनमेव गोपालदारकादौ विद्यमानोप कदाचिदनेक नाम परावृत्तिदर्शनात्। उच्यते । सत्यं किंतु प्रायो नाम यावत्काथिकमेव यस्तु क्वचिदन्यथोपलंभः सोऽल्पत्वान्नेह विवक्षित इत्यदोषः । उपलक्षणमात्रं चेदं कालभेदेनैतयोर्भेदकथनमपरस्यापि बहुप्रकारभेदस्य संभवात् तथाहि । यथेंद्रादिप्रतिमास्थापनायां कुंडलांगदादि भूषितः सन्निहित शचीवब्रादिराकार उपलभ्यते न तथा नामेंद्रादौ । एवं यथा स्थापनादर्शनाद्भावः समुल्लसति नैवमिंदादिश्रवणमात्रात् । यथाच तत्स्थापनायां लोकस्योपयाचितेच्छा पूजाप्रवृत्ति समीहितलाभादयो दृश्यते नैवं नामेंदादावित्येव मन्यदपि वाच्यमिति । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) द्रव्यनिक्षेपस्वरूपवर्णनम्। अथ द्रव्यस्वरूपमाह-भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तत् द्रव्यं तत्वज्ञैः सचेतना चेतनं कथितम् ॥३॥ व्याख्या___ तत् द्रव्यं तत्वज्ञैः कथितं यत् कथं भूतं द्रव्यं यत् कारणं हेतुः कस्येत्याह । भावस्य पर्यायस्य कथं भूतस्येत्याह । भूतस्यातीतस्य भाविनो वा भाविष्यतो वा लोके आधारभूते तत्र सचेतनं पुरुषादि अचेतनं च काष्ठादि भवति । एतदुक्तं भवति यः पूर्व स्वर्गादिविंद्रादित्वेन भूत्वा इदानीं मनुष्यादित्वेन परिणतः अतीतस्येंद्रादि पर्यायस्य कारणत्वात् सांप्रतमपि द्रव्यं इंद्रादिभिधीयते अमात्यादि पदपरिभ्रष्टामात्यादिवत् तथा अग्रेपि य इंद्रादित्वेनोत्पत्स्यते स इदानीमपि भविष्यदिंद्रादिपदपर्यायकारणत्वात् द्रव्यं इंद्रादिरभि धीयते भविष्यद्राजकुमार राजवत् । एवमेवाचेतनस्यापि काष्ठादेस्तत् भविष्यत्पर्याय कारणत्वेन द्रव्यता भावनीयेत्यार्यार्थः॥ भावनिक्षेपस्वरूपवर्णनम् । अथ भावस्वरूपमाह-भावो विवक्षितक्रियानु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) भूतियुक्तो हि वै समाख्यातः । सर्वरिंद्रादिवदिहेंद नादि क्रियानुभवात् ॥ ४॥ व्याख्या-वक्तर्विवक्षित क्रियया विवक्षितपरिणामस्य इंदनादेरनुभवन मनूभूतिस्तया युक्तोर्थः स भावस्ततोऽभेदोपचारः सर्वज्ञः समाख्यातो निदर्शनमाह इंद्रादिवदित्यादि यथा इंदनादिक्रियानुभवात् परमैश्वर्यादिपरिणामेन परिणतत्वादिंद्रादिभाव उच्यते इत्यर्थः इत्यार्यार्थः॥ __ इसीप्रकार नामादि का स्वरूप श्रीहरिभद्र मूरि कि जिनका स्वर्गवास विक्रम संवत् ५८५ में हुआ है, जिसकी साक्षी अंग्रेज विद्वान्-डाकटर ए. ऐफ. रुडल्फ हार्नल साहिब तथा जर्मन प्रोफैसर हरमन जकोबी साहिब देते हैं, उन्हों ने भी इसी प्रकार वर्णन किया हैअब शोचना चाहिये कि १३८१ वर्ष के किये महात्माओं के अर्थ तो झूठे और आजकल के अभिमान के पूतलों के किये मनःकल्पित अर्थ सच्चे, बुद्धिहीन कदाग्री के विना ऐसा और कौन कह सक्ता है ? बस जैसे हमने १३८१ वर्ष के प्राचीन अर्थों का प्रमाण दिया है इसी प्रकार ढुंढकमतानुयायी को भी जो कुछ पार्वती ने मान के तान में गाना गाया है, और भोले भद्रिक जीवों को भरमाया है, संस्कृत या प्राकृत में प्राचीन महात्माओं के किये अर्थ दिखलाने चाहिये अन्यथा पार्वती के लेखोपरि कोई भी सुज्ञपुरुष विश्वाम नहीं करेगा और यदि : उष्ट्राणां विवाहे तु गर्दभा वेदपाठकाः। परस्परं प्रशंसंति अहो रूप महोध्वनिः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) ऐसे पुरुष कर लेवे तो उसमें हमारी कोई क्षति नहीं है । नय विषयिक वर्णनम् । तटस्थ - पार्वती की करी कल्पना का पूरा २ जवाब पूर्वोक्त वर्णन से मिल गया है, वास्तविक में तो कुल पोथी का ही जवाब हो गया है क्योंकि सारी पोथी इसी तरह कुतकों से प्रायः भरी हुई है । तो भी पार्वती की करी कुयुक्तियों का भी कुछ विवेचन करना योग्य है, जिससे कि भोले भाले अनजान जीव पार्वती के जाल में फंस न जावें, और बाकी प्राचीनशास्त्रीयप्रमाण न होने से पार्वती का लेख तो स्वयं ही खंडित हो चुका है !!! विवेचक - ६ ष्ठ पर ३ सत्य नय लिख मारे हैं सो किसी भी जैन सिद्धान्त में नहीं हैं, पार्वती के लिखने का यह अभिप्राय मालूम होता है कि पहले चार नय असस हैं, इस वास्ते चार नयों का मानना असत्य है, परंतु यदि ऐसे होता तो शास्त्रकार सात नयों का कथन किस वास्ते करते ? असल बात तो यह है कि जैनशास्त्र में जो नयों का स्वरूप सप्तभंगी आदि का वर्णन है उसका परमार्थ ढकपंथी जानते ही नहीं हैं । यदि जानते होवें तो कदापि एकांत एक वस्तु का ग्रहण और एक का निषेध न करें, जैसे कि पार्वती ने किया है तथा एकान्त वस्तु का खींचने वाला मिध्यादृष्टि कहाता है सो पार्वती ने चार नयों को एकांत असस ठहराने का उद्यम किया है, इसवास्ते पार्वती के शिर पर तो मिथ्यादृष्टित्व की छाप बराबर लग चुकी है, सो तब ही मिटेगी जब सातही नयों को अपने२ स्थानों में यथार्थ मानेगी और जब अपने स्थानमें सब नय यथार्थ माने गये तब तो ढुंढकमत को जलांजलि बलात्कार देनी पड़ी || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) तटस्थ-जरा कृपा करके आप नय और नयाभास के लक्षण पूर्वर्षिप्रणीत बताइये जिससे ज़रा हृदयचक्षु को खोल यदि परलोक का डर हो तो देख और विचार के अपनी अनुचित प्रवृत्ति का शुद्ध अंतःकरण पूर्वक मिथ्यादुष्कृत दे देवे नहीं तो जो कुछ हाल होवेगा मुख से कहना कठिन है ॥ विवेचक-लीजिये, नयलक्षणं यथा-नीयते येन श्रुताख्यप्रमाण विषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशौदासीन्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः ॥ नयाभासलक्षणं ॥ स्वाभिप्रेतादंशादितरांशापलापी पुनर्नयाभासः ॥ इति प्रमाणनयतत्वालोकालंकारे। बस पूर्वोक्त लक्षणों से साबत होता है कि पार्वती का मानना 'नय' नहीं है, किन्तु 'नयाभास' है ? क्योंकि मदोन्मत्ता हस्तिनी की तरह अपने अभीष्ट अंश को स्वीकार अन्यांश का सत्यानाश किया है, परन्तु यह नहीं विचारा कि इस श्रद्धा के अनुसार तो सर्व व्यवहार का ढुंढियों को उच्छेद ही करना पड़ेगा। तथा पार्वती ने अपनी माया फैला कर अनजान लोगों को धोखा देने में कुछ न्यूनता नहीं की, पाठ कोई लिखा है, इशारा कोई किया है, और अर्थ कोई घसीटा है, देखो-६ पृष्ठ पर क्या लिखा है ? "इस द्रव्य आवश्यक के ऊपर ७ नय उतारी हैं* जिस में तीन सत्य नय कहीं हैं यथा सूत्र । तिण्ह सदनयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थू । अर्थ-तीन सत्य नय इत्यादि" *जरा पंडितानी की पडिताई का ख्याल इस पर भो कर लेना . 'नय' शब्द पुजिग है, जिसको प्राय: सर्वत्र स्त्रो लिंगमें लिख दियाहै। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) ' विचारना योग्य है कि तीन सत्यनय - यह किस पद का अर्थ किया है ? क्योंकि पाठ में तो 'सद्द' लिखा है जिसका अर्थ ' शब्द ' होता है और जिनका तात्पर्य यह है कि तीन ' शब्दनय' हैं इससे अर्थापत्ति यह सिद्ध होता है कि प्रथम के चार 'अर्थनय हैं, तात्पर्य यह है कि प्रथम के चार नय अर्थ की प्रधानता रखते हैं, और आगे के तीन नय शब्द की प्रधानता रखते हैं बस इसी बात से पार्वती का चाहा असत्य या अवस्तु शशशृंग होगया ? क्योंकि जो द्रव्य को अवस्तु प्रतिपादन करने का पार्वती ने प्रयास किया सो बिलकुल निष्फल होगया, और अनुयोगद्वार सूत्र में जो अवस्तु कहा है सो सर्वथा द्रव्य को वस्तु नहीं कहा है, अपितु आगम से द्रव्य आवश्यक को अवस्तु कहा है, परन्तु पार्वती ने थोड़ा पाठ मात्र लिखकर दिल में पाप होने से दान देती कपिला दासी की तरह अपने हाथ को पीछे खींच लिया मालूम देता है । तटस्थ - " द्रव्यनिक्षेप अवस्तु नहीं है" क्या दुनिया में सब के सब ही मूर्ख हैं ? नहीं ? नहीं ? विचारशील पुरुष भी दुनियां में बहुत हैं और इसीवास्ते " बहुरत्ना वसुंधरा " कहाती है सो ऐसे सुतरनपुरुषों के उपकारार्थ आगे का पाठ भी लिख दिखाना योग्य है जिससे कि पार्वती की चालाकी भी ज़ाहिर होजावे । विवेचक - लीजिये पूर्वाचार्यकृत अर्थसहितपाठ पढ़िये :तिन्ह सद्दणयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थू कम्हां जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ "" "" भावार्थ - तीन शब्दनय के मत में जानकार होकर उपयोग रहित होना अवस्तु अर्थात् असम्भव है, क्योंकि यदि जानकार है तो उपयोगरहित नहीं होता है यही बात टीकाकार ने भी कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com : Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) माई है । तथाहि : "तिण्हं सद्दणयाणमित्यादि शब्दप्रधाना नयाः शब्दनया शब्दसमभिरूद्वैवंभूतास्ते हि शब्दमेवप्रधानमिच्छंतीत्यर्थं तु गौणं शब्दवशेनैवार्थ प्रतीतेस्त्रयाणां शब्दनयानांज्ञायकोथ चानुपयुक्त इत्येतदवस्तु न संभवतीदमित्यर्थः। कम्हति कस्मादेवमुच्यते इत्याह । यदि ज्ञायकस्तयनुपयुक्तो न भवति ज्ञानस्योपयोगरूपत्वादिदमत्र हृदयं। आवश्यकशास्त्रज्ञस्तत्रचानुपयुक्त आ गमतो द्रव्यावश्यकमिति प्राक् निर्णीतमेवं चामी न प्रतिपद्यन्ते यतो यद्यावश्यकशास्त्रं जानाति कथमनुपयुक्तोनुपयुक्तश्चेत् कथं जानाति ज्ञानस्योपयोगरूपत्वात्"। और शास्त्र अनुयोगद्वार भी शब्दनय की अपेक्षा अवस्तु फरमाता है, अर्थनय की अपेक्षा नहीं, " तिण्हं सदनयाणमिति वचनात् " इसलिये द्रव्यनिक्षेप को सर्वथा अवस्तु मानना जैनशैली से बाहिर होना है, यदि शास्त्रकारका सर्वथा ही द्रव्यनिक्षेप को अवस्तु फरमाने का अभिप्राय होता तो श्रीपनवणाजी सूत्रादि सूत्रों में पंदरह भेद सिद्ध के प्रतिपादन करने की क्या जरूरत थी ? भाव की अपेक्षा तो सब एक ही समान हैं फिर स्वलिंगसिद्ध अन्यलिंगसिद्ध, इत्यादि भेद से शास्त्रकार भावातिरिक्त कोई अन्य वस्तु फरमाते हैं या नहीं ? यदि फरमाते हैं तो द्रव्य का सर्वदा अवस्तु प्रतिपादन करना अपने ही हाथों से अपना मुंह काला करने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) .. के सिवाय अन्य कुछ हो सकता ? नहीं ! नहीं : तथा श्रीठाणांगमूत्र के चौथे ठाणे में "दव्य सच्चे" द्रव्य सत्य कहा है। तथा श्री ठाणांगमूत्र के पांचवें ठाणेमें जो आगे को देवता होने वाला होवे उमको " भवियदबदेवा" अर्थात् भावि द्रव्यदेव कहा है। तथा श्रीसूत्रकृतांग सूत्र के दूसरे अध्ययन की १५वीं और १७ वीं गाथा में मोक्ष जाने योग्य भव्यजीव को तथा मुक्ति जाने योग्य साधु को द्रव्य फरमाया है। __ अरे ! ऐसे २ प्रयक्ष सूत्रों के पाठ हैं, फिर भी द्रव्यनिक्षेप को सर्वथा निषेध करना, कितनी शर्म की बात है ? श्री जिनश्वरदेवका द्रव्यनिक्षेप वंदनीय है। श्रीजंबूद्वीपप्रज्ञाप्तसूत्र में श्रीतीर्थङ्कर के जन्मसमय में तथा निर्वाणसमय में प्रकट वंदना नमस्कार करने का पाठ है, वोह वंदना नमस्कार किस निक्षेप को है ? ज़रा पक्षपात की ओट से बाहिर निकलकर विचारना योग्य है, जिससे अन्तरीय खोट निकल जावे, और परमाधार्मिक की चोट से बचा जावे, क्योंकि जन्म समय में (यावत् केवलज्ञान नहीं होता तावत्पर्यन्त) भावनिक्षेप तो नहीं है, द्रव्यनिक्षेप ही है, तथा निर्वाणसमयमें भी भावनिक्षेप नहीं है, केवल तीर्थकर महाराज का शरीरमात्र ही मौजूद है सो द्रव्यनिक्षेप है और दोनों ही समय में वंदना नमस्कार का पाठ है, तो अब विचार करो कि "द्रव्यानक्षेप अवस्तु है,वंदना नमस्कार के लायक नहीं" यह कथन केवल पानी के मथन करने समान निष्फल होगया कि नहीं? जरूर होगया, अन्यथा शास्त्र का कपन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) झूठा ठहरेगा, और यह तो कल्पांतकालमें भी नहीं होसकता है कि ढूंढकवचन तो सत्य होवे और शास्त्र का वचन असत्य होवे । तथापि आभिनिवेशिक मिथ्यात्व के ज़ोर से जमालि की तरह अपना कदाग्रह न छोड़ें, और अशुभकर्म को जोड़ें तो उसमें उन की मरज़ी, तथापि श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का पाठ दिखाते हैं, ज़रा मान का घूघट ऊंचा करके देखे तो स्वयं ही ज्ञात होजावेगा, जिस समय भगवान् श्रीऋषभदेव स्वामी का जन्म हुआ उस समय शकेंद्र ने भगवान् श्रीऋषभदेव स्वामी को: __ " णमोत्थूणं भगवओ तित्थयरस्स आइगरस्स जाव संपाविउकामस्स वदामि णं भगवंतं तत्थगयं इह गए पासउ मे भयवं तत्थगए इह गयंति कट्ट वंदइ णमंसइ"॥ इस रीति वंदना नमस्कार किया । तथा हरिणेगमेसि नामा देवता द्वारा, हित के वास्ते, सुखके वास्ते, श्रीतीर्थकर भगवान का जन्ममहोत्सव करने के वास्ते जाने का अपना अभिप्राय देवताओं को मालूम किया,इस बात को सुनकर चित्तमें अतीव प्रसन्न होकर कितनेक देवता वंदना करने के वास्ते, कितनेक देवता पूजा करने के वास्ते, कितनेक देवता सत्कार करने के वास्ते, कितनेक सन्मान के वास्ते, कितनेक दर्शन के वास्ते, कितनेक कुतूहल के निमित्त, कितनेक जिनेश्वरदेव के भक्तिराग के निमित्त, कितनेक शकेंद्र के वचन को पालने के निमित्त, कितनेक मित्रों की प्रेरणा से और कितनेक जीत समझ के अर्थात् सम्यग्दृष्टि देवता को श्रीजिनेश्वर देव के जन्ममहोत्सव में जरूर उद्यम करना चाहिये इत्यादि निमित्तों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) को चित्तमें धारण करके बहुत देवता और देवी शकेंद्र के पास हाज़र होगये, वोह पाठ यह है :"हदि सुगंतु भवतो, बहवे सोहम्मवासिणो देवा । सोहम्मकप्पवइणो, इणमो वयणं हिअसुहत्थं ॥१ आणवेइणंभो सके तं चेव जाव अंतिअं पाउब्भवह । तएणं ते देवे देवीओअ एअमé सोचाह तुछ जाव हिअया-अप्पेगइआ वंदणवत्तिअं एवं पूअणवत्तिअं, सकारवत्ति सम्माणवत्तिअं दंसणवत्तिअं कोऊहलवत्तिअं जिणेसभत्तिरागेणं अप्पेगइआ सकस्सवयणमणुवट्टमाणा अप्पेगइआ अण्ण मण्ण मणुवट्टमाणा अप्पेगइआ जीअमेअंएवमाइति कट्ट जाव पाउब्भवंति"॥ व्याख्या-हंदि सुणतुं इत्यादि । हंत इति हर्षे सच स्वस्वामिनादिष्टत्वात् जगद्गुरुजन्ममहकरणार्थक प्रस्थानसमारंभाच शृण्वंतु भवंतो बहवः सौधर्मकल्प वासिनो वैमानिका देवा देव्यश्च सौधर्मकल्पपतेरिदं वचनं हितं जन्मांतरकल्याणावहं सुखं तद्भवसंबंधि तदर्थमाज्ञापयति भो देवाः शक्रस्तदेवज्ञेयं यत् प्राक सूत्रे शक्रेण हरिनगमोषिपुर उद्घोषयितव्यमादिष्टं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावत् प्रादुर्भवत । अथ शकादेशानंतरं यद्देवविधेयं तदाह । तएण मित्यादि । ततस्ते देवा देव्यश्च एवमनंतरादितमर्थ श्रुत्वा हृष्ट तुष्ट यावद्धर्षवशविसर्पद्धदयाः अपि संभावनायामेककाः केचन वंदनमभिवादनं प्रशस्तकायवाङ्मनःप्रवृत्तिरूपम् तत्प्रत्ययम् तदस्माभिस्त्रिभुवनभट्टारकस्य कर्त्तव्यमित्येवं निमित्तम् एवं पूजनप्रत्ययं पूजनं गंधमाल्यादिभिः समभ्यर्चनम् एवं सत्कार प्रत्ययं सत्कारः स्तुत्यादिभि गुणोनतिकरणम् सन्मानो मानसप्रीतिविशेषस्तत्प्रत्ययम् दर्शनमदृष्ट पूर्वस्य जिनस्य विलोकनं तत्प्रत्ययम् कुतूहलं तत्र गतेनास्मत्प्रभुणा किंकर्तव्यमित्यात्मकं तत्प्रत्ययम् अप्येककाःशक्रस्य वचनमनुवर्तमानाः नहि प्रभुवचनमुपेक्षणीयमिति भृत्यधर्ममनुश्रयंतः अप्येककाः अन्यमन्यं मित्रमनुवर्तमानाः मित्रगमनानुप्रवृत्ता इत्यर्थः अप्येककाः जीतमेतद्यत् सम्यग्दृष्टिदेवर्जिनजन्ममहे यतनीयम् एवमादीत्यादिकमागमननिमित्तमिति कृत्वा चित्तेऽवधार्य यावच्छब्दात् अकालपरिहीणं चेव सकस्स देविंदस्स देवरण्णो इति ग्राह्यम् । अंतिकं प्रादुर्भवंति ॥ ___ तथा जिससमय भगवान् श्रीऋषभदेव स्वामी का निर्वाण हुआ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) उस समय शकेंद्र का आसन चलायमान हुआ अवधिज्ञान से भगवान् का निर्वाण हुआ जानके मैं भी जाकर भगवान् तीर्थकर का निर्वाण महोत्सव करूं, ऐसा दिल में निश्चय करके शक्रेंद्र ने वंदना नमस्कार किया - सो पाठ यह है : " तं गच्छामि णं अहंपि भगवतो तित्थगरस्स परिणिव्वाण महिमं करोमित्ति कट्टु वंदइ णमंसइ 99 व्याख्या - तद्गच्छामि णामिति प्राग्वत् अहमपि भगवतस्तीर्थकरस्य परिनिर्वाणमहिमां करोमीति कृत्वा भगवंतं निर्वृतं वंदते स्तुतिं करोति नमस्यति प्रणमति यच्च जीवरहितमपि तीर्थकरशरीरमिंद्रवद्यं तद्रिस्य सम्यग्दृष्टित्वेन नामस्थापनाद्रव्यभावार्हतां वंदनीयत्वेन श्रद्धानादिति तत्त्वम् ॥ तथा पूर्वोक्त रीति वंदना नमस्कार करके सर्व सामग्री सहित जहां अष्टापद नामा पर्वत है जहां भगवान् तीर्थंकर का शरीर है, वहां शकेंद्र आया, आकर के उदास हो आनंदरहित अश्रु ( इंजु) करके भरे हैं नेत्र जिसके ऐसा होया हुआ शकेंद्र तीर्थंकर के शरीर को तीन प्रदक्षिणा देता है, प्रदक्षिणा देकर न बहुत नज़दीक और न बहुत दूर इस रीति योग्यस्थान में शुश्रूषा करता हुआ यावत् सेवा करता है । तथा च तत्पाठ : 66 जेणेव अगवए पव्वए जेणेव भगवओ तित्थगरस्स सरीरए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता विमणे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) णिराणदे अंसुपुण्ण णयणे तित्थयरसरीरयं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिण करेइ २त्ता णच्चासण्णे णाइदूरे सूस्सूसमाणे जाव पज्जुवासइ” ॥ ___ व्याख्या-यत्रैवाष्टापदःपर्वतःयत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य शरीरकं तत्रैवोपागच्छति । अत्र सर्वत्रातीत निर्देशे कर्तव्ये वर्तमाननिर्देशा स्त्रिकालभाविष्वपि तीर्थकरेष्वेतन्न्याय प्रदर्शनार्थमिति । नहि निर्हेतुका ग्रंथकाराणां प्रवृत्तिरिति । उपागत्य च तत्र यत्करोति तदाह । उवगच्छित्ता इत्यादि : उपागत्य विमनाः शोकाकुलमनाः निरानंदोऽश्रु पूर्णनयन स्तीर्थकरशरीरकं त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं करोतीति प्रागवत् नात्यासन्ने नातिदूरे शुश्रूषन्निव तस्मिन्नप्यवसरे भक्तयाविष्टतया भगवद्धचन श्रवणेच्छाया अनिवृत्तेः यावत्पदात् णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइत्ति परिग्रहः । अत्र व्याख्या । नमस्यन् पंचांग प्रणामादिना अभि भगवंतं लक्षीकृत्य मुखं यस्य स तथा । विनयेनांतर्बहुमानेन प्रांजलि कृत इति प्रागवत् पर्युपास्ते सेवते इति ॥ तटस्थ-आपके सूचन किये प्रमाण अतीव बलवत्तर हैं,बस ! द्रव्यनिक्षेपा जैनसूत्रानुसार अवश्यमेव वंदनीय सिद्ध होगया और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) इससे पार्वती के किये असत्य खंडन का खंडन होकर सत्य सत्य बात का मंडन भी हो गया, अब तो इस बात पर पार्वती को श्री चौबीस महाराज की जय बोल देनी योग्य है ॥ विवेचक - आप क्या कहते है ? नाम और स्थापना निक्षेप का भी तो पार्वती ने निषेध किया है । देखो ससार्थचंद्रोदय के नवमें पृष्ठोपरि “ तातें यह दोनों निक्षेपे अवस्तु हैं कल्पनारूप हैं क्योंकि इनमें वस्तु का न द्रव्य है न भाव है और इन दोनों नाम और स्थापना निक्षेपों में इतना ही विशेष है कि नामनिक्षेप तो यावद काल तक रहता है और स्थापना यावत्काल तक भी रहे अथवा इतरिये ( थोड़े ) काल तक रहे क्योंकि मूर्त्ति फूट जाय टूट जाय अथवा उसको किसी और की थापना मान ले कि यह मेरा इंद्र नहीं यह तो मेरा रामचंद्र है वा गोपीचंद्र है, वा और देव है, इन दोनों निक्षेपों को सात नयों में से ३ सत्य नय वालों ने अवस्तु माना है क्योंकि अनुयोगद्वारसूत्र में द्रव्य और भाव निक्षेपों पर तो सात सात नय उतारी हैं परन्तु नाम और स्थापना पै नहीं उतारी है इत्यर्थः" इत्यादि : बस अब कहिये ! भगवान् के नाम की जय बोलनी या भगवान् का नाम लेना पार्वती तथा ढुंढियों के वास्ते मुश्किल होगया या नहीं ! परन्तु चिंता मत करो, जैनशास्त्रानुसार नाम और स्थापना निक्षेप को भी पूर्वोक्त श्रीजिनेश्वरदेव के द्रव्यनिक्षेपवत् वंदनीय सिद्ध कर देवेंगे जोकि ढुंढियों को बलाव मंजूर करना पड़ेगा, और पार्वती को लिने असत्य का पश्चात्ताप प्रायश्चित्त करके शुद्ध होना पड़ेगा, अन्यथा विराधकों की कोटि में पड़ा रहना पड़ेगा, जमालि वद ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) नाम स्थापना अवस्तु नहीं है। लो ज़रा ख्याल करो ! प्रथम पार्वती के लेख की यत्किचित् समालोचना करते हैं नाम और स्थापना को सर्वथा कल्पित और निरर्थक सिद्ध करने का पूर्वोक्त लेख में साहस कियागया है,सो बड़ा भारी अनुचित काम किया है क्योंकि जब नाम निरर्थक ही है तो फिर मुख पर तोबरा चढ़ाये किसलिये ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरों के नाम लिये जाते हैं ? क्योंकि कल्पित वस्तु तो ढुंढकमत में सर्वथा ही निरर्थक है और श्रीऋषभादि तीर्थंकरों के नाम जन्मसमय में उनके माता पिता ने किसी कारण को पाकर नियत किये हैं कोई खास यह नियम नहीं है कि जो तीर्थकर होवे उनका यही नाम होवें; इसलिये नामनिक्षेप का अनादर करने से श्रीऋषभादि तीर्थंकरों के नाम का भी ढीढयों को अनादर ही करना पड़ेगा, अन्यथा प्रतिज्ञाभ्रष्ट होना पड़ेगा। भला जब नाम और स्थापना में नतो वस्तु का द्रव्य है और न मार है तो यावत्काल और इत्वर (थोड़े) काल तक का रहना किसको पुकारा जाता है ? तथा जब ढुंढकविचारानुसार नाम और स्थापना निक्षेप का सात नयों में समवतार नहीं किया है तो " इन दोनों निक्षेपों को सात नयों में से ३ सत्य नय वालों ने अवस्तु माना है" यह पार्वती का लेख-मम माता वंध्या, मम मुखे जिह्वा नास्ति-मेरी मां वांझ है, मेरे मुख में जवान नहीं है, ऐसे उन्मत्तालाप से कुछ अधिक उपमा के लायक हो सकता है ? नहीं ! नहीं !! तथा पार्वती ही का लेख साबित करता है कि नाम और स्थापना भी कुछ है क्योंकि जब पार्वती ने लिखा है कि सात नयों में से तीन नयवालों ने इन दोनों को अवस्तु माना है तो इससे ही सिद्ध है कि बाकी चारनयों वालों ने तो इन दोनों को जरूर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) ही बस्तु माना है यदि ऐसे नहीं है तो पार्वती का लिखा कि 'तीन नयवालों ने इन दोनों को अवस्तु माना है' कदापि सिद्ध नहीं होवेगा ॥ अच्छा ! लो अब नामस्थापना के विषय में सूत्रप्रमाण भी दिखाते हैं : श्रीभगवती सूत्र, उववाइय सूत्र, रायपसेणीय सूत्रादि अनेक जैनशास्त्रों में तीर्थंकर भगवान् के नाम गोत्र के सुनने का भी बड़ा. भारी फल लिखा है । यथा : " तं महाफलं खलु भो देवाशुप्पिया तहा रूवाणं अरिहंताणं भगवंताणं नाम गोयस्सवि सवणयाए " । इत्यादि पूर्वोक्त पाठ से अरिहंत भगवंत का नाम भी फल का देनेवाला सिद्ध होगया और श्रीठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे में नाम सत्यं कहा है “ णाम सच्चे " इति वचनाव - तथा श्री ठाणांगसूत्र के दशमें ठाणे में भी दश प्रकार के सत्य में नामसत्य कहा है तथाच " तत्पाठः । 66 दसविहे सच्चे पण्णत्ते । तं जहा । जणवय सम्मय ठवणा णामे रूवे पडुच्च सच्चे य ववहार भाव जोगे दसमे उवम्म सच्चे य " ॥ १ ॥ दश प्रकार का सत्य तीर्थकर भगवान् ने फरमाया है सो यह है - देश सत्य ( १ ) सम्मत सत्य ( २ ) स्थापना सत्य (३) नाम सत्य (४) रूप सत्य (५) प्रतीत्य सत्य (६) व्यवहार सत्य ( ७ ) भाव सत्य (८) योग सत्य (९) और दशवां उपमा सत्य (१०) सूत्रों में ऐसे २ सत्य बताने वाले पाठ आते हैं, परंतु जिसकी दृष्टि में असत्य फैल रहा होवे उसको जहां वहां असत्य ही भान होता है, जैसे पीलीया रोगवाला जो कुछ देखता है उसको पीला ही दीखता है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) इसी तरह मिथ्यात्वरूप पांडु रोग के कारण शंखसमान श्वेत तत्वरुचि के पदार्थ भी पीत भान होते हैं, श्रीठाणांग सूत्र के पूर्वोक्त पाठ में “ स्थापना " को भी सत्य फरमाया है, और इसी तरह चौथे ठाणे में भी स्थापनासत्य फरमाया है. "ठवणा सच्चे " इति वचनाव - इत्यादि पाठ प्रायः अनेक जैनशास्त्रों में आता है जिससे नाम तथा स्थापना निक्षेप भी फलदायक सिद्ध होते हैं सूत्र में तो केवल सूचनामात्र होती है " सूत्रं सूचनकृत् " इति वचनाव- परंतु सूक्त रहस्य का पूरा २ आशय तो श्रुतकेवली, पूर्वधर, गीतार्थ पूर्वाचार्य महात्माओं के किये नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका रूप अर्थों के विना कदापि भान नहीं हो सकता है । शोक की बात है कि जैसे प्रमेही पुरुष को घृत नहीं रुचता है, ऐसे ढुंढकमतानुयायी को महात्मा पुरुषों के किये प्राचीन अर्थ रुचते ही नहीं हैं, तो बताओ ? अब क्या उपाय किया जावे ? साध्य व्याधि का उपाय हो सकता है, परंतु असाध्य का उपाय तो धन्वन्तरि भी आकर नहीं कर सकता है ॥ तटस्थ - क्या पूर्वाचार्यों के अर्थ माने विना सूत्र का आशय कदापि प्राप्त नहीं हो सकता ? विवेचक - यदि पूर्वर्षि प्रणीत अर्थ के विना मूलमात्र से पूर्ण आशय निकल सकता है तो श्रीसमवायांग सूत्र में तथा श्री दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में २१ शबले दोष फरमाये हैं जिनमें - हस्तकर्म करे तो शबल दोष (१) मैथुन सेवे तो शबल दोष (२) रात्रिभोजन करे तो शबल दोष (३) आधाकर्मी भोजन करे तो शबल दोष (४) शय्यावर का पिंड ( आहारादि ) भोगे तो शवळ दोष (५) उद्दोशक, मूल्य लाया और सन्मुख लाया भोजन करे तो शबल दोष (६) इत्यादि बातों का निराकरण ढुंढकभाई कर देवें, अन्यथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) दुराग्रह को त्यागकर पूर्वाचायों का शरण मंजूर कर लेवें जिससे निस्तारा होवे । नहीं तो जमालि की तरह संसार में रुलना ही पड़ेगा ! ! तथा इस बात का भी ज़रा उनको ख्याल करना चाहिये कि यदि नियुक्ति आदि पूर्वाचार्यों के किये अर्थ नहीं माने जावेंगे तो केवल मूल मानने के हठ से ढुंढकमतावलम्बियों के गले में बड़ा भारी लंबा रस्सा पड़ जावेगा कि जिससे मुक्त होना अतीव कठिन होगा, क्योंकि पूर्वोक्त सूत्रों के मूलपाठ से मैथुन सेवे तो शबल दोष लगता है यह सिद्ध होता है, तो इससे यही साबत होवेगा कि मैथुन सेवने से साधु चारित्र से भ्रष्ट नहीं होता है, दोष लगता है, सो आलोचना प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध हो जावेगा तो फिर अपघात करने की क्या जरूरत है ? और उपदेश में फरमाया जाता है कि साधु अपघात तो कर लेवे परंतु शील को खंडन न करे, अर्थात् मैथुन न सेवे ! अब बताना होगा कि शास्त्रकार के कथन का असली क्या आशय है. और उसमें प्राचीन प्रमाण के विना मनःकल्पित बात मानने योग्य कदापि न होवेगी, इसवास्ते यदि सुख और सद्गति की जरूरत है तो अभिमान को छोड़, कुगुरों की फांसी को तोड़, अपने मन को सत्वर पूर्वाचायों के प्रति बहुमान करने में जोड़ना योग्य है आगे उनकी मरज़ी, परंतु यह तो जरूर समझ लेना कि मरज़ी में आवे पूर्वर्षि प्रणीत प्राचीन अर्थों को माने, और मरज़ी में आवे ना माने, तथापि नाम, स्थापना और द्रव्य इन तीनों के माने विना तो कदापि छुटकारा नहीं होवेगा, और विना इन तीनों के केवल भावनिक्षेपा शशशृंग होजावेगा, क्या नाम, स्थापना और द्रव्य के विना केवल भाव ही भाव किसी घघरीवाली के पास या किसी पगड़ी वाले के पास या किसी सिरमुंडों के पास या किसी जटाधारी के पास देखा वा सुना है ? नहीं ! नहीं ! कहाँ से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) देखें और सुनें ? जगत् में बैसी कोई वस्तु ही नहीं है कि जो नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेप से अर्थात् इन चार प्रकार से खाली होवे ॥ तात्पर्य - जो वस्तु दुनिया में है उसमें नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव यह चार भेद तो अवश्यमेव होवेंगे. जिसमें पूर्वोक्त चार प्रकार नहीं, वह बस्तु ही नहीं, खरशृंगवत्, जैसे गधे का श्रृंग नहीं है तो उसका वाचक व्युत्पत्तिमान् शुद्ध शब्द भी कोई नहीं है कि जिस नाम से खास उसही का ज्ञान होवे, जब नाम नहीं है तो उसकी स्थापना यानि शकल भी किसी किसम की नहीं हो सकती है कि जिस शकल को देखकर गोश्रृंगवत् खरभृंग का ज्ञान होवे, जब नाम और स्थापना नहीं तो द्रव्य पूर्वापरावस्था रूप पर्याय का आधार भी नहीं, जब नाम, स्थापना और द्रव्य नहीं तो भाव तद्गव धर्म भी नहीं, और जब नाम, स्थापना, द्रव्य, और भाव नहीं तो वह पदार्थ भी नहीं, इसी वास्ते श्री अनुयोगद्वार सूत्र में फरमाया है कि जहां जिस जीवादि वस्तु में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावादि लक्षण जितने भेद जानने में आवें, वहां उन सर्व भेदों से वस्तु का विचार करना और जहां सर्व भेद न मालूम होवें तो वहां नाम, स्था पना, द्रव्य और भाव इन चारों का तो जरूर निक्षेप करना अर्थात् इन चार प्रकार से वस्तु का चितवन अवश्यमेव करना तथाच तत्पाठ : जत्थय जं जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थविय न जाणेज्जा चउकगं निक्खिवे तत्थ । १ । व्याख्या - आवश्यकादिशब्दानामर्थो निरूपणीयः स च निक्षेपपूर्वक एव स्पष्टतया निरूपितो भवत्यतोऽमीत्रां निक्षेपः क्रियते तत्र निक्षेपणं निक्षेपो यथा संभव - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) मावश्यकादेर्नामादिभेदनिरूपणं तत्र जघन्यतोप्यसौ चतुर्विधो दर्शनीय इति नियमार्थमाह जत्थय गाहा व्याख्या यत्र जीवादि वस्तुनि यं जानीयानिक्षेपं न्यासं यत्तदोनित्याभिसंबंधात्तत्र वस्तुनि तं निक्षेपं निरूपयेनिरवशेष समग्रं । यत्रापि च न जानीयानिरवशेष निक्षेपभेदजालं तत्रापि नामस्थापनाद्रव्य भाव लक्षणं चतुष्कं निक्षिपेदिदमुक्तं भवति यत्र तावन्नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावादिलक्षणा भेदा ज्ञायते तत्र तैः सर्वैरपि वस्तु निक्षिप्यते । यत्र तु सर्वभेदा न ज्ञायते तत्रापि नामादि चतुष्टयेन वस्तु चिन्तनीयमेव सर्व व्यापकत्वात्तस्य न हि किमपि तद्वस्तु अस्ति यन्नामादि चतुष्टयं व्यतिचरतीति गाथार्थः-- और असल में तो निक्षेपपद का यथार्थ अर्थ पार्वती ने या ढुंढकपंथानुयायी ने समझा ही नहीं है, यदि समझा होता तो इसप्रकार की मूढता ज़ाहिर न होती, जोकि नाम को निक्षेप से जुदा घसीटा है, यदि पार्वती की करी पूर्वोक्त कल्पना ठीक है तो इस विषय में जैसे हमने निक्षेपपद का अर्थ पूर्वर्षिप्रणीत पूर्वोक्त प्राचीन पाठ में लिख दिखाया है. पार्वती भी दिखा देवे ? अन्यथा मनाकल्पित बातों से पार्वती का कथन शास्त्रानुकूल तो कदापि सिद्ध नहीं होगा, प्रत्युत शास्त्रप्रतिकूल तो सिद्ध होही चुका है. पूर्वमानसम्मतेरभावात् ॥ इसवास्ते शास्त्रकारों के तथा सम्यक्त्वशाल्योद्धार के कर्ता के असली गूढ़ आशय को न समझनेसले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) ही मूढमति हैं ! जोकि विना विचारे ऊतपटांग जो कुछ दिल में आया बक दिया ॥ देखो ! पृष्ठ८ की दूसरी पंक्ति में क्या पत्थर लिख मारा है, इंद्र का नाम “सहस्रानन" किस ढुढककोश या पुराण में लिखा है ? मालूम होता है कि लिखते समय मुख का पाटा आंख पर आगया होगा !! अनी ज़रा सोच विचार के कलम चलानी ठीक है परंतु महात्माओं की अवज्ञा करनेवालों के दिल में शोच विचार कहां से होवे ? तटस्थ-बेशक, महात्माओं की अवज्ञा करने का और उन प्रति बहुमान न करने का यही फल होता है,इसबात पर एक दृष्टांत भी है,यथा-एक सिद्धपुत्र के दो शिष्य थे, दोनों ही गुरु का विनय करते थे, परंतु एक गुरू का बहुमान करता था अर्थात् गुरु के ऊपर एक की अंतरंग प्रीति थी, और दूसरा गुरु का बहुमान बिलकुल नहीं करता था । दोनों ही जने अष्टांगनिमित्तशास्त्र पढ़कर कुशल होगये, एक दिन की बात है कि दोनों जने घास लकड़ी आदि लेने वास्ते गये,रस्ते में चिन्ह देखकर एकने कहा कि आगे हाथी जाता है. तब दूसरे ने कहा कि यह हाथी नहीं है, हथनी है, और वह बाई आंख से काणी है, उस पर स्त्री और पुरुष सवार हैं, जिसमें औरत गर्भवती है, लाल वस्त्र उसके ऊपर है और जलदी पुत्र को जन्म देनेवाली है, पहिले ने कहा क्यों ऐसा विना देखे असंबद्ध बोलता है ? उसने जवाब दिया कि ज्ञान अनुभवसिद्ध है, आगे सब मालूम होजावेगा. दोनों कितनेक दूर आगे को गये तो सब वैसे ही देखा. और पुत्र प्रसूत हुआ दोनों को मालूम होगया. तब दसरा-इसने यह बात कैसे जानी ? मुझको तो कुछ भी पता नहीं लगा, इस रीति आश्चर्य को प्राप्त होकर उदास होगया. दोनों जने फिरते हुए नदी किनारे पहुंचे, वहां एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुढ़िया जल लेने के वास्ते आई. उस बुढ़िया के बेटे को परदेश में गये बहुत समय हुआ, अब तक नहीं आया था, इसबास्ते बुढ़िया ने उन दोनों को पूछा कि मेरा बेटा कब आवेगा ? पूछने के समय बुढ़िया के सिर से घड़ा नीचे को गिर पड़ा, और फूट गया, तब उस मंदबुद्धि ने कहा कि :तज्जाएण य तज्जायं तण्णिभेणय तण्णिभं । तास्वेण य तारूवं सरिसं सरिसेण निदिसे ॥१॥ तज्जातेन च तज्जातं तन्निभेन च तन्निभम् । तद्रूपण च तद्रूपं सदृशं सदृशेन निर्दिशेत॥१॥ इस निमित्तशास्त्र के कथनानुसार तेरा पुत्र मर गया दूसरे ने कहा ऐसा मत बोल, पुत्र घर आगया है, जा बुढ़िये । जलदी अपने घर को चली जा वृथा संदेह में मत पड़ ॥ बुढ़िया खुश होकर जलदी घर में गई पुत्र को देखा और स्नेह के साथ पुत्र से मिली. इधर दोनों शिष्य गुरु पास पहुंच गये, इतने में धन और धोती लाकर बुढ़िया ने सत्य बोलनेवाले उस दूसरे का सत्कार किया तब वह गुरू पर क्रोध करके बोला कि आप जैसे जानकार हो के भी यदि अपने शिष्यों में इतना अंतर (भेद) करते हैं तो और का तो कहना ही क्या ? यदि अमृतमय चन्द्रमा से आग की वर्षा होवे, सूर्य से अन्धकार पैदा होवे, कल्पवृक्ष की सेवा से दारिद्र होवे, चन्दन के वृक्ष से दुर्गंध आवे, अमृत से ज़हर चढ़ जावे, सजन पुरुष से. दुर्जनता होजावे, श्रेष्ठ वैद्य से रोग बढ़ जावे, और पानी से आग लग जावे तो इसमें किसको दोष दिया जावे ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) तब गुरु ने कहा क्यों ऐसे बोलता है ? मैंने पढ़ाने में या आम्नाय बतलाने में कोई फरक नहीं किया है. उसने जवाब दिया कि यदि आपने फरक नहीं रक्खा तो इसने हथनी आदि सब वृत्तांत यथार्थ किस तरह जाना ? और मैंने क्यों नहीं जाना ? गुरु ने पूछा कि हे भली बुद्धिवाले ! तैंने यह सब वृत्तांत किस तरह जाना ? शिष्य ने कहा, महाराज ! आपकी कृपा से चिन्ह आदि के विचार करने सेयथा पिशाब के निशान से हथनी जान ली, दाई तर्फ से ही कहीं २ मुंह पाकर घास आदि भक्षण करने से मैंने मालूम किया कि वाम नेत्र से काणी है, पिशाब के निशान से ही स्त्री पुरुष का ज्ञान किया, तत्काल प्रसूत का होना दोनों हाथ जमीन पर लगा कर स्त्री के उठने से जान लिया, वृक्षोपरि लगी लाल मूत की तारों से लाल रंग के कपड़े का ज्ञान मैंने कर लिया, और पुत्र का होना रस्ते में स्त्री का दक्षिण पांव भारी पड़ा देखकर निश्चय कर लिया. तथा बुढ़िया के पुत्र का घर आना घड़ा जमीन से पैदा हुआ था फूटकर फिर ज़मीन के साथ मिल गया ॥ इसी प्रकार पूर्वोक्त वाक्यानुसार मैंने निश्चित किया, तब उस शिष्य की अपूर्व बुद्धि से खुश होकर गुरु ने दूसरे शिष्य को कहा कि वत्स ! यद्यपि तू अनेक प्रकार का विनय करता है, तथापि तेरा मेरे विषे बहुमान नहीं है. और इसका बहुमान है. और वैनयिकी बुद्धि भी भली प्रकार बहुमान पूर्वक विनय करने से ही तेज़ होती है, इसवास्ते इसमें मेरा कोई दोष नहीं है. इति ॥ पूर्वोक्त दृष्टांत से सिद्ध होता है कि महात्माओं प्रति बहुमान न करने से शास्त्र का परमार्थ पूरा २ फलीभूत नहीं होता है। तटस्थ-इसीवास्ते पूर्वाचार्यों प्रति जो अनादरता दिल में बैठी हुई है उसको त्याग शोच विचार करे तो आपही आप शास्त्राShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) नुसार निक्षेपों का याथातथ्य ज्ञान होने से कभी भी दिलमें यह शंका नहीं रहेगी कि स्थापना में चार निक्षेप किस तरह हो सकेंगे | स्थापना में चारों ही निक्षेप का वर्णन | पूर्वोक्त श्री अनुयोगद्वार सूत्र की आज्ञानुसार जब हरएक त्रस्तु चार २ निक्षेप से विचारनी योग्य है तो क्या स्थापना बाकी रह गई ? जो कुतर्क रूप जाल में भोले आदमी को फंसाने का उद्यम किया है ? देखो !किसी वस्तु की स्थापना ( आकृति - शकल ) देखी जावेगी उसी वक्त उस वस्तु के चारों ही निक्षेप ( भेद ) समझने में आवेंगे, तबही वह स्थापना उस वस्तु की कही जावेगी, और उसका यथार्थ ज्ञान भी तबही होवेगा यदि ऐसा न होवे तो हाथी की स्थापना से घोड़े का ज्ञान होना चाहिये, सो तो कभी भी नहीं होता है, इससे साफ जाहिर होता है कि स्थापना में भी किसी अपेक्षा वोही चार निक्षेप होते हैं, जोकि वस्तु में होते हैं, क्योंकि स्थापना उस वस्तु का एकांश है. और देश में सर्व उपचार होना यह तो न्यायशास्त्र की प्रथा ही है. इसीतरह नामादि में भी ख्याल कर लेना. जैसे कि - पार्वती - इस नाम को सुनते ही किसी ने यह नहीं निश्चय कर लेना है कि अमुका शंकरपत्नी है, परंतु नामके साथ ही स्थापना द्रव्य और भाव से विचार करने से मालूम होजावेगा कि यह ठीक ईश्वरपत्नी है, तो जरूर ही उसके मानने वाले उसी वक्त सिर झुकानेंगे. और यदि गिरिजा वाले भेद न घटेंगे तो जान लेवेंगे कि अमुका शंकरपत्नी पार्वती नहीं है, किन्तु कोई अन्य औरत है ॥ इसी प्रकार पार्वती सती के मानने वाले पार्वती का नाम सुनकर जब उसके ही नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव का उनके दिल में निश्चय होवेगा तो झट सिर झुकावेंगे, परंतु शंकरपत्नी पार्वती मालूम होने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ४४ ) पर कदापि निज सती पार्वती की बुद्धि करके सिर न झुकावेंगे ॥ तथा पविती की मूर्ति को देखकर जैसे सती पार्वती के माननेवालों को एकदम पार्वती संबंधी निक्षेप का ज्ञान होवेगा, वैसी मूर्ति को देखकर शंकरपत्नी पार्वती के मानने वालों को कदापि न होवेगा इसी प्रकार शंकरपत्नी पार्वती की मूर्ति को देखकर जो कुछ उत्साह उसके मानने वालों को आवेगा, ढोढयों को कदापि न आवेगा, तो शोचना चाहिये कि उसमें क्या कारण है ? । तटस्थ-वस सिद्ध होगया कि जिसकी मूर्ति है उसकी वास्तविकता की ओर बलात् आकर्षण होजाता है और अपने मनोभिलषित पदार्थ का ज्ञान होने से झट सिर झुकाना आदि अपने प्रणामों का उस तरफ आकर्षण होजाता है, और झुक २ के नमस्कार किया जाता है, परंतु इस तात्पर्य के समझने वालों की बलिहारी है। वेचक-इतना ही नहीं एक और बात भी सोचने लायक है कि नाम के लेने से तो एकदम वास्तविकता पर मन का आकर्षण नहीं भी होता है, परंतु मूर्ति के देखने से तो एकदम उसी तरफ दृष्टि होजाती है. जिसका अनुभव जगप्रसिद्ध है. कहने सुनने की कोई अधिक आवश्यकता नहीं है. बस इसी तरह श्रीजिनेश्वरदेव की बाबत भी विचार करना योग्य है, नतु वृथा हठ ही हठ करना योग्य है, जैसे श्रीजिनेश्वरदेव का पवित्र नाम श्रीऋषभदेवजी या श्रीशांतिनाथ जी, या श्रीपार्श्वनाथ जी, या श्रीमहावीर स्वामी जी लिया जाता है उसी वक्त उनके चारों निक्षेप की तर्फ ख्याल दौड़ता हुआ झट नियमित वस्तु में जा अटकता है, परंतु श्रीपार्श्वनाथ स्वामी का नाम लेने से श्रीशांतिनाथ स्वामी का, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OBSON SHIVA AND PAR COPYRIQUE Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) या श्रीमहावीर स्वामी का नाम लेने से श्रीऋभदेव स्वामी का भाव कदापि नहीं आता है, इसका क्या कारण है ? क्योंकि ढुंढक भाइयों के हिसाब से तो भावही भाव है और कोई निक्षेप तो काम में आता ही नहीं है, और भावनिक्षेप तो सर्वमें एकही समान है, फिर क्या कारण है कि एक तीर्थकर का नाम लेने से दूसरे तीर्थकर में भाव नहीं जाता है ? किंतु खास उन ही महात्मा का ख्याल हो जाता है कि जिन का नाम लिया जाता है । बस इससे साफ ज़ाहिर है कि नामादिका आपस में जरूर कुछ न कुछ संबंध है। इसी तरह श्रीवीतरागदेव की स्थापना प्रतिमा के देखने से जिन तीर्थकर भगवान् की वह प्रतिमा होती है उन ही महात्मा का ख्याल वह कराती है, नामवत् ॥ बलकि नाम से भी ज्यादा, क्योंकि नाम तो एक अंश रूप है, और प्रतिमा नाम और स्थापना रूप दो अंश प्रत्यक्ष भान होते हैं। यदि नाम मात्र ही अपनी वास्तविकता को पहुंचा सकता है तो क्या नाम और स्थापना दो नहीं पहुंचा सकते हैं ? जरूर अतीव सुगमता के साथ पहुंचा सकते हैं। और इसीवास्ते स्तुतिकारों ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की है कि-नामा स्थापना, द्रव्य और भाव चारों प्रकार से तीन जगत के जीवों को पवित्र करने वाले अहन भगवंतों की सर्व क्षेत्र में और सर्व काल में हम स्तुति उपासना सेवा करते हैं। यदुक्तम्-नामाकृतिद्रव्यभावैः पुनतस्त्रिजगजनम् । क्षेत्रे काले च सर्वस्मिन्नर्हतः समुपास्महे॥१॥ तात्पर्य यह है अईन भगवंत के चारों ही निक्षेप जगद्वासी जीवों को उपकार करते हैं। कितनेक जीवों को नाम स्मरण से उपकार होता है, कितनेक को स्थापना से, कितने को द्रव्य से और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितनेक को भाव से उपकार होता है। इसवास्ते चारों ही निक्षेप को मानना सम्यग्दृष्टिं का लक्षण है। परंतु एक दो का मानना और बाकी का निषेध करना सम्यग्दृष्टिका काम नहीं है ॥ तटस्थ-शास्त्रानुसार चारों ही निक्षेप का मानना सिद्ध हो चुका और गुप्ततया ( चोरी) दुढिये भी मानते हैं परंतु कदाग्रह के वश से प्रकटतया नहीं मानते हैं ॥ विवेचक-लो देखो ! हम प्रगट करके दिखाते हैं । भावको तो ढुंढये भाई साहिब मान्य करते ही हैं, और नामको रात्रि दिव रटते हैं, इस से दो निक्षेप तो सिद्ध हो चुके, वाकी द्रव्य और स्थापना उनकी बाबत पूर्व सविस्तर लिखा गया है, तो भी थोडी सी बात और दिखाकर ढुंढियों का द्रव्य और स्थापना का मानना ढुंढियों के नित्य कृत्यों से तथा पार्वतीके लेखसे ही सिद्ध कर दिखाते हैं। “श्रीजिनेश्वर देव के चारों ही निक्षेप माननीय और वंदनीय हैं"। जब चतुर्विंशतिस्तव ( लोगस्स ) पढ़ते हैं, तब " अरिहंते कित्तइस्सं चउवीसं पि केवली" पढ़ते हैं जिसका अर्थ चउबीप्त अरिहंतों की मैं कीर्तना करुंगा सो वह चउबीस भगवान् कि जिनका "उसभमाजअंचवंदे" इत्यादि पाठ द्वारा ऋषभदेव को वंदना करता हूं, ओजतनाथ को वंदना करता हूं, प्रत्यक्ष नाम उच्चारण किया जाता है, वर्तमान कालमें अरिहंत के भावनिक्षेपे तो है नहीं, किंतु सिद्ध के भावनिक्षेपे हैं, तो आप ही अपने दिल में सोच लेवें कि केवल भावनिक्षेप को मानके अन्य नामादि निक्षेपका निषेध करना कैमी अज्ञानता है । तटस्थ-जो चउबीस प्रभु मोक्ष को प्राप्त हो गये हैं उनको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) वंदना होती है ऐमा उनका मानना है पार्वती जी ने सृष्ट ६५ में लिखा है कि तीर्थकरपद के गुण पूर्वले ग्रहण करके सिद्धपदमें नमस्कार की जाती है। विवेचक-तबतो “ अरिहंते कित्तइस्म" के बदले “सिद्धे कित्तइस्स" पढ़ना चाहिये, क्योंकि वह तो सिद्ध हो गये हैं। तथा " चउनीसंपि केवली" के ठिकाने “ अणते पि केवली" पढ़ना. होगा, क्योंकि सिद्ध तो अनंत हैं, इसघास्ते यह मानना ठीक नहीं है। तटस्थ-जघन्यपद २० तीर्थकर तो अवश्य ही मनुष्य क्षेत्र में होते हैं, ऐसा पार्वती जीने सत्यार्थ चंद्रोदय के ६४ पृष्टोपरि लिखा है इसवास्ते अरिहंतपद करके उनको वंदना मानी जावे तो क्या दोष है । विवेचक-यह भी उनका मानना ठीक नहीं है, क्योंकि आज कल भरत ऐरावत क्षेत्र में तीर्थकर कोई नहीं है। तथा पांच भारत और पांच ऐरावत क्षेत्र में मिल के दश ही तीर्थकरों का एक समय होना होसकता है, अधिक नहीं, और यदि महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा लेवे तो वहां भी उनके विचारानुमार जघन्य बीस तीर्थकर कदापि नहीं होसकते हैं, किंतु उत्कृष्टपदे बीस होसकते हैं क्योंकि महाविदेह क्षेत्रों में एक समय उत्कृष्ट बीस तीर्थंकरों का जन्म होता है, इससे अधिक नहीं, जब ऐसे हुआ तो जिनका जन्म एक समय में हुआ है भावनिक्षेप में भी वोही एक समय में विद्यमान हो सकते हैं, और नहीं, इसवास्ते जघन्यपद में बीसका मानना ढुंढकपंथ को हानिकारक हो जावेगा, क्योंकि जब जघन्यपद में बीस मानेंगे तो उत्कृष्टपदमें उससे अधिक जरूर ही मानने पड़ेंगे। और अधिक मानना इस मत में एक बड़ा भारी रोग पैदा करना है. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८ ) क्योंकि बीस से अधिक तीर्थंकरों का एक समय में जन्म जैनशास्त्रा. नुसार कदापि नहीं होसकता. जब जन्मही एक समय बसिसे अधिक का नहीं होमकता तो केवलज्ञान भी एक समय बीस तीर्थकरों से अधिक को नहीं होसकता है, क्योंकि तीर्थंकरों का एक सदृश ही आयु होता है. और केवलज्ञान हुए विना तीर्थकर मानना उनकी श्रद्धा नहीं है, फिर बताओ जघन्यपद में बीस तीर्थकर का मानना उत्कृष्टपद के माने विना सिद्ध होसकता है ? कदापि नहीं ॥ और उत्कृष्टपद माना तो द्रव्यनिक्षेप बलात्कारसे गले में पड़ गया, जब द्रव्यनिक्षेप मानलिया तो फिर ऊंचे २ हांथ करके नाम, स्थापना और द्रव्यनिक्षेप वंदनीय नहीं हैं पुकारना उजाड़ में रोने और अपने नयनों के खोने के सिवाय और क्या है ? तथा महाविदेह में आजकाल अमुक २ नाम के बीस तीर्थकर भावनिक्षेपे अर्थात् केवलज्ञान अवस्था में चौतीस अतिशय, पैंतीस वाणी के गुणसहित बारह गुणें करी विराजमान् विद्यमान हैं. ऐसा बत्तीस सूत्रों में से किस सूत्र के मूलपाठ में वर्णन है ? और एक यह भी बात विचारने योग्य है कि यदि महाविदेह के तीर्थंकरों की यहां अपेक्षा होवे तो “उसभ मजिअंच वंदे" इत्यादि पाठ के स्थान में महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के नाम का पाठ पढ़ना चाहिये ॥ यह तो कदापि नहीं होसकता कि नाम तो ऋषभदेवजी का लिया जावे, और वंदना श्रीसीमंधरस्वामी को मानी जावे, और यदि बीस विहरमान के नाम लिये जावें तो “ चउवीसत्था" के स्थान में “ वीसत्था " मानना पड़ेगा ॥ और जब “वीसत्था" माना जावेगा तो" चउवीसत्या" उड़ जावेगा, और चउवीसत्था के उड़ने से “ षडावश्यक " (सामायिक, चउवीसत्था, वंदना, पडिकमणा, काउसग्ग, और पञ्चक्खान) रूप नित्य अवश्य करणीय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८ ) कृस टूट जावेंगे, और इस दशा में अनुयोगद्वारादि सूत्र की आज्ञा के उल्लंघन रूप महावज्रदंडपहार की मार निर्विचार स्वीकार करनी पड़ेगी। इतना ही नहीं समझना कि चउवीसत्था ही उड़ जावेगा, साथ में पडिक्कमणा आवश्यक भी उड़ जावेगा, क्योंकि साधु साध्वी के पडिक्कमणे ( पगाम सिज्जाय ) में-"नमो चवीसाए तित्थयराणं उसभाइ महावीर पजवसाणाणं" ऐसा पाठ आता है. जिस का मतलब यह है कि ऋषभदेव आदि महावीर स्वामी पर्यंत चौबीस तीर्थकरों प्रति नमस्कार होवे. यद्यपि ऐसे २ प्रयक्ष पाठ हैं, तथापि असत्य कल्पना करके भोले जीवों को अपने जाल में फंसाते हैं तो इससे अधिक अनर्थ का काम और क्या होसकता है ? इसवास्ते जो तीर्थंकरों के नामादि उच्चारण करके स्तुति करनी है सो नामनिक्षेप ही है, भावनिक्षेप नहीं, क्योंकि जो २ नाम लिये जाते हैं उस २ नाम के तीर्थकर वर्तमान काल में भावनिक्षेपे कहीं भी विद्यमान नहीं हैं. जब भावनिक्षेपे नहीं हैं तो अनन्य गति होने से भावातिरिक्त निक्षेप उनको अवश्य मानना ही पड़ेगा, कभी भी छुटकारा नहीं होवेगा, और यदि यह बात दिनरात दिल को लात मारती होवे अर्थात् दिल में यह ख्याल होवे कि भूतकाल में जो चौबीस तीर्थकर थे, उनको वंदना करते हैं तो अतीतकाल में जो वस्तु होगई सो द्रव्यनिक्षेप है ॥ भूतस्य भाविनो वा, भावस्य हि कारणंतु यल्लोके । तद् द्रव्यं तत्वज्ञैः,सचेतनाचेतनं कथितमितिवचनात । और द्रव्यानक्षेपको वंदनीय मानते नहीं हैं तो फिर बताओ दढियों की वंदना किसको होती है ? इसवास्ते यदि हठ को छोड़ . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) कर द्रव्यनिक्षेप को हाथ जोड़ लेवें और कदाग्रह से मुख को मोड़ लेवें तो इनका निस्तारा होसकता है अन्यथा नहीं। और यदि ऐसा उनके दिल में जमा हुआ है कि अतीत काल में जैसे रिहंत थे वैसे अपने दिलमें कल्पना करके उनको हम वंदना करते हैं तो वह जाने,मरज़ी में आवे सो कर लेवें, परंतु यदि सूक्ष्मदृष्टि से विचारा जावे तो इस में तो स्थापना नियम करके सिद्ध होगई,फिर जो कहते हैं कि स्थापना कुछ नहीं है,वंदन के योग्य नहीं है,सो कैसे सिद्ध होवेगा? और स्थापना के माने विना तो जैनशास्त्रानुसार कोई भी करणी सिद्ध नहीं होवेगी, जिसमें भी खास करके दिन और रात्रि के तथा पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण तो कदापि ठीक २ सिद्ध नहीं होवेंगे, क्योंकि पडिक्कमण में तीसरा वंदनाआवश्यक होता है, जिसमें गुरु महाराज को वंदना करना होता है, सो गुरु महाराज की अनुपस्थिति में वंदना किस प्रकार पूरी होवेगी ? जैसे कि इस वक्त पार्वती की दूसरीवार की गुरुणी "मेलोजी" मौजूद है [पहिली गुरुणी तो "हीरां" थी ] सो प्रायः करके तो पार्वती उसके साथ रहती ही कम है, तथापि जब कभी पार्वती उसके साथ होती होवेगी, तब तो अवश्य ही उसको वंदना करती होवेगी, परंतु उस समय मेलोजी, तथा मेलोजी के अभाव में पार्वती किसको वंदना करती होगी? इस बात का विचार ज़रा पक्षपात के परदे को उठा कर ज़रूर करना योग्य है, तथा जैसे श्रीपूज्य अमरसिंघजी की संप्रदायमें इस समय सर्वोपरि पूज्य सोहनलालजी हैं, वह प्रतिक्रमण में वंदना आवश्यक के समय किसको वंदना करते हैं ? और किस रीति तीसरा वंदना आवश्यक का आराधन किया जाता है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) क्योंकि इनके गुरुजी तो काल कर गये हैं, और इनसे बड़ा इस वक्त अन्य कोई इस संप्रदाय में है नहीं, आपही पूज्यजी महाराज होने से बड़े हैं-सुनने में आया है कि जब पूज्यजी महाराज और लालचंदजी की भेट हुई, तब पूज्यजी ने लालचंदजी को वंदना की थी, यदि यह बात वास्तव में सत्य है तो जैनशास्त्र, तथा लौकिक प्रथा के विरुद्ध है, अच्छा, हमें क्या, हमारा तो असली पक्ष वंदना का है. चाहे सोहनलालजी बड़े बने रहें, और चाहे लालचंदजी बने रहें, वंदना तो दोनों को अवश्यमेव गुरु को करनी ही पड़ेगी, और दोनों के गुरु या गुरु स्थानीय कोई बड़े नहीं हैं तो अब बताना चाहिये यह किसको वंदना करते हैं ? और विना वंदना के तीसरा आवश्यक कैसे सधेगा ? और तीसरे आवश्यक के साधे विना षडावश्यक के संपूर्ण न होने से पूर्वोक्त पांच प्रतिक्रमण (दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक चातुर्मासिक और सांवत्सरिक ) कैसे सिद्ध होवेंगे ? यदि कहो कि जो गुरु प्रथम थे उनको वंदना करते हैं तो वह इस वक्त साधु के या गुरु के भावनिक्षेप में हैं नहीं, क्योंकि वह तो मर के परमात्मा जाने किस गति में कैसी दशा में होचेंगे, तो भी उनके विचार के अनुसार देवलोक में देवता हुए होवेंगे, और वहां श्रीजिनप्रतिमा की सेवा पूजा भक्ति में तत्पर होवेंगे क्योंकि पूजा का करना देवता का अवश्य कृस ढुंढकमतानुयायी पुकारते हैं, तो फिर जिनप्रतिमा के महा दुश्मन होकर जिनप्रतिमा के पूजनेवाले देवतों को नमस्कार करते हैं यह कहते हुए ढुंढकमतानुयायी की ज़बान किस तरह चलेगी? और देवता असंयति हैं, उनको संयति होकर वंदना करनी यह भी स्वीकार न होगा। तो फिर अब बताओ वंदना किसको होगी, ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) यदि उनकी पिछली अवस्था का विचार किया जावे तो वह द्रव्यनिक्षेप को वंदनीय नहीं मानते हैं तो फिर किस तरह वंदना करेंगे, और जो दिल में गुरु की उस अवस्था को थाप लेंवेंगे तो स्थापनानिक्षेप सिद्ध होगया, बताओ ? अब क्या बनावेंगे ? तटस्थ - बस जी ! क्या बनाना है ! सीधे रास्ते को छोड़ बांके रास्ते होकर भी स्थापना तो उनको अवश्य माननी ही पड़ती परंतु यह तो ऐसा हुआ जैसे कि हाथ से नहीं खाना तिनके से खाना, तो भी क्या हुआ, झक मारके स्थापना तो माननी ही पड़ी ॥ विवेचक - बेशक, उन्होने दिल में स्थापना स्थापन करली, बाहिर स्थापना स्थापन करनी नहीं मानी परंतु यदि शास्त्रानुसार चलना मंजूर करेंगे तत्रतो अवश्य ही बाहिर स्थापना स्थापन करनी पड़ेगी और जो अपने स्वच्छंद मार्ग पर चलना होवे तो उनका इखत्यार है । हमारा तो जितना उपदेश है, शास्त्रानुसार चलने वाले भव्य जीवों के लिये है, न कि आपापंथी निगुरे लाल बुजक्कड़ों के लिये | " स्थापना आवश्य स्थापन करनी योग्य है" तटस्थ - क्या किसी जैनशास्त्र का ऐसा भी प्रमाण है कि जिस से स्थापना स्थापन करके ही प्रतिक्रमणादि क्रिया करनी सिद्ध होवे ? विवेचक - श्री समवायांग सूत्र के बारवें समवाय में वंदना के पंचवीस आवश्यक लिखे हैं अर्थात् वंदना में २५ बोल पूरे करने चाहिये, सो पाठ यह है : दुवालसावत् किति कम्मे पण्णत्ते । तंजहा । www.umaragyanbhandar.com 66 -- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) दुओणयं जहाजायं किति कम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं दुष्पवेसं एग निक्खमणं " ||१|| भावार्थ - द्वादशाववर्त्त वंदना भगवान् श्रीवर्द्धमान स्वामी ने फरमाई है सो इस रीति से है- दो अवनत दो वक्त मस्तक झुकाना ( २ ) एक यथाजात अर्थात् जन्म और दीक्षा ग्रहण करने समय. जो मुद्रा ( शकल ) होती है वैसी मुद्राका बनाना ( ३ ) बारह आवर्त्त अर्थात् प्रथम के प्रवेशमें छै, और दूसरे प्रवेश में छै, इस तरह "अहो कार्य काय संफासं" इत्यादि पाठ सहित प्रदक्षिणा रूप कायव्यापार हाथों से करना (१५) चार सिर अर्थात् प्रथम प्रवेश में दो सिर और दूसरे प्रवेश में दो सिर कुल मिलक चार हुए ( १९ ) तीन मन वचन और काया का गोपना अर्थात् मन वचन और काया से वंदनातिरिक्त और कोई व्यापार नहीं करना (२२) दो बार. अवग्रह ( गुरु महाराज की हद ) में प्रवेश करना ( २४ ) और एक बार बाहिर निकलना (२५) यह कुल पच्चीस हैं = अब सोचना चाहिये कि गुरु महाराज का जो अवग्रह कि जिसमें दो बार प्रवेश करना और एक बार उससे बाहिर निकलना, बिना साक्षात् गुरु महाराज के विद्यमान हुए, या विना गुरु महाराज की स्थापना के हो सकता है ? कदापि नहीं । और जो वंदना का पाठ है उस में भी साफ गुरु महाराज से आज्ञा मांगकर अंदर प्रवेश करना जतलाया है, पक्षपाद की ओट में आकर अर्थ की तर्फ ख्याल न किया जावे तो इस में किसी का क्या दोष है, यह तो केवल परमार्थ को न विचारने वाले का दोष है देखो, वंदना का पाठ यह है ॥ इच्छामि खमासमणो वैदिउं जाव णिज्जाए 66 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) निसीहि आए अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि अहो कायं काय संफास खमणिज्जो भे किलामो इत्यादि" भावार्थ-मैं इच्छा करता हूं. हे क्षमाश्रमण ! वंदना करने को यथाशक्ति और काम का निषेध करके, आज्ञा दीजये मुझे मर्यादा सहित अवग्रह में आनेकी, इस ठिकाने गुरुकी आज्ञा पाकर अवग्रह में निसीहि पढ़ता हुआ प्रवेश करे, पीछे आवर्त हस्त को प्रदक्षिणा रूप फिराता हुआ "अहो कायं काय" इत्यादि पढ़े। जिसका मतलब यह होता है कि-हे सद्गुरो ! आप की-अधः काया-चरण को-मैं अपनी-उत्तम काया-मस्तक-के साथ स्पर्श करता हूं कृपा करके जो कुछ आपको इस में किलामणा (तकलीफ) होवे सो क्षमा करें इत्यादि । तथा पूर्वधारी श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण शब्दांभोनिधिगंधहस्तिमहाभाष्य अपरनाम विशेषावश्यक में गुरुके अभावमें स्थापना स्थापनकरने का प्रगट प्रतिपादन करते हैं तथाहि:"गुरुविरहम्मिय ठवणा गुरुवएसोवदंसणत्थं च । जिणविरहम्मि अ जिणबिंब सेवणामंतणं सहलं ॥१॥ पूर्वोक्त वर्णन से स्थापना आवश्यमेव रखनी सिद्ध है, और फलदायक भी है, तो भी कदाग्रही लोगों की निद्रा न खुले तो क्या किया जावे ? सूर्य के प्रगट होने पर उल्लू को नहीं दीखता है, उल्लू की आंखें बंद होजाती हैं तो सूर्य क्या बनावे ? उल्लूके ही कर्म का दोष है। और देखो, पार्वतीने ही श्रीअनुयोगद्वार मूत्र का पाठ लिख कर स्थापना को साबित किया है यथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __से किं तं ठवणा वस्सयं २ जण्णं कट्ठकम्मेवा (१) चित्तकम्मे वा (२) पोत्थकम्मे वा (३) लिप्पकम्मे वा (४) गंठिमे वा (५)वेढिमे वा (६) पूरिमे वा (७) संघाइमे वा (८) अक्खे वा (९) वराडए वा (१०) एगो वा अणेगो वा सब्भाव ठवणा वा असब्भाव ठवणा वा आवस्स एत्ति ठवणा किज्जइ सेतं ठवणा वस्सयं॥२॥ अस्यार्थः। प्रश्न-स्थापना आवश्यक क्या । उत्तर-काष्ठपै लिखा (१) चित्रों में लिखा (२) पोथीपै लिखा (३) अंगुली से लिखा,(४) गूंथ लिया (५) लपेट लिया (६) पूर लिया (७) ढेरी करली (८) कार बैंच ली (९) कौड़ी रखली (१०) आवश्यक करनेवाले का रूप अर्थात् हाथ जोड़े हुए ध्यान लगाया हुआ ऐसा रूप उक्त भांति लिखा है अथवा अन्यथा प्रकार स्थापन कर लिया कि यह मेरा आवश्यक है सो स्थापना आवश्यक-इसादि" लो इस बात का न्याय थोड़े समय के लिये हम उनको ही समर्पित करते हैं किजैसे आवश्यक करनेवाले का रूप हाथ जोड़े हुए ध्यान लगाया हुआ सद्भाव स्थापना कहाती है, ऐसेही पद्मासनस्थ ध्यानारूढ मौनकृति जिनमुद्रा सूचक प्रतिमा,स्थापनाजिन कही जावे या नहीं? यदि प्रतिमा स्थापनाजिन नहीं तो पूर्णोक्त स्वरूप स्थापना आवश्यक भी नहीं और यदि पूर्वोक्त स्वरूप सद्भाव स्थापना आवश्यक है तो जिनस्वरूप प्रतिमा भी स्थापनाजिन है, इसमें कोई संदेह नहीं है. इसीवास्ते पूर्वर्षि महात्माओं ने फरमाया है कि :नामजिणाजिणनामा,ठवणजिणापुण जिणंदपडिमाओ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) दव्वजिणा जिणजीवा, भावजिणा समवसरणत्था ॥१॥ भावार्थ-श्रीजिनेश्वरदेव का नाम सो नामजिन, श्रीजिनेश्वरदेव की प्रतिमा सो स्थापनाजिन, श्रीजिनेश्वरदेव का जीव सो द्रव्यजिन और समवसरण में स्थित सो भावजिन. जिसका नाम उसी की स्थापना उसी का द्रव्य और उसी का भाव इस तरह चारों निक्षेप का भली प्रकार समवतार होजाता है, मतलब कि अज्ञान के उदय से द्वेष बुद्धि से भावनिक्षेप के विना अन्य निक्षेप को वंदनीय नहीं मानना यह केवल उनका कदाग्रह ही है. पूर्वोक्त लेख से यह तो साबित होगया है कि नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप भी अवश्य ही मानना ही पड़ता है, विना माने किसी तरह भी गुज़ारा नहीं होसकता है, तो भी यदि जमालि की तरह इठ न छोड़ें तो उनकी मरज़ी, परंतु एक मोटी सी बात का ही जवाब देदें, हम देखें तो सही कि बोलना ही जानते हैं कि करने में भी होश्यार हैं। यदि अन्यमती मिथ्यात्वी देव की मूत्ति हावे तो उसको सम्यग्दृष्टि जीव नमस्कार करे या नहीं ? उसको नमस्कार करने से सम्यकत्व में कुछ फरक आता है या नहीं ? उसमें चारों ही निक्षेप माने जावेंगे या नहीं ? इस बात का विचार करके स्वयं ही समझ लेना चाहिये कि जैसे अन्य देव का नाम सम्यग्दृष्टि जीव स्मरण नहीं करता है, और स्वदेव का अर्थात् श्रीजिनेश्वरदेव का नाम स्मरण करता है, तो उसमें जरूर ही भेद समझा जाता है. जिसमें नफा जानता है करता है, नुकसान जानता है नहीं करता है. तो बस जब अन्यदेव की स्थापना को नमस्कार करने से नुकसान है तो स्वदेव की स्थापना को नमस्कार करने से अवश्यमेव फायदा है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) सिद्ध होता है जीव को जैसा लिखना या बोलना आता है यदि वैसाही विचारना आवे तभी इसकी बलिहारी है । अन्य मूर्तियों में निक्षेप का स्थापन और जिनमूर्ति में उसका उत्थापन यह कैसा न्याय है ? यदि मूर्ति में असलियत की तर्फ ख्याल कराने की बिलकुल ही ताकत नहीं है तो पार्वती की और मोहनलाल जी आदि मुखबंधों की मूर्तियां देखकर ढुंढक श्रावक श्राविकायों के दिल में झटपट यह पार्वती जी सती जी हैं, यह पूज्य जी महाराज जी हैं, इत्यादि भावना क्यों आजाती है ?. यह अमुक........है, या यह अमुक........है ऐसी भावना क्यों नहीं आती है ? इसको ज़रा दीर्घ दर्शित्व गुण का अवलंबन लेकर विचारना चाहिये, नकि-"हिरदे खिड़की जड़ी कुबुध की मुखबांधे क्या होय " ? इस मूजिर चुपचाप होना चाहिये । तात्पर्य-सब ठिकाने भावना ही का मूल्य पड़ता है, आगे वह भावना चाहे निमित्त को पाकर अच्छी होवे चाहे बुरी, फल तदनुसार ही होवेगा, श्रीप्रसन्नचन्द्र राजर्षि के चरित्र की तर्फ ख्याल करना चाहिये । तथा कालिक सौरिक जिसने भैसों का आकार बनाकर मारने का पाप पैदा किया, उसकी प्रवृत्ति का विचार करना चाहिये ! मतलब-कि पाप में उपयोग होने से पाप होता है और धर्म में उपयोग होने से धर्म होता है. परिणामे पाप, और परिणामे धर्म, ऐसी सूक्ष्मता के जानने वाले की बलिहारी है । श्रीआचारांग सूत्र में फरमाया है कि “जे आसवा ते परिसवा जे परिसवा ते आसवा" अर्थात् परिणाम के वश से जो आस्रव पाप का कारण है, सो संवर और निर्जरा का कारण होजाता है, और जो संवर निर्जरा का कारण होता है, सो परिणाम के वश से आस्रव पाप का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) कारण होजाता है - जैसे भरत चक्रवर्ती का आरिसे भवन में अपने रूपादि को देखने के लिये जाना आस्रव का कारण था, परंतु मुद्रिका के गिरने से अनित्य भावना में तल्लीन होकर झट केवलज्ञान प्राप्त कर लिया || तथा एलापुत्र किस इरादा से घर से निकला था ? और किस पदवी को प्राप्त हुआ ? इत्यादि अनेक दृष्टांत इसकी बाबत प्रसिद्ध हैं और साधु मुनिराज संवर निर्जरा का कारण उनको तकलीफ देने से या उन पर खोटे अध्यवसाय के आने से उस जीव के परिणाम के वश से आस्रव पापकर्म बांधने में वह निमित्त मिल गया, जैसे भगवान् श्रीमहावीर स्वामी को तकलीफ देनेवाला ग्वालिया अपने ही परिणाम के वश से सातवें नरक में गया. इत्यादि बहुत दृष्टांत प्रसिद्ध हैं, परंतु न्यूनता इसी बात की है कि कथा सुनकर तहत वाणी सत्य वचन कहकर रस्ता पकड़ते हैं, उसके असली परमार्थ की तर्फ ख्याल कोई विरला ही करता है, विचारो - कि किसी प्रकार साक्षात् वस्तु से उसकी स्थापना ( नकल) में नुकसान जानकर ही शास्त्रकारने उससे बचना जरूरी फरमाया है, जिसका पाठ और असली मतलब विचारने योग्य है. और वह पाठ श्रीदशवैकालिकादि सूत्रों में प्रसिद्ध है, तथा नायः सर्व जैनी लोग जानते हैं और बराबर मंजूर करते हैं कि " जिस मकान में स्त्री की मूर्ति होवे उस मकान में साधु - बिलकुल न रहे " इस बात को विचारना योग्य है कि साधु गृहस्थों के घरों में भिक्षा लेने के वास्ते जाते हैं, जहां महादेवी स्त्री मोहिनी रूप धारण किये साक्षात् मौजूद होती है वहां स्त्रियों के हाथ से भोजन पानी लेते हैं, स्वामी जी के दर्शन करने को छनन २ करती स्वामी जी के मकान में आती हैं, व्याख्यान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) में घंटों तक बैठी रहती हैं, काम पड़े स्वामी जी धार्मिक वातीलाप भी करते हैं, इत्यादि बातों में इतना बुरा नहीं समझा जाता है, और जिस मकान में स्त्री की मूर्ति हो उस मकान में रहना साधु के लिये बुरा समझा जाता है सो क्या बात है ? यदि कोई उत्त चित्रलिखित स्त्री से किसी प्रकार की अपनी इच्छा पूरी करनी चाहे, तो कदाचिदपि नहीं हो सकती है, खाना पीना उससे नहीं मिल सकता, बालना चालना उससे नहीं हो सकता है, दिल की खुशी उससे हासल नहीं हो सकती है, कोई वह चित्र लिखित स्त्री साधु के गले चिपट नहीं जाती है, फिर क्या हेतु है जो शास्त्रकार निषेध करते हैं ? केवल चित्त की एकाग्रता के लगने से मन में बुरा ख्याल पैदा होने के भय के और कोई भी मतलब सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि यद्यपि साक्षात् स्त्री का सन्मुख होना पूर्वोक्त कार्यों में होता है, परंतु वहां चित्त की एकाग्रता करने का अवसर साधु को मुश्किल से मिल सकता है, और मकान में जो तसवीर होवेगी उसको बारबार देखने से चित्त एकाग्र तल्लीन होजावेगा, जिससे मन में बिगाड़ होने का पूरा पूरा भय है, इसीलिये साधु के वास्ते शास्त्रकारों ने निषेध किया है. "विना प्रयोजनं मंदोपि न प्रवर्तते " विना किसी मतलब के मूर्ख भी कोई काम नहीं करता है तो क्या शास्त्रकारों की आज्ञा विना मतलब कभी हो सकती है ? नहीं, कदापि नहीं, बस इसीतरह श्रीजिनेश्वरदेव की प्रतिमा मूर्ति (तमवीर ) भी मन की एकाग्रता करने के वास्ते एक बड़ा भारी अवलंबन है, और इसीलिये किसी प्रकार श्रीजिनप्रतिमा का दर्जा साक्षात् श्रीतीर्थकर भगवान् से बढ़कर शास्त्रों में फरमाया मालूम देता है। जैसाक साक्षात् श्रीतीर्थकर भगवान् की वंदना करने के समय “देवयं चइयं" पाठ आता है, जिसका तात्पर्य यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि जैसे श्रीजनप्रतिमा की सेवा भक्ति करता हूं, उसी रीति अंतरंग प्रीति से आपकी सेवा करता हूं. तथा साक्षात् तीर्थंकर भगवान को नमस्कार करने के समय “सिद्धि गइ नाम धेयं ठाणं संपावित्रं कामस्म" अर्थात्-सिद्धिगति नामा स्थान को प्राप्त होने की चाहना वाले-ऐसा पाठ पढ़ा जाता है, और श्रीजिनप्रीतमा के आगे “सिद्धिगइ नाम धेयं ठाणं संपत्ताणं" अर्थात्-सिद्धिगति नामा स्थान को प्राप्त होचुके हैं, ऐमा पाठ पढ़ा जाता है, और यह बात श्रीरायपसेणी सूत्रादि जैनमूत्रों में प्रायः प्रतिस्थान आती है, तो भी उनकी बुद्धि इसके मानने मे शरमाती है तो फिर इसमें कोई क्या करे ? तथापे इतना तो जरूर ही कहते हैं कि निक्षेपों की बाबत सत्यार्थचन्द्रोदय नामा थोथी पोथी में जितने मनःकल्पित कुतर्क किये हैं, वह सर्व इन पूर्वोक्त बातों से निरर्थक होगये हैं और इसीवास्त हमने भी निक्षेपों के विषय में इतना विस्तार सहित लिखा है, क्योंकि पार्वती का असली अभिप्राय स्थापना को उड़ा कर श्रीजिनप्रतिमा के निषेध करने के सिवाय और कुछ भी नहीं है. इसलिये पार्वती के किये श्रीजिनप्रतिमा के निषेध को स्थापनासिद्ध द्वारा हमने खंडन कर दिया है, और इसके खंडन से पार्वती का सारा ही परिश्रम निष्फल होचुका। इसवास्ते अब अधिक लिखने की कोई जरूरत नहीं है, तो भी कितनीक जरूरी बातें कि जिनमें पार्वती की बिलकुल बेसमझी पाई जाती है उनका कुछ विवेचन करते हैं. बाकी " मूलं नास्ति कुतः शाखा" मूल नहीं है तो शाखा कहां से होवे इसके अनुसार जो जो लेख जैनशास्त्रों के या और किसी के आधार विना अंधपंगून्यायवत् कुछ का कुछ घसीट मारा है उन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की बाबत हम अपने अमूल्य समय को वृथा व्यय करना ठीक नहीं समझते हैं जैसे कि बीस पृष्ठ पर्यंत निक्षेप संबंधी जो जो कल्पना की है, शास्त्रानुसार बिलकुल ही नहीं हैं ? यदि जैनशैली के अनुमार हैं तो जैसे हमने पूर्वपि प्रणीत संस्कृत पाकृत पाठ दिखाये हैं, पार्वती को भी तदत् अपने किये अर्थ की मत्यता के लिये पूर्षि महात्माओं के किये अर्थ संस्कृत माकृत में दिखाने चाहिये, अन्यथा पार्वती के मनोपोटत अर्थ का मर्दन तो कर ही दिया है। तटस्थ-पृष्ठ २१ पर पार्वती ने लिखा है कि, “ आत्माराम तो विचारा संस्कृत पढ़ा हुआ था ही नहीं, क्योंकि संवत् १९३७ में हमारा चतुर्मास लाहौर में था वहां डाकुरदास भावड़ा गुजरांवालनगर वाले ने आत्माराम और दयानन्द सरस्वती के पत्रिका द्वारा प्रश्नोत्तर होते थे उनमें से कई पत्रिका हमको भी दिखाई थीं देखो आत्माराम जी कैसे प्रश्नोत्तर करते हैं तो उन में एक चिट्ठी दयानन्द वाली में लिखा हुआ था कि आत्माराम जी को भाषा भी लिखना नहीं आती है जो मूर्ख को मूर्ष लिखता है " इत्यादि। अरी क्या तुझ पंडितानी को ऐती बात लिखती हुई शरम भी • नहीं आती है ? जो एक तुच्छ होकर ऐसे बड़े महात्मा के विषय में कल्पित शब्द वर्णन करती है, और अपने आपको " हमाराहमको" इत्यादि बड़ाइके शब्दों में लिखती है, ला दिखला, मूर्खको मूर्ष कहां लिखा है ? या यूंही गप्पाष्टक ही चलाना जानती है ? ले देख, तुही पंडितानी बनकर अपनी ज्ञानदीपिका के पृष्ठ ३१ पंक्ति १३ तथा १६ पर "अभिलाषी" को " अभिलाखी " लिखती है, क्यों ? संतोष हुआ कि नहीं? ले और भी अपनी अशुद्धि देख, पृष्ठ ९१ पंक्ति १६ पर "परिग्रह" को "प्रग्रह" लिखती है, बस एतावन्मात्रेस ही विद्वान पुरुषों की सभा में तेरी अयोग्यता विदित होगई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्वती-अनी वाह ! “परोपदेशे कुशला दृश्यते बहवो नराः" इस प्रकार आप मुझे तो कहते हैं कुत्सित शब्दों में लिखती है परन्तु फरमाइये अब आप क्या करते हैं ? विवेचक-अरे भोली ! जानती है ! फिर भी पूछती है! हम पुरुष हैं और वें स्त्री है, पुरुष को धर्मप्रधान कहा है. परन्तु स्त्री को नहीं, ले ही बता ? यदि कोई पुरुष आजकल मुंह को पाटी बांध कर तेरे पंथ में आमिले, तो उसको तूं वंदना करेगी या वह पुरुष तुझको वंदना करेगा ? बलात्कार से तुझको ही वंदना करनी पड़े। बम साबित होगया पुरुष धर्मप्रधान है, इसलिये हम तुझे एक वचन लिखने का अधिकार बराबर रखते हैं, यद्यपि तुच्छ शब्दों में लिखना इम चित नहीं समझते हैं और इसीवाने तेरे नाम को बढ़ाकर लिखते रहे हैं तथापि यहां प्रसंगवश से तुझको हितशिक्षा के निमित्त ऐसे लिखना पड़ा है, परन्तु तू हमको या किसी और महात्मा को एक वचन में लिखने का अधिकार कदापि नहीं रखती है, परंतु यह तेरे वश नहीं है, पात्र का ही प्रभाव है, नीतिशास्त्र का वचन है:यतः-पीत्वा कर्दमपानीयं, भेको बटबटायते। . दिव्यमानरसं पीत्वा, गर्व नायाति कोकिलः। १ तथा-अंगुष्ठोदकमात्रेण, शफरी फरफरायते । अगाधजलसंचारी, गर्व मायाति रोहितः १ अच्छा, तू जान, तेरी मरज़ी में आवे सो कर, हमको क्या तेरा किया तूंने ही भोगना है । "पपा पाप न कीजिये, न्यारे रहिये आप । जो करसी सों भोगती, क्या बेटा क्या बाप॥" तो भी जैसे महात्मा आत्मारामजी प्रायःजगजाहिर होगये है, तेरी शक्ति नहीं, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी पंडिताई की धूम विलायतों तक होचुकीहै-ए०एफ०रुडाल्फ हानल साहिब उपासकदशा के उपोदरात में लिखते हैं कि : In a third Appendix (No III) I have put together some additional information, that I have been able to gather since publishing the several fasciculi. For some of this information, I am indebted to Muni Maharaj Atmaram ji Anand Vijay ji, the well-known and highly respected Sadhu of the Jain community throughout India, and author of (among others) two very useful works in Hindi, the Jaina. Tattvadarsha mentioned in note 276 and the Ajnana Timira Bhaskara. I was placed in communication with him through the kindness of Mr. Magganlal Delpatram. My only regret is that I had not the advantage of his invaluable assistance from the very beginning of my work. कई प्रकार की सूचनायें जो मैं चंद हिस्सों के छपने के समय से जमा कर सका हूं, तीसरी अपिंडिक्स (परिशिष्ट) में मैंने दर्ज की हैं, इनमें से कितनीक सूचनाओं के लिये मैं मुनि महाराज आत्मारामजी आनंदविजयजी का आभारी हूं, जो हिंदुस्थान भर में जैनसमुदाय के विख्यात और परम पूजनीय साधु हैं और अन्य पुस्तकों के अतिरिक्त हिंदुस्तानी भाषा की दो बहुत उपयोगी पुस्तकों जैनतत्वादर्श जिसका नोट २७६ में ज़िकर है और अज्ञानतिमिर भास्कर-के कर्ता हैं,मेरा इनका पत्रव्यवहार मि०मगनलाल दलपतराम की कृपा से हुआ था, मुझे अफसोस केवल इतना ही है कि मैं उनकी अमूल्य सहायता का लाभ अपनी रचना के प्रारंभ में ही नहीं उठा सका। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा पूर्वोक्त साहिब बहादुर ने संस्कृत में भी तारीफ लिखी है-तथाहिदुराग्रहध्वांतविभेदभानो, हितोपदेशामृतसिंधुचित्त । संदेहसंदोहनिरासकारिन्,जिनोक्तधर्मस्यधुरंधरोसि॥? अज्ञानतिमिरभास्कर-मज्ञाननिवृत्तये सहृदयानाम् । आहेततत्वादर्श ग्रथमपरमपि भवानकृत ॥२॥ आनंदविजय श्रीमन्नात्माराम महामुने । मदीय निखिल प्रश्न व्याख्यातः शास्त्रपारग॥३ कृतज्ञताचिन्हमिदं ग्रंथसंस्करणं कृतिन् । यत्नसंपादित तुभ्यं श्रद्धयोत्सृज्यते मया ॥ ४ ॥ कोलकातायाम् २२ आपल सन् १८९० । तरजुमा-( १) हे दुराग्रह रूप अंधेरे को दूर करने में सूरज समान ! हे हितोपदेश रूप अमृतके समुन्दर में चित्त स्थापन करने वाले! हे सन्देह के समुहों को दूर करने वाले ! आप जिनोक्त अष्टादश दूषण रहित सर्वज्ञप्रणीत धर्म के धुरंधर हैं (२) आपने सज्जन पुरुषों के अज्ञान की निति निमित्त अज्ञानतिमिरभास्कर और आर्हततत्वादर्श (जैनतत्वादर्श ) ग्रन्थ बनाये हैं (३) हे आनन्दविजय : हे श्रीमान् ! हे आत्माराम ! हे महामुने ! हे मेरे सम्पूर्ण प्रश्नोंके उत्तर देनेवाले ! हे शास्त्रों के पारगामी! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) ( ४ ) हे पुण्यात्मन् ! आपने मेरे ऊपर जो उपकार किया है उसके बदले में कृतज्ञता के चिन्ह रूप यत्र से प्राप्त किये इस पुस्तक को श्रद्धापूर्वक मैं आपको अर्पण करता हूं-कलकत्ता २२ अप्रेल १८९० तथा-दी वर्लडस पार्लिमेंट आफ रिलिजन्स ) इस नाम के शहर लंडन में छपे पुस्तक के २१ वें सफे पर श्रीमुनि आत्मारामजी महाराज का फोटो दिया है, और उसके नीचे ऐसे लिखा है : No man has so peculiarly indentified himself with the interests of the Jain community as Muni Atmaram ji. He is one of the noble band sworn from the day of initiation to the end of life to work day and night for the high mission they have undertaken. He is the high priest of the Jain community and is recognized as the highest living authority on Jain Religion and literature by Oriental Scholars. ____ अर्थ-जैसी खूबी से मुनि आत्मारामजी ने अपने आप को जैनधर्म के हित में अनुरक्त किया है ऐसे किसी ने नहीं किया, संयमग्रहण करने के दिन से जीवन पर्यंत जिन प्रशस्त महाशयों ने स्वीकृत श्रेष्ठ धर्म में अहोरात्र सहोद्योग रहने का नियम किया है उनमें से आप एक हैं, जैनतमाज के आप परमाचार्य हैं, और प्राच्य विद्वानों ने इनको जैनधर्म तथा जैन साहित्य में सर्वोत्तम ज़िन्दा प्रमाण माना है। तथा-रायल एशियाटिक सुसाईटी के चुनंदा अंग्रेज विद्वान् ऐ० एफ० रुडाल्फ हार्नल साहिब महात्मा श्रीमद्विजयानंद सूरीश्वरजी ( आत्मारामजी ) महाराजजी की बाबत लिखते हैंShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) CAI.CCTTA, 14th September, 1888. MY DEAR SIR, I am very much obliged to you for your kind letter of the 4th instant ; also to Muni Atmaramji for his very full replies. Please convey to the latter the expression of my thanks for the great trouble he has taken to reply so promptly and so fully to my questions. His answers are very satisfactory ; and I shall refer t) them in my forthcomingand express publicly my obligations to the Muni for his kindness. भावार्थ-मैं आपके चार तारीख के कृपापत्र का तथा मुनि आत्मारामजी के संपूर्ण उत्तरों का बहुत अहसानमंद हूं, मुनि जी ने मेरे प्रश्नों के उत्तर इतनी जल्दी और विस्तार पूर्वक देने में जो परिश्रम उठाया है उसका धन्यवाद कृपया उनसे निवेदन करें, उनके उत्तर अतीव संतोषकारक हैं, और मुनि जी की बाबत मैं अग्रिम........में निवेदन करूंगा और उनकी कृपा का धन्यवाद सर्व साधारण में प्रगट करूंगा। इत्यादि अंग्रेज विद्वानों का जिनकी बाबत ऐसा उत्तम अभिप्राय है, जिनके किये जैनतत्त्वादर्शादि ग्रंथ उनकी विद्वत्ता ज़ाहिर कर रहे हैं, जिनके बनाये ग्रंथों की बाबत बडे बडे पंडित लोक अपना उच्चमत ज़ाहिर करते हैं, तो क्या तेरे लिखने से उनकी पांडित्यता में कुछ न्यूनता हो सकती है ? कदापि नहीं । ले देख, महात्मा योगजीवानंद स्वामी अपने हस्त लिखित पत्र में ऐसे लिखतेहैं। स्वस्ति श्रीमजैनेंद्रचरणकमलमधुपायितमनस्क श्री ल श्रीयुक्त परिव्राजकाचार्य परम धर्मप्रतिपालक श्रीआत्माराम जी तपगच्छीय श्रीमन्मुनिराज बुद्धिविजयशिष्य श्रीमुखजी को परिव्राजक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) योगजीवानंदस्वामी परमहंसका प्रदक्षिण त्रय पूर्वक क्षमा प्रार्थनमेतत् । भगवन् व्याकरणादि नाना शास्त्रों के अध्ययनाध्यापन द्वारा वेदमत गले में बांध मैं अनेक राजा प्रजा के सभा विजय करे देखा व्यर्थ मगज मारना है । इतना ही फल साधनांश होता है कि राजे लोग जानते समझते हैं फलाना पुरुष बड़ा भारी विद्वान् है परंतु आत्मा को क्या लाभ होसकता देखा तो कुछ भी नहीं । आज प्रसंगवस रेलगाडी से उतर के बठिंडा राधाकृश्नमंदिर में बहुत दूर से आनके डेरा किया था सो एक जैन शिष्य के हाथ दो पुस्तक देखे तो जो लोग ( दो चार अच्छे विद्वान् जो मुझ से मिलने आये ) थे कहने लगे कि ये नास्तिक (जैन) ग्रंथ हैं इसे नहीं देखना चाहिये अंत उनका मूर्खपणा उनके गले उतार के निरपेक्षबुद्धि के द्वारा विचार पूर्वक जो देखा तो वो लेख इतना सत्य व निष्पक्षपाती दीख पड़ा कि मानो एक जगत् छोड के दूसरे जगत् में आन खडा हो गया ॥ ओ आबाल्यकाल आज ७० वर्ष से जो कुछ अध्ययन काल व वैदिकधर्म बांधे फिरा सो व्यर्थसा मालूम होने लगा जैनतत्त्वादर्श व अज्ञानतिमिरभास्कर इन दोनों ग्रंथों को तमाम रात्रिं दिव मनन करता बैठा व ग्रंथकार की प्रशंसा वखानता बठिंडे में बैठा हूं इत्यादि" । जिन महात्मा की बाबत बड़े बड़े विद्वानों का ऐसा ख्याल है उनकी बाबत तेरा कहना तो ऐसा है जैसा कि चांद के ऊपर थूकना है ! सत्य है विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जनपीरश्रमम् । न हि बंध्या विजानाति गुर्वी प्रसववेदनाम् ||१|| भावार्थ - विद्वान पुरुष के परिश्रम को विद्वान् हीं जानता है मूर्ख नहीं, जैसेकि पुत्रजन्म का दुःख वांझ नहीं जानती है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ अफसोस है | तेरी समझ पर जोकि बलाबलका विचार करे विना अपनी ही हांसी कराने के वास्ते अनुचित बात लिख मारी है । जब साधारण प्रसिद्ध बातके विषय में इतना बडा भारी झूठा गोला गढ़ती है तो और शास्त्रों के अर्थों की निम्बत व्यर्थ बकवास करे तो इस में क्या आश्चर्य है ? तूं ने तो पंजाब की "जातकी कोड़ किरली शहतीर को जष्फी " इस कहावत वाली बात कर दिखाई मालूम देती है ॥ स्वामी श्रीदयानंद सरस्वतीजीने अपनें बनाये सत्यार्थ प्रकाश में चार्वाक मत के श्लोक लिखकर जैनमत के नाम से प्रसिद्ध करके जैनमत को धब्बा लगाने की जो चेष्टा की थी उसको दूर करने का . उद्यम महात्मा श्रीमान् आत्माराम जी महाराज ने किया था और द्वितीय बारके छपे सत्यार्थप्रकाश में फिर वह प्रकरण बराबर बदला गया मालूम होता है, इस अपूर्व गुण को तो तैंने मंजूर न किया, उलटा ॥ "" त्यक्त्वा भक्ष्यभृतं भांडं विष्टां भुंक्ते यथा किरः जैसे सुअर खाने के लायक अच्छी अच्छी चीजों से भरे बरतन को छोड़ कर गंदगी को खाता है ऐसे अवगुण ही ग्रहण किया मालूम होता है, और जो स्वामी दयानंदसरस्वति जी के नाम की ओट तैंने ली है सो भी अपने आपको चोट से बचाने के लिये ली है, नहीं तो तेरे पास क्या प्रमाण है कि स्वामी दयानंद सरस्वती जी का लिखा जो तैनें ज़ाहिर किया है वह ठीक २ है ! और स्वामी श्री आत्मारामजी महाराज ने वैसे ही लिखा था जैसा तैंने स्वामी श्रीदयानंद सरस्वतीजी के नाम की आड़ लेकर राड़ मारी है ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 99 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) विवेचक - मला जी, स्वामी श्री दयानंदसरस्वती जी ने ही जान बूझकर और का और शब्द लिख दिया होवे तो इसमें भी क्या आश्चर्य है ? जैसाकि सन् १८८४ के छपे ससार्थप्रकाश के ४४७ पृष्ठोपरि "भुक्ते न केवलं न स्त्री मोक्षमेति दिगंबरः । प्राहुरेषामयं भेदो महान् श्वेतांबरैः सह ||२|| " इस श्लोक के भाषार्थ में लिखा है कि “ दिगंबरों का श्वेतांबरों के साथ इतना ही भेद है कि दिगंबर लोग स्त्री का संसर्ग नहीं करते और श्वेतांबर करते हैं इत्यादि बातों से मोक्ष को प्राप्त होते हैं यह इनके साधुओं का भेद हैं । अब सोचना चाहिये कि या तो स्वामी जी दयानंद जी साहिब ने इस बात का परमार्थ ही नहीं जाना होवेगा ( वास्तविक में है तो ऐसे ही ) अथवा जान बूझ के ही गोला गरड़ा दिया होवेगा । क्योंकि स्वामी जी के लेख से ही सिद्ध होता है कि जैनियों के खंडन के वास्ते खोटा पक्ष मंजूर करना बुरा नहीं है, देखो सन् १८८४ के छपे सत्यार्थप्रकाश के २८७ पृष्ठोपरि “ अब इसमें विचारना चाहिये कि जो जीव ब्रह्म की एकता जगत् मिथ्या शंकराचार्य का निज मत था तो वह अच्छा मत नहीं और जो जैनियों के खंडन के लिये उस मत का स्वीकार किया हो तो कुछ अच्छा है " क्या अब कोई कमर रही कि स्वामी जी ने जान बूझकर अदल बदल नहीं किया है ? बेशक बराबर किया है, और जैनियों की बाबत स्वामी जी के दिल में कितना ज़हर भरा पड़ा था सो स्वामी जी के पूर्वोक्त लेख से ही ज़ाहिर होरहा है || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) तथा अखबार जीवनतत्व ( देवसमाज लाहौर ) १० सितं बर सन् १९०५ में लिखा है कि : सवाल - बेशक मालूम होता है कि आर्यसमाज के स्वामी दयानंद स्वामी भी इसी किसम के मतप्रचारक थे ? जवाब- इसमें क्या शक है - वेदों के ईश्वरचित बनाने के बारे में उनको कुल मनघड़ गये और उनके मंत्रों के अर्थों का उलटफेर साफ तौर से ज़ाहिर करता है कि स्वामी साहिब मोसूफ भी ऐसे ही " महर्षि " थे कि जिनके ख्याल में किसी मज़हब के फैलाने के लिये झूठ और रियाकारी का हस्वमौका इस्तेमाल न सिर्फ दुरुस्त और मुनासिब है वल्कि बहुत काबले तारीफ भी हैमतलब देखिये यही दयानंद साहिब शंकराचार्य के वेदांत मत का खंडन और जैनियों के साथ उनके शास्त्रार्थ का बयान करके अपनी किताब सत्यार्थप्रकाश तबै दोयम के २८७ सफा पर क्या कुछ तहरीर फर्माते हैं : 66 अब इसमें विचारना चाहिये कि अगर जीव और ब्रह्म की एकता और जगत् का झूठ मूठ होना शंकराचार्य जी का सचमुच अपना अकीदा था तो वह अच्छा अकीदा नहीं है और अगर जैनियों के खंडन के लिये उन्होंने उस अकीदा को इखतीयार किया है तो कुछ अच्छा है" ॥ अब देखिये यहां पर स्वामी दयानंद साहिब अपने आपको अपने असल रंग रूप में ज़ाहिर करते हैं यानी वह कहते हैं कि अगर शंकराचार्य जी का जो उनके कौल के बमूजिव वैदिक मज़sa के कायम करने वाले थे-जीव ब्रह्म की एकता और जगत का मिथ्या यानी झूठ मूट होना सिदक़ दिल से अपना यकीन या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) अकीदा हो तब तो वह अच्छा नहीं लेकिन अगर उनोंने झूठ मूट और मकारी के साथ उसे इमलिये मान रक्खा था कि उसके जरिये जैनियों को जो वेदों को नहीं मानते खंडन किया जाय " तो कुछ अच्छा है " यानि वेदों के नाम से अगर किसी मत के प्रचार करने में झूठ और नकारी से काम लिया जावे तो ऐसा करना बुरा नहीं है___अब यह ज़ाहिर है कि ऐसा शखस जो वेदों के नाम से जरूरत समझने पर सब किसम की फरजी कहानियां और वेदमंत्रों के झूठ मायने तय्यार करेगा उसमें किसी को क्या शक होसक्ता है ? यही बायम है कि उनके वेदभाष्य को आर्यसमाजियों के सिवाय कोई संस्कृत पंडित चाहे वह इस मुलक का हो और चाहे किसी और मुलक का ठीक नहीं मानता" बस इसी प्रकार यदि स्वामी जी ने “ मूर्ख " को बदल के "मूर्व" घसीट डाला होवे तो इस बात का पार्वती के पास क्या प्रमाण है ! जो वह अपने साथ स्वामी जी का भी नाम बदनाम करना चाहती है। और एक यह भी बात विचारने के योग्य है कि स्वामी दयानंदजी साहिब ने जैनियों के भेद की बाबत जो कुछ अर्थ किया है वह असस है, इतना ही नहीं, किंतु जो श्लोक लिखा है वह भी अशुद्ध है ! क्योंकि शुद्ध श्लोक यह है : "भुक्ते न केवली न स्त्री, मोक्षमेति दिगंबराः। प्राहुरेषामयं भेदो, महान् श्वेतांबरेः सह" ॥ स्वामी दयानंद साहिब ने “ केवली" के स्थान में "केवलं" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) लिख दिया है और “ दिगंबराः " बहुवचन के स्थान में “दिगंबरः" एक बचन लिख दिया है, तो क्या पार्वती के निश्चय के अनुसार स्वामी दयानंदजी साहिब को लिंग का या वचन का ज्ञान नहीं था ? क्या वह संस्कृत या भाषा को नहीं जानते थे? नहीं बराबर जानते थे. फिर क्या कारण है जो ऐसी भूल खाई ? इसवास्ते स्वामी दयानंद साहिब का नाम लेकर जो अपने आपको बचाना चाहा है सो पार्वती की बड़ी भारी भूल है, और यदि पार्वती का यह ख्याल है कि स्वामीदयानंद साहिब ने लिखा है इसवास्ते ठीक है विश्वास के योग्य है, तो प्रथम तो पार्वती के पास स्वामी जी का लेख प्रमाण के योग्य कोई नहीं है केवल ठाकुरदास भावड़ा गुजरांवाला निवासी के पास पत्र देखा था लिखकर किनारे होगई है, परंतु लो देखो, हम आपको स्वामी श्रीदयानंद सरस्वती जी के ही लेख दिखाते हैं यदि पार्वती को स्वामी जी के लिखने पर निश्चय है तो इन बातों को सस मानकर इन पर अमल कर लेवे। अन्यथा पार्वती के निश्चय में फरक पड़ जावेगा, और यदि स्वामी जी के लेख का पार्वती को निश्चय नहीं है तो फिर स्वामी दयानंद जी साहिब का नाम लेकर दूसरों की बाबत अबे तबे क्यों लिखती है ? देखो, स्वामी दयानंदजी सन् १८७५ के छपे ससार्थप्रकाश के ४०१ पृष्ठोपरि लिखते हैं कि-"जे दुढिये होते हैं उनके केश में जूआं पड़ जाय तोभी नहीं निकालते और हजामत नहीं बनवाते किंतु उनका साधु जब आता है तब जैनी लोग उसकी दादी मौंछ और सिर के बाल सब नोच लेते हैं जो उस बक्त वह शरीर कंपाये अश्या नेत्र से जल गिरावे तब सब कहते हैं कि यह साधु नहीं भया है"॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) तथा सन् १८८४ के छपे सत्यार्थप्रकाश के ४४७, ४८, ४९ पृष्ठ में लिखते हैं : " श्वेतांबरों में से ढूंढिया और ढूंढियों में से तेरहपंथी आदि ढोंगी निकले हैं। ढूंढिये लोग पाषाणादि मूर्ति को नहीं मानते और वे भोजन स्नान को छोड़ सर्वदा मुख पर पट्टी बांधे रहते हैं और जति आदि भी जब पुस्तक बांचते हैं तभी मुख पर पट्टी बांधते हैं अन्य समय नहीं। ( प्रश्न) मुख पर पट्टी अवश्य बांधना चाहिये क्योंकि "वायुकाय " अर्थात् जो वायु में सूक्ष्म शरीर वाले जीव रहते हैं वे मुख के बाफ की उष्णता से मरते हैं और उसका पाप मुख पर पट्टी न बांधने वाले पर होता है इसीलिये हम लोग मुख पर पट्टी बांधना अच्छा समझते हैं । (उत्तर) यह बात विद्या और प्रयक्षादि प्रमाणादि की रीति से अयुक्त है क्योंकि जीव अजर अमर है फिर वे मुख की बाफ से कभी नहीं मर सक्ते इनको तुम भी अजर अमर मानते हो । (प्रश्न) जीव तो नहीं मरता परंतु जो मुख के उष्ण वायु से उनको पीड़ा पहुंचती है. उस पीड़ा पहुंचाने वाले को पाप होता है इसीलिये मुख पर पट्टी बांधना अच्छा है। (उत्तर) यह भी तुम्हारी बात सर्वथा असंभव है क्योंकि पीड़ा दिये विना किसी जीव का किंचित् भी निर्वाह नहीं होसकता जब मुख के वायु से तुम्हारे मत में जीवों को पीड़ा पहुंचती है तो चलने फिरने, बैठने, हाथ उठाने और नेत्रादि के चलाने में भी पीड़ा अवश्य पहुंचती होगी इसलिये तुम भी जीवों को पीड़ा पहुंचाने से पृथक् नहीं रह सलते । (प्रश्न) हां जबतक बन सके वहां तक जीवों की रक्षा करनी चाहिये और जहां हम नहीं बचा सकते वहां अशक्त हैं क्योंकि सब वायु आदि पदार्थों में जीव भरे हुए हैं जो हम मुख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) पर कपड़ा न बांधे तो बहुत जीव मरें कपड़ा बांधने से न्यून मरते हैं। ( उत्तर ) यह भी तुम्हारा कथन युक्तिशून्य है क्योंकि कपड़ा बांधने से जीवों को अधिक दुःख पहुंचता है जब कोई मुख पर कपड़ा बांधे तो उसका मुख का वायु रुक के नीचे वा पार्श्व और मौनसमय में नासिका द्वारा इकट्ठा होकर वेग से निकलता है उससे उष्णता अधिक होकर जीवों को विशेष पीड़ा तुम्हारे मतानुसार पहुंचती होगी । देखो जैसे घर वा कोठरी के सब दरवाजे बंद किये वा पड़दे डाले जायें तो उष्णता विशेष होती है खुला रखने से उतनी नहीं होती वैसे मुख पर कपड़ा बांधने से उष्णता अधिक होती है और खुला रखन से न्यून वैसे तुम अपने मतानुसार जीवों को अधिक दुःखदायक हो और जब मुख बंद किया जाता है तब नासिका के छिद्रों से वायु रुक इकट्ठा होकर वेग से निकलता हुआ जीवों को अधिक धक्का और पीड़ा करता होगा । देखो ! जैसे कोई मनुष्य अग्नि को मुख से फूकला और कोई नली से तो मुख का वायु फैलने से कम बल और नली का वायु इकट्ठा होने से अधिक बल अग्नि में लगता है वैसे ही मुख पर पट्टी बांधकर वायु को रोकने से नासिका द्वारा अति वेग से निकलकर जीवों को अधिक दुःख देता है इससे मुखपट्टी बांधने वालों से नहीं बांधने वाले धर्मात्मा हैं। और मुख पर पट्टी बांधने से अक्षरों का यथा. योग्य स्थान प्रयत्न के साथ उच्चारण भी नहीं होता निरनुनासिक अक्षरों को सानुनासिक बोलने से तुमको दोष लगता है तथा मुख पट्टी बांधने से दुर्गंध भी अधिक बढ़ता है क्योंकि शरीर के भीतर दुर्गध भरा है । शरीर से जितना वायु निकलता है वह दुर्गंधयुक्त मसक्ष है जो वह रोका जाय तो दुर्गध भी अधिक बढ़ जाय जैसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) • t s कि बंध " जाजरू " अधिक दुर्गंधयुक्त और खुला हुआ न्यून दुर्गंधयुक्त होता है वैसे ही मुखपट्टी बांधने, दंतधावन, मुखप्रक्षालन, और स्नान न करने तथा वस्त्र न धोने से तुम्हारे शरीरों से अधिक दुर्गंध उत्पन्न होकर संसार में बहुत रोग करके जीवों को जितनी पीड़ा पहुंचाते हैं उतना ही पाप तुमको अधिक होता है जैसे मेले आदि में अधिक दुर्गंध होने से "विसूचिका " अर्थात् हैजा आदि बहुत प्रकार के रोग उत्पन्न होकर जीवों को दुःखदायक होते हैं और न्यून दुर्गंध होने से रोग भी न्यून होकर जीवों को बहुत दुःख नहीं पहुंचता इससे तुम अधिक दुर्गंध बढ़ाने में अधिक अपराधी और जो मुखपट्टी नहीं बांधते, दंतधावन, मुखप्रक्षालन, स्नान करके स्थान वस्त्रों को शुद्ध रखते हैं वे तुमसे बहुत अच्छे हैं । जैसे अत्यजों की दुर्गंध के सहवास से पृथक रहने वाले बहुत अच्छे हैं। जैसे अत्यजों की दुर्गंध के सहवास से निर्मल बुद्धि नहीं होती वैसे तुम और तुम्हारे संगियों की भी बुद्धि नहीं बढ़ती, जैसे रोग की अधिकता और बुद्धि के स्वल्प होने से धर्मानुष्ठान की बाधा होती है वैसे ही दुर्गंधयुक्त तुम्हारा और तुम्हारे संगियों का भी वर्तमान होता होगा " ॥ इत्यादि : इसलिये अब स्वामी श्री दयानंद सरस्वतीजी का लिखना पार्वती मान लेवे अन्यथा कान पकड़ लेवे कि आगे को ऐसा काम न करूंगी ! भूल गई ! आप क्षमा करें ! तत्य-पूर्वोक्त विषय में तो केवल पार्वती जी ने अपनी अज्ञानता ही प्रकट की है अन्य कुछ भी नहीं, क्योंकि पार्वती जी ने स्वामी जी के नाम से पूर्वोक्त वर्णन किया है तो क्या स्वामी जी मूर्ख शब्द को संस्कृत नहीं जानते थे भाषा जानते थे ? जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्वती के लेखानुसार स्वामी जी ने झटपट लिख दिया कि भाषा भी लिखनी नहीं आती है ? यदि लिख भी दिया होवे तो इस से तो यह सिद्ध होता है कि स्वामीजी को ही पूर्वोक्त बात का ज्ञान नहीं था ? जो उन्होंने ऐसा लिख दिया कि भाषा भी लिखनी नहीं आती है-मूर्ख के स्थान में मूर्ष लिख दिया है ! क्या स्वामी जी मूर्ख शब्द को भाषा और मूर्ष को संस्कृत मानते थे, यदि ऐसे होवे तब तो स्वामी जी के ज्ञान का कुछ मान ही नहीं रहेगा ! जब कि स्वामी जी स्वतः भूल खागये तो और की भूल किस प्रकार बता सकते हैं ? अस्तु, क्या पार्वती जी स्वामी जी की बराबरी कर सकती है ? नहीं, कदापि नहीं, परंतु स्वामी जी के नाम की सहायता लेकर महात्मा श्री महाराज आत्मारामजी की अवज्ञा करने को तत्पर हुई है जिसका तात्कालिक फल यहां ही यह मिल गया है कि जिस से अपनी अज्ञानता और अयोग्यता विद्वज्जनसमूह में प्रकट कर बैठी, यदि पार्वती की पोथी देखी जावे तो आश्चर्य नहीं कि जितने पृष्ठ हैं उतने ही अशुद्धियों से भरे होवें ॥ यद्यपि पार्वती की अशुद्धियें निकालनी हमको उचित नहीं हैं, क्योंकि वह अबला है ? तथापि परीक्षक पुरुषों को ख्याल कराने वास्ते नमूनामात्र केवल दो पृष्ठ की कुछ अशुद्धियें लिखते हैं जिससे पार्वती जी की विद्वत्ता की परीक्षा होजावेगी। पृष्ट अशुद्धम् शुद्धम् मिथ्यात्व मिथ्यात्व बस्त्र मुखबस्त्रिका मुखवास्त्रिका सर्वदा वस्त्र सर्वदा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) अशुद्धम् शुद्धम् । कठकम्मेवा कठकम्म वा पोथकम्मे वा पोत्यकम्मे वा लेपकम्मे वा लिप्पकम्मे वा .. गंठिम्मे वा गोठमे वा वेढिम्मे वा वेढिमे वा पुरीम्मेवा पूरिमे वा सघाइमेवा संघाइमे वा अरके वा अक्खेवा सज्झाव सम्भाव असज्झाव असम्भाव आवस्सएति आवस्सएत्ति कज्जइ बस आप इसी से अनुमान करलें कि सारी किताब में कितनी अशुद्धियें होंगी ॥ विवेचक-सच बात तो यह है कि-जबसे श्रीमन्महामुनिराज श्रीमद्विजयानंद सूरि ( आत्मारामजी ) महाराज जी साहिब का बनाया “ सम्यक्त्वशल्योद्धार" ग्रंथ प्रसिद्ध हुआ है, तब से ही पार्वती के पेट में शूल होरहा था, जिसके हटाने वास्ते बाईस वर्ष पर्यंत अंदर ही अंदर सोच करती रही, आखिर में कितनेक पंडितों की सहायता पाकर थोथी पोथी छपवाकर ऊपर २ से दुःख हटाया मालूम देता है, परंतु अंदर तो दःख वैसे का वैसा ही कायम है। यदि न होता तो सम्यक्त्वशल्योद्धार का पूरा २ जवाब देती, केवल नाम लेकर भाग कर अलग न हो बैठती, मालूम होता है कि स्त्रीचरित्र खेला है, क्योंकि पार्वती ने सोचा होगा कि अगर मैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat किजइ www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) सम्यक्त्वशल्योद्धार ग्रंथ का जवाब देने का दावा करूंगी तो उसमें जो २ सवाल किये गये हैं जैसे कि-मूत से गुदा धोनी, मूत से मुखपट्टी धोनी, इसादि बातों का क्या जवाब दूंगी? अगर कहूंमी कि यह बात असस है,ढुंढिये यह काम नहीं करते हैं,तो मुझे सरासर झूठ का पाप लगेगा, क्योंकि ढुंढिये यह काम बराबर करते हैं इसमें कोई शक नहीं,और ढूंढिये साधु रात्रि को पानी नहीं रखते हैं, जब कभी पाखाने जाने वगैरह का काम पड़ जाता है तोमूत से ही काम लेते हैं यह अकसर आम मशहूर बात है. और जब मैं अपने हाथ से लिख दूंगी कि हां बेशक यह बात यानी पिशाब से गुदा धोनी मुखपट्टी धोनी इसादि काम दुढिये परंपरा से करते हैं, तो जिन लोगों को इस बात का पूरा २ पता नहीं है, और खासकर जो ढुंढिये श्रावक जिनको कि अब तक इस बात का पता तक भी नहीं है कि हमारे साधु सतियों का ऐसा गलीज़ (अपवित्र ) काम है, एकदम हमारे से नफरत (घृणा) करने लग जावेंगे । इसवास्ते ऐसी बात में हाथ न डालना ही चतुराई का काम हैं, नहीं तो मुझको ही शरमाना पड़ेगा, इस से बेहतर यही है कि सम्यक्त्वशल्योद्धार के खंडन का नाम न लिया जावे और अपना काम बनाया जावे, कौन जानता है और कौन पूछता है कि सम्यक्त्वशल्योद्धार में क्या लिखा है और मैं क्या कहती लिखती हूँ? तटस्थ-जो पुरुष न्यायदृष्टि से देखेगा आपही मालूम कर लेवेगा कि जिन २ बातों का जवाब सम्यक्त्वशल्योद्धार ग्रंथ में स्वामी श्रीआत्माराम जी महाराज जी ने दिया है,पार्वती ने अकसर अपनी पोथी में वही तर्क वितर्क प्रायः किये हैं अर्थात् पीसे हुए को ही पार्वती ने पीसा है, नया इसमें कुछ भी नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] और पृष्ठ २२ पर पार्वती ने लिखा है कि- “हां एक दो चेला चांटा पढ़वा लिया होगा परंतु पंजाबी पीतांबरी तो बहुलता से यूं कहते हैं कि बल्लभविजय पुजेरा साधु संस्कृत बहुत पढ़ा हुआ है परंतु बल्लभ अपनी कृत गप्पदीपकाशमीर नाम पोथी संवत् १९४८ की छपी पृष्ठ १४ में पंक्ति १४ में लिखता है कि लिखने वाली महा मृषावादी सिद्ध हुई यह देखो वैयाकरणी बना फिरता है स्त्रीलिंग शब्द को पुल्लिंग में लिखता है क्योंकि यहां वादिनी लिखना चाहिये था इत्यादि " || परंतु यह नहीं विचारा है कि चेला चांटा नहीं है, बल्कि ढूंढकपंथ के वास्ते कांटा है, जो ऐसा डांटेगा कि याद करोगे । जरा अपने लेख पर ख्याल कर लेती पीछे " वैयाकरणी " बना फिरता है-लिखना ठीक था ! इतनी सी इबारत में कितनी अशुद्धियें है ? जिनके नीचे लकीर का निशान दिया गया है, स्वयं पार्वती देख लेवे ? यदि कोई कसर है तो किसी डाकटर से आंखों का इलाज करा लेवे, हमारी समझ के अनुसार पार्वती के नेत्रों की जरूर दवाई होनी ठीक है क्योंकि आजकल इसको पुरुष भी स्त्री नज़र आते हैं, जो वैयाकरण के स्थान वैयाकरणी लिख दिया है, यह भी एक पार्वती के लिंगज्ञान का नमूना है ! पार्वती को इतना तो सोच करना था कि जिस वल्लभविजय ने मुझे मरद ( ब्रह्मचारी) से औरत (ब्रह्मचारिणी) बना दिया है क्या उससे व्याकरण का इपू " सूत्र भूला हुआ है ? यदि वल्लभविजय को इस बात का पता न होता तो पार्वती को ब्रह्मचारीसे ब्रह्मचारिणी कौन बनाता ! अपनी तरफ से कितनी ही होशीयारी कोई रखे प्रायः छापे की गलती हो जाना संभव है, पार्वती अपनी ही पोथी को देख लेवे कि अशुद्धि शुद्धिपत्र दे भी दिया है फिर भी कितनी 66 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) अशुद्धियें रह गई हैं ! सो इस बात का मान करना या दूसरे पर दोष लगाना प्रत्यक्ष महामूर्खता है ! वादिनी शब्द के दकार का इस्त्र इकार और अंतका अक्षर नकार दो छापने में रह गये । दीर्घ ईकार दकार के साथ लग गया इस से वल्लभविजय को लिंगज्ञान नहीं है यह पार्वती का कहना बिलकुल योग्य नहीं है, अगर वल्लभावजय को लिंगका पता न होता तो हुई के ठिकाने भी होगया लिखा होता ! क्या वहां पार्वती हाथ पकड़ने को गई थी? और अगर छापे की गलती पर ख्याल न किया जाये तो पार्वती ने वादिनी के ठिकाने वादिना लिखा सिद्ध हो जावेगा ! क्योंकि पार्वती की पोथी में वादिना छपा हुआ है,सो पार्वती आपही सोच लेवे कि किस लिंग का कौनसा वचन हो सकता है ? यह इस पास्ते लिखा है कि पार्वती कुछ व्याकरण में अपनी टांग फसाती भुनी जाती है ! वरना पार्वती के लिये ऐसी बात लिखना हम को योग्य नहीं है, और वल्लभविजय जी की बाबत अधिक निश्चय करना होवे तो अपने स्वामी जी उदयचंद जी से ही करलेना! क्योंकि उनको अच्छी तरह अनुभव हो चुका है कि एक वल्लभाविजय जी को जवाब देने के लिये सात पंडितों की सहायता स्वामी उदय चंद जी को लेनी पड़ी थी ! तो भी अभिप्राय पूरा नहीं हुआ ! इस बात से नामा शहर के ब्राह्मण, क्षत्रीय, बानीये, मुसलमान सर्व प्रायः पाकिफ हैं, अथवा उस अवसर पर हाज़र हुए निज ढूंढकसेवकों हीको शपथ देकर पूछलेवे कि सच बतावो वल्लभावजय जी की कितनी शक्ति है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) जैनशास्त्रानुसार व्याकरण का बोध होना जरूरी है । विवेचक - जिसको स्वयं व्याकरण का बोध नहीं या जिस मतमें प्रायो व्याकरण व्याधिकरण माना जाता है उसके कहने लिखने से क्या बनता है ? हाथी के पीछे कुत्ते भौंका ही करते हैं, परंतु देखो ! पार्वती ने सत्यार्थचंद्रोदय पुस्तक के पृष्ठ २३ से २८ तक संस्कृत व्याकरणादि के विषय में कैसी चालाकी दिखाई है जिसका तात्पर्य यही प्रकट होता है कि व्याकरणादि के पढ़ने की कोई ऐसी जरूरत नहीं है ? अर्थात् मकट पाया जाता है कि ढुंढिये साधू साध्वी प्रायो व्याकरणादि के पढ़े हुए नहीं हैं, और ग्रंथ बनाने का साहस करबैठते हैं जैसाकि पार्वतीने: किया है तो अब ऐसी चालाकी की जावे कि लोगों को यह मालूम न हो कि पार्वती व्याकरण पढ़ी हुई नहीं है या ढुंढिये व्याकरण को नहीं जानते हैं । परंतु अनजान लोगों में ही यह चालाकी काम आवेगी, पंडित लोगों में तो उलटी हांसी ही होवेगी ! यदि इस बात का निश्चय किसी को नहीं आता है तो पार्वती की बनाई पोथी किसी साक्षर निष्पक्षपाती पंडित को दिखाकर अनुभव कर लेवे ! और यदि समग्र पुस्तक देखने दिखाने का अवकाश न होवे तो केवल नमूने के वास्ते पृष्ठ २४ पंक्ति ५-६ " ज्ञानावर्णी कर्म के क्षयोपस्म से " " मोहनी कर्म के क्षयोपस्म" पृष्ठ २५ पंक्ति५ 'अणाश्रवी' 66 सम्बर ” तथा पंक्ति ६ “ ते ( सो ) पुरुष शुद्ध धर्म आख्याती ( कहते हैं ) " पृष्ठ २६ पंक्ति २ " मिध्यातियों " इतना ही दिखा लेवे ! और शुद्ध करावे ॥ पार्वती का प्रायः जितना ज्ञान है, शुकपाठ के समान है, www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) जैसे तोता (पोपट) राम राम कहता है परंतु परमार्थ को नहीं समझता है, ऐसा ही इसका हाल है ! क्योंकि पार्वती प्रकृति, प्रत्यय, विभक्ति, लिंग, वचनादि व्याकरण के ज्ञान से प्रायः खाली है । जबकि पार्वती व्याकरण के परमार्थ को नहीं जानती है तो यद्यपि इस अबला के लिखने पर हमको सबला (जबरदस्त) युक्ति की जरूरत नहीं है, तथापि भोले लोगों के दिल में पार्वती का अनुचित लेख पढ़के या सुनके यह निश्चय न हो जावे कि जैनसिद्धांत अनाड़ी के बनाये होवेंगे कि जिनमें व्याकरणादि के नियमों की कोई जरूरत नहीं पड़ती है, तथा वह विचारे पार्वती के लेखको सच्चा मानकर जैनसिद्धांत के बनाने वाले धुरंधर पंडितों का पार्वतीवत् अनादर करने से दुर्गात के भागी न हो जावें ! इस लिये कितनेक जैनसिद्धांतों के पाठमात्र लिख दिखाते हैं कि जिन से पाठकवर्ग को यह विदित होगा कि और और मतके सिद्धांत तो संस्कृतव्याकरण के पढ़ने से ही मार्ग देदेते हैं, परंतु जैनमत के सिद्धांत तो संस्कृत और प्राकृत दोनों ही व्याकरण पढ़ने वालों को मार्ग देते हैं, अन्य को नहीं. और इसीलिये संस्कृत पढ़ना जरूरी है, क्योंकि विना संस्कृत के पढ़े प्राकृत व्याकरण का पढ़ना नहीं हो सकता है, और प्राकृत व्याकरण के बोध विना जैनसिद्धांत का यथार्थ अर्थ मालूम नहीं हो सकता है, यही कारण है कि केवल संस्कृत पढ़े पंडित लोग जैनानेदांत का परमार्थ नहीं पा सकते हैं। तटस्थ-आप व्याकरण संबंधी पाठ वर्णन करें जिस से पार्वती जी का जो अमली निदांत है कि व्याकरण के पढने की कोई खास जरूरत नहीं है, बूंदके बद्दल की तरह उड़जावे, और लोगों को यह दृढ़ निश्चय हो जावे कि इन पाठों के अनुसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) व्याकरण का पढ़ना जरूरी है ॥ ढुंढिये माधु प्रायः व्याकरण नहीं पढ़ते हैं तो इस से साफ जाहिर है कि वह स्वतः नहीं समझ सकते हैं कि अमुक शब्द का क्या अर्थ है ? हां बेशक भाषा में लिखा अर्थ, जिनको टब्बा कहते हैं, उसको घोक घोक कर अपना निर्वाह करते हैं, यही कारण है कि जैनी साधुओं और ढुढियों में कितने ही शब्दों के अर्थों में फरक पड़ता है, क्योंकि जैनी साधु प्राचीन टेका जो संस्कृत प्राकृत में विद्यमान हैं मानते हैं, और जहां कहीं प्रमाण देने की जरूरत पड़ती है प्राचीन टीका का ही प्रमाण देते हैं परंतु ढुंढियों के पान इस बात की गंध भी नहीं है इसीलिये पंडितों की सभा में ढाढये पराजय को प्राप्त होते हैं ! विवेचक-प्रमथ श्रीअनुयोगद्वार सूत्रका पाठ क्रम से पढ़ो और विचारो कि यह पाठ व्याकरण के शास्त्र के बोध विना ठीक ठीक समझ में आ सकता है ? (१) श्रीअनुयोगदार सूत्र में छै प्रकार व्याख्या का लक्षण प्रतिपादन किया है तथाहिसंहिया य पयं चेव, पयत्थो पयविग्गहो चालणा य पसिध्धीय, छव्विहं विधि लक्खणं ॥१ व्याख्य-तत्र व्याख्यालक्षणमेव तावदाह । संहियायेत्यादि । तत्रास्वलित पदोच्चारणं संहिता यथा करोमि भयांत सामायिकमित्यादि । इहतु करोमीर के पदं भयांत इति द्वितीयं सामायिकमिति तृतीयं इत्यादि । पदार्थस्तु करोमीत्यभ्युगमो भयांत इति गुमिंत्रणं समस्यायः समायः समाय एव सामायिकमित्यादिकः । पदविग्रह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) समासः सचानकपदानामकत्वापादान विषयो यथा भयस्यांतोभयांत इति । मूत्रस्थार्थस्य वानुपपत्त्युद्भावनं चालना । अस्या एवानेकोपपत्तिभिस्तथैव स्थापनं प्रसिध्धिः। एते च चालना प्रसिध्धी आवश्यक सामायिकव्याख्यावसरे स्वस्थान विस्तरवत्यौद्रष्टव्ये । एवं षाविधं विध्धि जानीहि लक्षणं व्याख्याया इति प्रक्रमाद्गम्यते इति श्लोकार्थः। पूर्वोक्त छै प्रकार के लक्षणोंमें से साहेता, पद, पदार्थ, और पदविग्रह (समास ) यह चारतो व्याकरण संबंधी हैं और चालना तथा प्रसिध्धि यह दोन्याय संबंधी हैं इससे स्वतः सिद्ध है कि व्याकरण और न्याय का पढ़ना अत्यावश्यकीय है, यादे शब्दशास्त्र तथा तर्कशास्त्र से अनाभेग होगा तो वह पूर्वोक्त षडविध लक्षण को यथार्थ किस प्रकार समझ सकता है ? (२) लो पूर्वोक्त शास्त्र का और पाठ पढ़ो जिमसे साचे आदि व्याकरण शास्त्र की रीति का विरोध प्रतिभान होता हैतथाहि-सेकिंतं चउणामे २ चविहे पण्णत्ते-तंजहा आगमेणं लोवेणं पयईए विगारेणं । सेकिंतं आगमेणं आगमेणं पद्मानि पयांसि कुंडानिसेतं आगमेणं । सेकिंतं लोवेणं लोवेणं ते अत्र तेत्र पटो अत्र पटोत्र घटो अत्र घटोत्र सेतं लोवेणं। सेकिंतं पगईए पगईए अग्नी एतौ पटू इमौ शाले एते माले इमे सेतं पगईए । सेकिंतं विगारेणं २ दंडस्य अग्रं दंडाग्रं सा आगता सागता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) दधि इदं दधीदं नदीइह नदीह मधु उदकंमधूदकं वधूउह वधूह सेतं विगारेणं सेतं चउनामे ॥ व्याख्या ॥ संकिंतं चउणामे इत्यादि-आगच्छ. तीत्यागमो न्वागमादिस्तेन निष्पन्नं नाम यथा पमानीत्यादि " घुटस्वरादीसुरित्यनेनात्र न्यागमास्य विधानादुपलक्षणमात्रं चेदं संस्कार उपस्कार इत्यादेरपि सुडाद्यागमनिष्पन्नत्वादिति । लोपो वर्णापगमरूपस्तेन निष्पन्नं नाम यथा तेत्रेत्यादि " एदोत्परः पदांते " इत्यादिना अकारस्येह लुप्तत्वान्नामत्वं चात्र तेन तेन रूपेण नमनान्नामेति व्युत्पत्तेरस्त्येवेतीत्थमन्यत्रापि वाच्यं उपलक्षणं चेदं मनम् ईषा मनीपा बुद्धिः भ्रमतीति भ्ररित्यादेरपिसकारमकारादिवर्णलोपेन निष्पन्नत्वादिति । प्रकृतिः स्वभावो वर्णलोपाद्यभावस्तया निष्पन्नं नाम यथा अग्नी एतावित्यादि "द्विव. चनमनौ" इत्यनेनात्र प्रकृतिभावस्य विधानान्निदर्शनमात्रं चेदं सरसिजकंठेकालइत्यादीनामपि प्रकृतिनिष्पन्नत्वादिति । वर्णस्यान्यथा भावापादनं विकारस्तेन निष्पन्नं दडस्याग्रं दंडाग्रमित्यादि " समानः सवर्णे दीर्घो भवति" इत्यादिना दीर्घत्वलक्षणस्य वर्णविकारस्येह कृतत्वादुदाहरणमात्रं चैतत् तस्करः षोडशेत्यादिपि वणीवकारसिद्धत्वादिति । तदिह यदस्ति तेन सर्वेणापि नाम्ना आगमनिष्पन्नेन वा लोपनिष्पन्नेन वा प्रकृतिनिष्पन्न न वा विकारनिष्पदन्नन वा भवितव्यम् ॥ (३) और भी पूर्वोक्त शास्त्र का पाठ पढ़ो जिस से विभक्ति. ज्ञान द्वारा कारक प्रकरण का ज्ञान भान होता है-तथाहि : अट्ठविहा वयणविभत्ती पण्णत्ता, तंजहानिदेसे पढमा होइ, बितीया उवएसणे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) तईया करणंमि कया, चउत्थी संपयावणे ॥ १॥ पंचमी अ अवायाणे, छट्ठी सस्सामि वायणे । सत्तमी सष्णिहाणत्थे, अट्ठमी आमंतणी भवे ॥ २॥ तत्थ पढमा विभत्ती निद्दे से सो इमो अहं वत्ति ॥१॥ बिईया पुण उवएसे भण कुणसु इमं व तं वत्ति ॥ २ ॥ तईआ करणंमि कया भणिअं च कयं च तेण वमएवा | ३ | हंदि णमो साहाए हवइ उत्थी पयामि ॥४॥ अवणय गिण्ह य एत्तो इओत्ति वा पंचमी अपायाणे ॥५ छुट्टी तस्स इमस्स व गयस्स वा सामिसंबंधे ॥६॥ हवइ पुण सत्तमी त इमंमि आहारकालभावे य ॥७॥ आमंतणी भवे अट्ठमी उ जहा हे जुवाणत्ति ॥ ८॥ व्याख्या - उच्यंत इति वचनानि वस्तुवाचीनि विभज्यते प्रकटी क्रियतेऽर्थेऽनयेति विभक्तिः वचनानां विभक्तिर्वचनविभक्तिनीख्यातविभक्तिरपि तु नाम विभक्तिः प्रथमादिकेतिभावः । साचाष्ट विधा तीर्थंकरगणचरैः प्रज्ञप्ता | कापुनरियमित्याशंक्य यस्मिन्नर्थे या विधीयते तत्सहितामष्टविधामपि विभक्ति दर्शयितुमाह तद्यथेत्यादि । निइत्यादि श्लोकद्वयं निगदसिद्धं नवरं लिंगार्थमात्र प्रतिपादनं निर्देशस्तत्र सि औ जम् इति प्रथमा विभक्तिर्भवति । अन्यतर क्रियायां प्रवर्त्तनेच्छोत्पादनमुपदेशस्तस्मिन् अम् औ शम् इति द्वितीया विभक्तिर्भवत्युपलक्षणमात्रं चेदं कटं करोतीत्यादेस्तूपदेशमंतरेणापि द्वितीया विधानादेवमन्यत्रापि यथासंभवं वाच्यं । विवक्षितक्रियासाधकतमं करणं तस्मिंस्तृतीया कृता विहिता । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) संप्रदीयते यस्मै तद्गवादिदानविषयभूतं संप्रदानं तस्मिश्चतुर्थी विहिता। अपादीयते वियुज्यते तस्मात्तद्वियुज्यमानावधिभूतमपादानं तत्र पंचमी विहिता । स्वमात्मीयं सचित्तादि स्वामी राजा तयोर्वचने तत्संबंधी प्रतिपादने षष्ठी विहिते त्यर्थः। संनिधीयते आधीयते यस्मिस्तत्संनिधानमाधारस्तदेवार्थस्तास्मन् सप्तमी विहिता। अष्टमी संबुद्धिरामंत्रणी भवेदामंत्रणार्थे विधीयत इत्यर्थः । एनमेवार्थ सोदाहरणमाह । तत्थ पढ़मेत्यादिगाथाश्चतस्रोगतार्था एव नवरं प्रथमा विभक्तिनिद्देशे क यथा इत्याह सो इमोत्ति अयं अहं वति वा शब्द उदाहरणांतरसूचकः।।उपदेशे द्वितीया क यथा इत्याहि भण कुरु वा किं तदित्याह इदं प्रत्यक्षं तद्रा परोक्षभिति । तृतीया करणे क यथेत्याह भणितं वा कृतं वा केनेत्याह तेन वा मयावेति अत्र यद्यपि कर्तरि तृतीया प्रतीयते तथापि विवक्षाधीनत्वात्कारक प्रवृत्तस्तेन मया वा कृत्वा भणितं कृतं वा देवदत्तेन गम्यत इत्येवं करणविवक्षापि न दुष्यतीति लक्षयामस्तत्त्वं तु बहुश्रुता विदंतीति । हदि नमो साहाए इत्यादि हंदीत्युपदर्शने नमो देवेभ्यःस्वाहा अग्नये इत्यादिषु संप्रदाने चतुर्थी भवतीत्येके अन्ये तूपाध्यायाय गां ददातीत्यादिष्वेव संप्रदाने चतुर्थी मिच्छति । अपनय गृहाण एतस्मादितो वा इत्येवमपादाने पंचमी । तस्य अस्य गतस्य वा कस्य भृत्यादेरिति गम्यते इत्येवं स्वस्वामिसंबंधे षष्ठी। तद्वस्तु बदरादिकं अस्मिन् कुंडादौ तिष्ठतीति गम्यते इत्येवमाधारे सप्तमी भवति तथा कालभावत्ति कालभावयोश्चेयं द्रष्टव्या तत्र काले यथा मधौ रमते भावे तु चारित्रेऽवतिष्ठते । आमंत्रणे भवे.. वेदष्टमी यथा हे युवन्निति वृद्धवैयाकरणदर्शनेन चेयमष्टमी गण्यते. इंदं युगानां स्वसौ प्रथमेति मंतव्यम् । इह च नामविचार प्रस्तावाद. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) प्रथमादिविभक्तयतं नामैवगृह्यते तथाष्टीवभीक्तभदादष्टीवध च भवति न च प्रथमादि विभक्तयंतनामाष्टकमंतरणापरं नामास्त्यतो नामाष्टकेन सर्वस्य वस्तुनोभिधानद्वारेण संग्रहादष्टनामेदमुच्यते इति भावार्थः ॥ (४) इसी प्रकार श्रीस्थानांग मूत्रके अष्टमस्थान में विभक्तिस्वरूप प्रतिपादन किया है : ५-तथा और भी श्रीअनुयोगद्वार सूत्र का पाठ पढ़ो और विचार करो कि जिसको व्याकरण का बोध न होगा वह सूत्रपाठोक्त समास तश्चित धातु निरुक्त संबंधि नाम का ज्ञान प्राप्त कर सकेगा ? कदापि नहीं,क्यूंकि विना शब्दशास्त्र के बोधके समासादि का ज्ञान कदापि नहीं होसकता है और समासादि के ज्ञान विना समासादिक से उत्पन्न हुए नामादिका ज्ञान नहीं होसकता-तथाच तत्पाठः ॥ भावपमाणे चउबिहे पण्णते। तंजहा । समासिए तद्धितए धाउए निरुत्तए सेकिंतं समासिए २ सत्त समासा भवंति-तंजहा-दंदेअ बहुव्वीही कम्मधारए दिगुअ तप्पुरिसे अव्वईभावे एकसेसे अ सत्तमे । से किंतं दंदे दंदे दंताश्च ओष्ठौ च दंतौष्ठं स्तनौ च उदरंच स्तनादरं वस्त्रं च पात्रं च वस्त्रपात्रं अश्वश्व महिषश्च अश्वमाहिषं अहिश्च नकुलश्च अहिनकुलं सेतं दंदे सेकिंतं बहुब्बीही समासे २ फुल्ला इमंमि गिरिमि कुडयकयंबा सो इमो गिरी फुल्लियकुड यकयंबो सेतं बहुब्बीही समासे । सेकिंतं कम्मधारए २ धवलो वसहो धवलवसहो किण्हो मियो किण्हमियो सेतो पडो सेत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) पडो रत्तो पडो रत्तपडो सेतं कम्मधारए । सेकिंतं दिगुसमासे २ तिण्णि कटुगाणि तिकटुगं तिण्णि महुराणि तिमहुरं तिण्णि गुणाणि तिगुणं तिण्णि पुराणि तिपुर तिण्णि सराणि तिसरं तिण्णि पुक्खराणि तिपुक्खरं तिण्णि बिंदुआणि तिबिंदुअंतिण्णि पहाणि तिपहं पंच नदीओ पंचनदी सत्त गया सत्तगयं नव तुरंगा नवतुरंगं दस गामा दसगामं दस पुराणि दसपुरं सेतं दिगुसमासे। से किं तं तप्पुरिसे तप्पुरिसे तित्थे कागो तित्थकागो वणे हत्थी वणहत्थी वणे वराहो वणवराहो वणे महिसोवणमहिसो वणे मयूरोवणमयूरो सेतं तप्पुरिसे । से किं तं अव्वइभावे अव्वइभावे अणुगामा अणुणइया अणुफरिहा अणुचरिआ सेतं अव्वइभावे । से किं तं एगसेसे एगसेसेजहा एगो पुरिसोतहा बहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा तहा एगोपुरिसो जहा एगोसाली तहाबहवे सालीजहा बहवे साली तहा ऐगोसाली सेतंएगसेसे।सेतं समासिए।से किं तं तन्धितए तद्धितए अठविहे पण्णत्ते। तंजहा।कम्मेसिप्पसिलोए संजोगसमीवओ अ संजूहे । ईस्सरिअ अवचेणय तद्धितणामं तु अठविहं ॥१॥से किं तं कम्मनामे कम्मनामे तणहारए कट्टहारए पत्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) हारए-दोसिए सोचिए कप्पासिए भंडवेआलिए कोलालिए। सेतं कम्मनामे । से किं तं सिप्पनामे सिप्पनामे . तुण्णए तंतुवाए पट्टकारे मुंजकारे कळकारे छत्तकारे - पोत्यकारे चित्तकारे दंतकारे लेप्पकारे सेतं सिप्पनामे । से किं तं सिलोअनामे सिलोअनामे समणे माहणे. सव्वातिही सेतं सिलोगनामे । से किं तं संजोगनामे संजोगनामे रण्णो ससुरए रण्णो जमाउए रण्णो साले रण्णो दूए रण्णो भगिणीपइ सेतं संजोगनामे । से किं तं समीवनामे समीवनामे गिरिसमीवे णगरं गिरिणगरं विदिसि समीवे णगरं विदिसिणगरं वेनाय समीवे णगरं वेनायणगरं सेतं समीवणामे । से किं तं संजूह नामे संजूहनामे तरंगवइक्कारे मलयवइकारे अत्ताण सठिकारे बिंदुकारे सेतं संजूहनामे । से किं तं ईस्सरिअनामे ईस्सरिअनामे ईसरे तलवरे माडंबिए कोडुबिए इभ्भे सेवी सत्यवाहे सेणावइ सेतं इस्सरिअनामे।से किं तं अवचनामे अवञ्चनामे अरिहंतमाया चक्वट्टिमाया बलदेवमाया बासुदेवमाया रायमाया मुणिमाया वायगमाया सेतं अवञ्चनामे।सेतं तध्धियए।से किंतं धाउए धाउए भू सत्तायां परस्मैभाषा एध वृध्धौ स्पर्ध संहर्षे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) सेतं धाउए । से किं तं निरुत्तए २ मह्यां शेते महिषः भ्रमति च रौतीति भ्रमरः मुहुर्मुहुर्लसतीति 'मुसलं कपेखि लंबते कपित्थं चिच्च कति खल्लं च भवति चिक्खल्लं ऊर्ध्व कर्णः उलूकः से तं निरुत्तए से तं भावपमाणे ॥ व्याख्या-भावप्पमाणे इत्यादि-भावो युक्तार्थत्वादिको गुणः स एव तद्वारेण वस्तुना परिच्छिद्यमानत्वात् प्रमाणं तेन निष्पन्नं तदाश्रयेण निर्वृत्तं नाम सामासिकादि चतुर्विधं भवति इसत्र परमार्थः तत्र से किं तं समासिए इसादि-द्वयोर्बहूनां वा पदानां समसनं संमीलनं समासस्तनिटत्तं सामासिकं समासाश्च द्वंद्वादयः सप्त तत्र समुच्चयप्रधानो द्वंद्वः दंताश्चोष्ठौ च दंतौष्ठं स्तनौ च उदरं च स्तनौदरमिति प्राण्यंगत्वात् समाहारः । वस्त्रपात्रमियादौ त्वमाणि जातिवादश्वमाहेषमिसादौ पुनः शाश्वतिकरित्वादेवमन्यान्यप्युदाहरणानि भावनीयांनि । अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिः पुष्पिताकुटजकदंबा यस्मिन् गिरौ सोयं गिरिः पुष्पितकुटजकंदवः । तत्पुरुषसमानाधिकरणः कर्मधारयः सच धवलश्चासौ वृषभश्च धवलवृषभ इसादि । संख्यापूर्वो द्विगु: त्रीणि कटुकानि समाहृतानि विकटुकं एवं त्रीणि मधुराणि समाहृतानि त्रिमधुरं पात्रादिगणे दर्शनदिह पंचमूलीसादिष्विव स्त्रियामीप् प्रत्ययो न भवत्येवं शेषाण्यप्यु दाहरणाने भावनीयानि । द्वितीयादिविभत्त्यंतपदानां समासस्तत्पुरुषस्तत्र तीर्थे काक इवास्ते तीर्थकाकः इति सप्तमी तत्पुरुषः शेष प्रतीत। पूर्वपदार्थप्रधानोऽव्ययीभावस्तत्र ग्रामस्य अनुसमीपेन मध्येन वा निर्गता अनुग्रामं एवं नद्याः समीपेन मध्येन वा निर्गता अनुनदी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) त्याद्यपि भावनीयं । सरूपाणामेकशेष एकविभक्तावित्यनेन सूत्रेण समानरूपाणामकविभक्तियुक्तानां पदानामेकशेषः समासो भवति सति समासे एकः शिष्यतेऽन्ये तु लुप्यते यश्च शेषोवतिष्ठते स आत्मार्थे लुप्तस्य लुप्तयोर्खप्तानां चार्थे वर्तते । अथ एकस्य लुप्तस्यात्मनश्वार्थे वर्तमानात्तस्मात् द्विवचनं भवति यथा पुरुषश्च पुरुषश्चेति पुरुषो । द्रयोश्च लुप्तयोरात्मनश्चार्थे वर्तमानाबहुवचनं यथा पुरुषश्च३ पुरुषाः एवं बहूनां लुप्तानामात्मनश्चार्थे वर्तमानादपि बहुवचनं यथा पुरुषश्च ४ पुरुषा इति जातिविवक्षायां तु सर्वत्रैक वचनमपि भावनीयमितः सूत्रमनुश्रियते-जहा एगो पुरिसोति-यथैकः पुरुषः एकवचनांतपुरुषशब्द इत्यर्थः एकशेषे समासे सति बह्वर्थवाचक इतिशेष:-तहा बहवे पुरिसत्ति-तथा बहवः पुरुषाः बहुवचनांत पुरुषशब्द इत्यर्थः एकशेष समासे सति बह्वर्थवाचक इतिशेषः यथाचैकशेष समासे बहुवचनांत पुरुषशब्दः बह्वर्थवाचक स्तथैकवचनांतोपीति न कश्चिद्विशेष एतदुक्तं भवति यदा पुरुषश्च ३ इति विधाय एक पुरुषशब्दशेषता क्रियते तदा यथैकवचनांतः पुरुषशब्दो बहान, वक्ति तथा बहुवचनांतोपि यथा बहुवचनांतस्तथैकवचनांतोपीति न कश्चिदेकवचनांतत्वबहुवचनांतत्वयोविशेष केवलं जातिीववक्षायामेकवचनं बह्वर्थविवक्षायां तु बहुवचनमिति एवं कार्षापणशाल्यादिष्वपि भावनीयं । अयं च समासो द्वंद्वविशेष एवोच्यते केवलमेकशेष तत्र विधीयते इत्येतावता पृथगुपात इति लक्ष्यते तत्त्वं तु सकलव्याकरणवेदिनो विदंतीत्यलमति विजृमितेन । गतं सामासिकं । से किं तं तद्धितए इत्यादि - तद्धिताजातं तद्धितर्ज इह तद्धितशब्देन तद्धितमाप्तिहेतुभूतोर्थों गृह्यते ततो यत्रापि तुन्नाए तंतुवाए इसादौ तद्धितासयो न दृश्यते तत्रापि तद्धेतुभूतार्थस्य विद्यमानत्वात्तद्धितजं सिद्धं भवतिShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मेगाहा-पाठसिद्धा-नवरं श्लोकः श्लाघा संयूथो ग्रंथरचना एते च कर्मशिल्पादयोऽर्थास्तद्धितप्रसस्योत्पित्सोनिमित्ती भवंतीसेतद्भेदात्तद्धितजं नामाष्टविधमुच्यते इति भावस्तत्र कर्मतद्धितंजदोसिए सोत्तिए इसादि-दृष्यं पण्यमस्येति दौषिकः सूत्रं पण्यमस्येति सौत्रिक शेषं प्रतीतं नवरं भांडविचारः कर्मास्योति भांडवैचारिक: कौलालानि मृद्भांडानि पण्यमस्येति कौलालिकः अत्र क्वापि तणहारए इसादि पाठो दृश्यते नत्र कश्चिदाह नन्वत्र तद्धितासयो न कश्चिदुपलभ्यते तथा वक्ष्यमाणेष्वपि तुन्नाए तंतुवाए इसादिषु नाय दृश्यते तत् किमिसेवं भूतनाम्नामिहोपन्यासेोऽत्रोच्यते अस्मादेव सूत्रोपन्यासात्तृणानि हरति वहतीसादिकः कश्चिदाद्यव्याकरणदृष्टस्तद्धितोत्पत्तिहेतुभूतोऽर्थों द्रष्टव्यस्ततो यद्यपि साक्षात् तद्धितप्रययो नास्ति तथापि तदुत्पत्तिनिबंधनभूतमर्थमाश्रिसेह तन्निर्देशो न विरुध्यते यदि तद्धितात्पत्तिहेतुरर्थोऽस्ति तर्हि तद्धितोपि कस्मानोत्पद्यत इतिचे लोके इत्थमेव रूढत्वादिति ब्रूमः अथवा अस्मा देवाद्य मुनिप्रणीतसूत्रज्ञापकादेवं जानीयास्तद्धितप्रत्यय एवामी कचित्पतिपत्तव्या इति । अथ शिल्पतद्धित नामोच्यते । वस्त्रं शिल्पमस्योतवास्त्रिका तंत्रीवादनं शिल्पमस्येति तांत्रिका तुन्नाए संतुवाए प्रतीतमाक्षेपपरिहारायुक्तावेव यह पूर्वच कचिद्वाचना विशेष प्रतीतं नाम दृश्यते तद्देशांतर रूढितोऽवसेयम् । अथ श्लाघातद्धित नामोच्यते। समणे इसादि-श्रमणादीनि नामानि श्लाघ्येष्वर्थेषु साध्वादिषु रूढान्यतोऽस्मादेव सूत्रनिबंधनात् श्लाघ्यार्थास्तद्धितास्तदुत्पत्तिहेतुभूतमर्थमात्रं वा अत्रापि प्रतिपत्तव्यम । संयोगतद्धितनाम राज्ञः श्वसुर इसादि-अत्र संबंधरूपः संयोगो गम्यते अत्रापि चास्मादेव ज्ञापकात् तद्धितनामता चित्रं च पूर्वगतं शब्दप्रामृतमप्रसक्षं चातः कथमिह भावना स्वरूपमस्मादृशैः सम्यगवगम्यते । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) समीपतातनाम । गिरिसमीपे नगरं गिरिनगरमत्रादुरभवश्चेसण् न भवति गिरिनगरमित्येवं प्रतीतत्वात् विदिशाया अदूरं भवं नगरं वैदिशमत्रत्वदूरभवश्चे सण- भवसेवेत्थं रूढत्वादिति । संयूथतद्धितनामतरंगवइक्कारए - इत्यादि तद्धितनामवाचेोचरत्र च पूर्ववद्भावनीया । ऐश्वर्यतद्धितनाम राईसरे इत्यादि इह राजादिशब्द निबंधनमैश्वर्यमेवावगंतव्यं राजेश्वरादिशब्दार्थस्त्विदैव पूर्वं व्याख्यात एव । अपस- तद्धितनाम - तित्थर माया इत्यादि - तीर्थकरोऽपसं यस्याः सा तीर्थकर - माता एवमन्यत्रापि सुप्रसिद्धेनामसिद्धं विशिष्यते अतः तीर्थकरादिभिर्मातरो विशेषितास्तद्धितनामत्वभावना तथैव गतं तद्धितनाम । . अथ धातुजमुच्यते । से किं तं धाउए इत्यादि भूरयं परस्मैपदी धातुः .. सत्तालक्षणस्यार्थस्य वाचकत्वेन धातुजं नामेत्येव मन्यत्रापि अभिधानाक्षरानुसारतो निश्चितार्थस्य वचनं भणनं निरुक्तं तत्र भवं नैरुक्तं तच्च मह्यां शेते महिषं इत्यादिकं पाठसिद्धमेवेत्यादि । • (६) तथा श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्र के पाठ से भी व्याकरणज्ञान संपादन करना अत्यावश्यकीय सिद्ध होता है । तथा च तत्पाठःनामकखाय निवात उवसग्ग तद्धिय समास संधिपय हेउ जोगिय उणाइ किरिया विहाण धातुसर 'विभत्तित्वण्णजुत्तं । इति सप्तमाध्ययने । व्याख्या - तथा नामाख्यातनिपातोपसर्गतद्धितसमासंसंधि पद हेतुयोगिकोणादिक्रियाविधानधातुस्वरविभक्तिवर्णयुक्तं (वक्तव्यमितिशेषः ) तात्पर्य यह है कि नाम, आख्यात, निपातादि युक्त वचनोच्चार सत्य में गिना जाता है, इसवास्ते पूर्वोक्त वस्तु का ज्ञान अवश्यमेव करना उचित है और यह ज्ञान व्याकरण के बोध विना कदापि नहीं होसक्ता है अतो बळात्कार व्याकरण का पड़ना सिद्ध होता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) (७) तथा कितने ही पाठ यह सिद्ध करते हैं कि जो ज्या--- करण की रीति से अनभिन्न है वह कदापि उसका यथार्थ अर्थ नहीं समझ सक्ता है. नमूनामात्र श्रीदशवैकालिक सूत्र के नवमाध्ययन.. के तृतीयोद्देशक की एक गाथा लिखी जाती है, जिसका अक्षरा . विना व्याकरण शास्त्र की रीति के कोई भी ढुंढकमतानुयायी कर .. देवे तो फिर हम भी कह देवेंगे कि व्याकरण के पढ़ने की कोई .. असावश्यकता नहीं है, वह पाठ यह है ॥ - गुणेहिं साहू अगुणहिँ साहू । गिण्हाहि साहू गुणमुचं साहू ॥. विआणिआ अप्पगमप्पएणं । जो रागदोसे हिं समो स पुज्जो ॥११॥ इति.' . तटस्थ-वेशक ! इन पाठों से व्याकरण का पढ़ना.जरूरी . मालूम देता है और इसी वास्ते बेधड़क होकर पार्वती ने निषेध नहीं.... किया मालूम देता है। विवेचक-इसमें क्या शक है, इसी लिये तो पार्वती को चाकाक मानते हैं, नीतिकार का भी कथन है कि “स्त्रियाचरित्रं : पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्यः" परंतु देखना इस चालाकी ने ही खैदान मैदान कर देना है। ज़रा शास्त्रों के पाठको तो शोच लिया करे, सब ही जगह “ तथा काले तथा धौले.न. किया करे । किसी ने परमाधार्मियों के मुद्गर से नहीं बचाना है, श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्र के सातवें अध्ययन के पाठ की बाबत था। अपनी अज्ञता क्यों दिखानी थी? क्योंकि परमार्थ के जानकारतो, पार्वती के लिखे अर्थ से ही श्रीस्वामी आत्मारामजी का सम्यक्त्व... शल्योद्धार ग्रंथ में लिखा अर्थ -सस ही मानते हैं, बाकी अनः । पुरुषों का तो कहना ही क्या है ? जो मरजी में आवे सो पके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि पार्वती ने स्वामीश्रीआत्मारामजी का लिखा व्याकरण पढ़ने सम्बन्धि श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्र का लेख असत्य करने के इरादे से अस्तोव्यस्त मतलब विना का ढकौंसला मारा है “ उक्त सूत्र में तो पूर्वोक्त वचन की शुद्धि कही है यों तो नहीं कहा कि संस्कृत बोले विना सत्य व्रत ही नहीं होता है" परंतु जरा आंख मीट के सोचना तो था कि मैं क्या लिखने लगी हूं, इस लेख से मैं आप ही झूठी हो जाऊंगी. मेरे ही मुख में खांड दीजावेगी, क्या अशुद्धवचन बोलने वाले को झूठ बोलने का दोष नहीं लगता है ? बराबर लगता है . तो फिर साबत होचुका कि शुद्धवचन बोलने वाले का सत्य व्रत आराधन होता है, अशुद्ध वचन बोलने वाले का नहीं, जब यह सिद्ध हुआ तो स्वामी श्रीआत्मारामजी का लिखा ठीक २ सत्य सिद्ध होगया, और पार्वती का लिखा बिलकुल असत्य सिद्ध होगया, यदि यह बात नहीं है अर्थात् वचन चाहे शुद्ध बोले, चाहे अशुद्ध, झूट बोलने का दोष नहीं लगता, ऐसा पार्वती का निश्चय है तो पार्वती को साधु और पूज्य सोहनलाल जी को साध्वी कहने वालों को पार्वती के माने मूजिब दोष नहीं लगना चाहिये ? बस ऐसे होने पर पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंग(मुज़कर, मुवन्नस, मुखन्नस ) एक वचन द्विवचन बहुवचन-(वाहिद, जमा) अतीत, वर्तमान, अनागत-(माज़ी, हाल, मुस्तविल) इत्यादि रीति (कायदों) के बताने वाले व्याकरण (ग्रामर) के बताने वाले सब झूठे हो जावेंगे, क्या जरूरत है ? जो मरज़ी में आवे सो कह देवे? फिर क्या कारण है कि परीक्षा लेने वाले (इंस्पेटकर) उलटा कहने वाले लड़के को झूठा ठहरा कर नापास (फेल) करदेते हैं ? इंस्पेकटर साहिब ! ज़रा पार्वती ढूंढकनी के कहने पर भी आप को ख्याल रखना होगा ! अफसोस है पार्वती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) की खांड खिलाने वाली चतुराई पर ! "ज्ञानसहिता क्रिया फलवती" तटस्थ - पार्वतीजी ने सूयगडांग सूत्र की गाथा लिखी है सो कैसे है ? 66. विवेचक - अजी क्या पूछते हो? यह भी पार्वती की अज्ञानता की निशानी है, क्योंकि वहां तो साधुके आचार धर्म का कथन और क्रिया की प्राधान्यता बतलाई है, परंतु पढ़ने का निषेध नहीं किया. है, प्रत्युत पढ़ने की शिक्षा ( हदायत ) पाई जाती है, पढ़ा न होवेगा तो शुद्धधर्म क्या पार्वती का कपाल सुनावेगा ? वहां तो मतलब ही और है, परंतु हठधर्म के प्रताप से हठधर्मीयों को और का और ही दिखाई देता है, ज़रा अनुयोगद्वार सूत्र, ठाणांग सूत्रका'सक्कया पायया चेव" इत्यादि गाथा का अर्थ विचार लेती, तो क्यों हंसी होती, इसमें साफ लिखा है कि संस्कृत और प्राकृत दो प्रकार की भाषा मंडल में ग्रहण करके बोलने वाले साधुकी भाषा प्रशस्थ है ॥ तथा श्री उववाइय सूत्र में जहां गणधर महाराज का वर्णन है वहां लिखा है कि गणधर महाराज सव्वक्खरसन्निव। यसव्वभासाणुगामिणों " सर्व अक्षरों के सन्निपात ( जोड ) और सर्व भाषा के जानकार होते हैं । श्री राजप्रनीय सूत्र में भी इसी प्रकार का पाठ है। श्री दशवैकालिक सूत्र में लिखा है " पढमं णाणं तओ दया " पहिले ज्ञान और पीछे दया इत्यादि पाठों से ज्ञान की प्राधान्यता होने पर भी एकांत एक बात को खींच लेना यही तो मिथ्यात्व है ! परन्तु शास्त्रों के परम रहस्य को अज्ञ ढूंढिये क्या जानें ? गंभीर धुरंधर - पंडित जैनाचार्य ही जानते थे, और जानते हैं । इसीवास्ते श्रीअनुयोगद्वार 66 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( हद ) 66 सूत्रमें फरमाया है कि “ सब्बेसिपि नयाणं वतव्वं बहुविहं णिसामित्ता । तं सव्वनय विसुध्धं, जं चरण गुणडिओ , - साहु " भावार्थ- सर्व नयोंकी अनेक प्रकार की वक्तव्यता सुनकर सर्वनय विशुद्ध वस्तु को चारित्र में स्थित साधु ग्रहण करे, अर्थात् ज्ञाननय, क्रिया नय - निश्चयनय, व्यवहारनय — द्रव्यार्थिकनय, पर्यायार्थिकनयशब्दनय, अर्थनय – इनको एकांत माननेमें विध्यात्व होता है और स्याद्वाद संयुक्त मानने वाला सम्यग्दृष्टि होता है इसवास्ते सर्वनयविशुद्धवस्तु को चारित्र में स्थित साधु ग्रहण करे एकांत नहीं - परंतु पार्वती ने इस गाथा का जो अर्थ लिखा है सो ठीक नहीं, क्योंकि “णिसामित्ता” क्त्वा प्रत्ययांत इस शब्दका अर्थ तो लिखा ही नहीं है, कहां से लिखे ? और श्रीबुद्धिविजय जी ( श्री बूटेराय जी ) महाराज जी आदि के विषय में जो कुछ लिखा है सो भी उजाड़ में रोने के समान कोई नहीं सुनता ! पार्वती के पास क्या प्रमाण है कि वह नहीं पढे थे ? और माय: करके जो पढे हुए नहीं होते हैं वह ढूंढक पंथानुयायीवत् मानके बारे व्यख्यान वैगरह नहीं करते हैं, कदापि कारण वशात् करने का काम पड़ जावे तो पूर्वपुरुषों ने भाषा में जो वर्णन किया है। बही श्री सुनाते हैं, परंतु जैसे अज्ञढुंढिये " वायाविधुन्वहढो " इस दयावैकालिक के पाठ का अर्थ "बहेडे का वृक्ष" इस प्रकार का अमर्थ करते हैं, वैसे नहीं करते हैं | इसवास्ते जैनसाधुओं पर ऐसा आक्षेप करना नपुंसक से पुत्रोत्पत्ति की आशा करने समान है और जो पठित अपठित का दृष्टांत दिया है सो भी अज्ञताकी निशानी है, क्या वहां कोर्ट में कोई लिखत पढ़ने का काम पड़ जावे तो वह पंडित पढ़ लेवेगा ? कदापि नहीं ! बस इसी प्रकार अपठित शास्त्रों की बालका परमार्थ नहीं जान सकता है, क्योंकि जब वह पढ़ 17 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९९ ) ही नहीं सकता है तो परमार्थ का समझना कैसे हो सकता है ? इस वास्ते विद्याध्ययन करना अतीव जरूरी हैं ॥ तथा राजनीति का नाम लेकर " पठकः पाठकश्चैव ये चान्ये शास्त्रचिंतकाः सर्वे व्यसनिनो मूर्खा यः क्रियावान् स पंडितः " इस श्लोक का जो कुछ मतलब घसीटा है उस में सत्यता लेशमात्र भी सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि ज्ञान का अनादर करके एकांत क्रिया का आदर किया है, परंतु इस श्लोक का परमार्थ तो यह है कि- ज्ञान क्रिया सहित होवे, और क्रिया ज्ञान सहित होवे तो यथार्थ फल प्राप्त होता है, क्योंकि “ यः क्रियावान् स पंडितः इस पदका शब्दार्थ " जो क्रियावाला सो पंडित " इतना ही मात्र होता है, अब बात विचारने योग्य है कि किस प्रकार की क्रियावाला होना चाहिये ? जगत् में जितने फेल ( काम करनें ) हैं सब क्रिया हैं तब तो द्यूतक्रियावाले को, विषयाक्रयावाले को, हननक्रिया वाले इत्यादि सब को पार्वती के किये अर्थ अनुसार पंडित कहना चाहिये ! क्योंकि जो क्रियावाला सो पंडित है ऐसा पार्वती का मानना है, परंतु विद्वान पुरुष तो पंडित शब्द की अपेक्षा शीघ्र ही परमार्थ निकाल लेवेगा कि ज्ञानसहित क्रिया वाला अर्थात् शास्त्राधार क्रियावाला पंडित होता है क्योंकि "पंडा तत्त्वानुगा बुद्धि: - तत्त्रमनुगच्छतीति तत्त्वानुगा-सा पंडा (तत्त्वानुगा बुद्धिः ) जातः अस्य - जातार्थे इतः - स पंडितः " पंडित शब्द इस रीति से सिद्ध होता है, जब तत्त्वग्रहण करने की बुद्धि वाला पंडित कहाता है तो क्या वह ज्ञानरहित ही होगा ? कदापि नहीं, इस वास्ते चतुर्थ पद यः क्रियावान् स पंडितः “ 66 य www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) सक्रियावान् " जो क्रिया वाला सो पंडित, जो पंडित सो क्रियावाला “भवति" क्रिया का दोनों स्थान में अध्याहार होता है । तात्पर्य यह कि न केवल ज्ञान, और न केवल क्रिया, किन्तु ज्ञानक्रियायुक्त पंडित होता है, और इसीवास्ते चतुर्दश पूर्वधारी श्रीभद्रबाहु स्वामी जी श्री आवश्यक सूत्रनिर्युक्त में फरमाते हैं कि 66 हयं णाणं किया हीणं हया अण्णा णओ किया पातो पांगुली दड्ढो धावमाणो य आंधलो तथा - संजोग सिद्धिइ फल वयंति नहु एग चक्केणहंपयायइ 'अंधोय पंगू यवणे समिच्चा ते संपउत्ता नगरे पविद्या” इत्यादि तथा और भी पूर्व महर्षियोंने “ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः । फरमाया है, तो भी यदि अपना हठ नहीं त्यागे गी तो खोटी क्रिया करने वाले भी पार्वती को पंडित मानने पड़ेगें, ग्रथिल ( सौदाइ पागल) भी पंडित हो जायेंगे ! इसलिये पार्वती का किया अर्थ पूर्ण नहीं है ! और क्रियावान् को पंडित मानना, सो क्रिया भी शास्त्राधार होनी चाहिये, मनःकल्पित नहीं, परंतु ढुंढकपंथ में तो प्रायः बहुत क्रिया मनःकल्पित ही चलती हैं ! यथा-दीक्षा, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, योगोद्वहन, संथारा, श्राद्धद्वादशवतोच्चरण, श्राद्धप्रतिक्रमण, पौषध, सामायिक, इत्यादि क्रिया जिस विधि ढुंढक लोग करते हैं ढुंढक के माने शास्त्रों में से किसी भी शस्त्र में नहीं है बलकि किसी भी जैनशास्त्र में नहीं है, और इनीवास्ते पार्वती ने केवल क्रियावाले को पंडित बनाना चाहा है, परंतु वह तो हंस की पंक्ति में बगले के समान जिस समय वचन उच्चारण करेगा मूर्ख प्रगट हो जावेगा, अतः सिद्ध हुआ कि शास्त्रानुसार क्रियावान् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 99 www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) पीडत होता है, परंतु शास्त्र विना मनःकल्पित क्रिया करने वाले ढुंढिये कदापि पंडित नहीं हो सकते हैं ! जो शास्त्रानुसार क्रिया न करे, केवल क्रियावाला होवे यदि उसको पंडित माना जावे तो तामलितापस, जमालि, गोशाला प्रमुख सब को पंडित मानना पड़ेगा, क्योंकि जैसी उग्र क्रिया इन्होंने की है समग्र दुढिये मिल जावें तो भी एक की बराबरी नहीं हो सकेगी, विचारो कि ऐसे. क्रियावाले थे तो भी शास्त्रकारों ने इनको पंडित नहीं कहा है सो क्या बात है ? “प्रशंसापत्रदाता की पांडित्यता" पृष्ठ २८ से पृष्ठ ६७ तक जो कुछ आल जाल लिख मारा है नि केवल अवलाक्रीडा ही है, इस से अधिक फल कुछ भी नहीं । हां बेशक ! जो लोग आंख के अंधे, गांठ के पूरे, मतलब के यार हैं, वह प्रशंसापत्र प्रदानवत् मनमाना संकल्प विकल्प करें! देवी, आचार्या, पंडिता, बालब्रह्मचारिणी मरज़ी में आवे सो कहें उनका इखतायार है परंतु प्रशंसापत्र देनेवालोंने थोड़ासा भी ग्रंथ अवलोकन किया मालूम नहीं देता है, केवल किसी की दाक्षिण्यता से या अन्य किसी कारण से प्रशंसापत्र लिख दिया है, यदि ऐसे न होता तो-शास्त्री, बी०ए, प्रोफैमर, पंडित, गोस्वामी, योगीश्वर इत्यादि उपाधिधारक विद्वान्पुरुष सम्मति देने के समय जरूर ही सोचते कि पार्वती देवी की बनाई थोथी पोथी का " सत्यार्थचंद्रोदय जैन " यह नाम संस्कृत के नियमानुसार है या नहीं ? जब इतना भी पंडितों ने संशोधन नहीं किया, प्रत्युत मक्षिका स्थाने मक्षिकावत् वही नाम पीटा है, और लिख मारा है कि हमने समग्र पुस्तक देखा है ! तो इससे क्या बना ? हां बेशक ! जिल्द Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) सहित पुस्तक तो जरूर देखा होगा ! सो पुस्तक तो अब भी देख लेता है! परंतु पंडितों का जिन में भी सम्मति दाता का देखना तो ऐसा होता है कि अशुद्धता दूर करके शुद्धता बतलाई जावे, सो तो आकाशपुष्पवत् अभाव है ! और अबला की कृतिमें सम्मति देते हुए आप ही अबलावत् कुछक कलंकित हो गये हैं, और अवला की प्रशंसा करते हुए अपनी सबला विद्वत्ता को खो बैठे हैं ! अन्यथा अबला की भूल दूर करके अपनी सबला विद्वत्ता प्रकट करते । हां बेशक ! अबला की प्रशंसा करते हुए आपने दर्शाया है कि अबला (स्त्री) होकर ऐसा उद्यम करती है तो पुरुष को इस से भी अधिक करना चाहिये ! सो इस स्ववचनानुकूल आपको जरूर अशुद्धता का उपयोग नहीं करना चाहिये ! क्योंकि आपकी देवी पार्वती अशुद्धता का उपयोग नहीं रखती है तो आपको क्या जरूरत है ? बल्कि आपने तो अपने वचन को सिद्ध करने वास्ते देवी का अनुकरण यहांतक कर दिखाया है कि अपना सिद्धांत और स्वगुरुवाक्य तक भी भुला दिया है, और देवी की प्रशंसा लिख मारी है, सत्य है, “अर्थी दोष न पश्यति " आपको तो मूर्ति पूजा के निषेध से प्रयोजन है, चाहे कोई मातंगी भी खड़ी होजावे और मूर्तिपूजन का खंडन करने लग जावे, आप झटपट उसे सार्टिफिकट देने को तैयार हैं, बन इसी बात से आपने सम्मति प्रशंसापत्र प्रदान करे होंगे और कोई मतलब नहीं मालूम देता है। और यही बात प्रकटतया आपके दिये प्रशंसापत्र में पाई जाती है कि मूर्तिपूजा का इस पुस्तक में खंडन है, परंतु आपने तथा आपके स्वामीजी ने जो यह सिद्धांत स्वीकार किया है कि मूर्तिपूजा जैनियों मे शुरू हुइ है, इसपर पूर्वोक्त बात से आपने पानी फेर दिया है, सत्य है-कुसंग का फल खोटा ही होता है-दूसरे को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) सम्मति देते हुए अपना ही सिद्धांत खंडित कर दिया !- नीति का वाक्य है " कुसंगासंगदोषेण साधवो यांति विक्रियाम् " सो पंडित जी महाराज ! आपके साथ भी ऐसा ही बना है, अच्छा पंडित जी साहिब ! स्वामीदयानंदजी साहिब तो अपने बनाये सत्यार्थप्रकाश में जगह २ जैनशास्त्रों के प्रमाणसहित पूजा का वर्णन करते हैं, और आप सम्मति देते हैं कि जैनशास्त्रों में पूजा नहीं है, तो अब विचारना योग्य है कि आप में से झूठा कौन ? आप वा आपके गुरु ? पार्वती के उत्सूत्र का विचार । तटस्थ - आप इन विचारे पंडितों को क्या कहते हैं ? इनका तो यह हाल है “ जहां देखां तवा परात ऊहां गावां सारी रात परंतु आप पार्वती के लेख की विवेचना करें ? 99 विवेचक - " बेशक ! जैनशास्त्रों से तथा जैनशैलि से प्रायः बिलकुल अनभिज्ञ इन पंडितों के विषय में तो हमको केवल इतना ही कहना है कि आंखें बंद करके सम्मतिप्रशंसापत्र प्रदान करने की जो चेष्टा की है सो उनको कलंकित करती है । परंतु पार्वती जैनशैलि से अनजान होकर भी जानकारों में अपनी टांग फँसाना चाहती है, इस बात पर हमको अतीव अफसोस प्रकट करना पड़ता है क्योंकि भगवान् की मूर्ति में चार निक्षेप उतारने की जो चालाकी दिखाई है बिलकुल जैनसिद्धांत से विरुद्ध है । जैनशास्त्रों में पार्वती की कल्पनानुसार निक्षेपों का वर्णन ही नहीं है, सो विस्तार सहित पूर्व लिखा गया है, इसवास्ते निक्षेपविषेय में बार वार लिखना पिष्टपेषण करना है. और यदि इस बात का घमंड तो जिसप्रकार निक्षेपों की बाबत पार्वती ने कल्पना की है, किसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) जैनशास्त्र में इस रीति का लेख दिखा देवे, अन्यथा पार्वती आप ही अपनी कल्पना से झूठी होचुकी है, ज़रा आंखों के आगे से पक्षपात का परदा हटाकर देख लेवे कि-पूर्वाचार्य क्या फरमाते हैं तथाहि :नामजिणा जिणनामा । ठवणजिणा पुण जिणंदपडिमाओ॥ दवजिणा जिणजीवा। भावजिणा समवसरणत्था ॥१॥ भावार्थ-जिनेश्वरदेव का नाम सो नामजिन । जिनेश्वरदेव की प्रतिमा स्थापनाजिन । जिनेश्वरदेव का जीव द्रव्यजिन । और समवसरण में विराजमान भावजिन । जिसका नाम उसी की स्थापना, उसी का द्रव्य और उसी का भाव, इस प्रकार चारों निक्षेप का समवतार होता है . श्रीभगवती सूत्रादि जैनागमों में " भवियदव्वदेव भवियदब्ब मनुअ" इत्यादि स्थल में जिस गति का बंध पड़ा होवे उस गति का द्रव्य मानना फरमाय, है, अर्थात् मनुष्यगति में विद्यमान है, परंतु देवगति का आयुष्यदल बांध लिया है, तो उसको द्रव्यदेव कहना, इसी तरह सब गति की अतीत अनागत पर्यायापेक्षा से उस २ गोत का द्रव्य उस २ जीव को मानना, जैसे जो आगे को होने वाले अरिहंत तीर्थंकर शास्त्रों में निश्चित होचुके हैं, वह सब द्रव्य अरिहंत-द्रव्य तीर्थकर-द्रव्य जिन कहाते हैं। तथा जो जिन-अरिहंत तीर्थकर-पदवी को भोग कर सिद्ध हो चुके, वह सब द्रव्य जिन-अरिहंत-तीर्थकर कहाते हैं, यदि ऐसे न माना जावे तो चउव्वीसत्था ( लोगस्स) झूठा मानना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) पड़ेगा ! क्योंकि उसमें ऋषभादि महावीर पर्यंत तीर्थंकरों को नमस्कार किया जाता है, और इसी तरह साधु के प्रतिक्रमण ( पगाम सिज्झाय) में भी " नमो चउव्वीसाए तीत्थयराणं उसभाइ महावीर पज्जवसाणाणं " पाठ आता है, अब विचारना योग्य है कि वर्तमान भावनिक्षेप तो इनमें से एक भी नहीं है, सब मोक्ष को प्राप्त होगये हैं, सब में सिद्ध का भावनिक्षेप है, तो पूर्वोक्त पाठ, विना द्रव्यनिक्षेप के माने किस तरह सिद्ध होवेगा ? जब कि ऐसे ऐसे प्रत्यक्ष पाठ आगमों में आते हैं, तो भी स्थापना द्रव्यनिक्षेप में उपादान कारण रूप उत्सूत्र प्ररूपण करके लोकों को भ्रमजाल में फंसाने का उद्यम करने को निख्याल मोहनी के उदय की अधिकता दुर्भव्यता या अभव्यता का सूचक मानना प्रतिकूल नहीं मालूम होता है, क्योंकि मूर्ति का उपादान कारण पाषाण सिद्ध करने के वास्ते भगवान् का उपादान कारण अपनी कुमति प्रकट करके जो कुछ उत्सूत्र भाषण किया है, परमात्मा जाने इस बात से पार्वती ने कितना दीर्घ र बधा लिया होगा ? तटस्थ - क्या पार्वती जी का लिखा उपादान कारण ठीक नहीं है ? विवेचक - उपादान कारण का जो अर्थ लिखा है उस ही से तो भली प्रकार पार्वती की न्याय अनभिज्ञता सिद्ध होती है, भला क्यों न होवे ? जहां व्याकरण को व्याधिकरण माना जाता है गधाभास की सिद्धि भी तो वहां ही होती है ! जो अर्थ उपादान कारण का लिखा है बेशक पार्वती के गधाभास प्रकरण के बेवकूफाध्याय के अनभिज्ञ उद्देशे में लिखा होगा ! इतना भी पता पार्वती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) को नहीं है कि मैंने जो अर्थ किया है वह उपादानकारण का है अथवा निमित्तकारण का? यह हाल और फिर बड़े २ महात्मा पूर्वाचार्यों के किये अर्थों को झूम करने का उद्यम करना कसा मूखता है क्या यही पार्वती की परंपरा की रीति है ? सुनवाचकवर्ग को मालूम कराने के लिये पार्वती पंडिता की कूख से निकला उपादानकारण का अर्थ जैमा का तैसा यहां लिखा जाता है। पाठकंद ज़रा सावधान होकर इम अपूर्व अर्थ का विचार करें, तथा सम्मतिप्रशंसापत्र देनेवाले भी देखें कि देवी साहिबा ने “सयार्थचंद्रोदयजैन " में क्या लिखा है। यथा : “उत्तर पक्षी-मूर्ति का द्रव्य क्या है और भगवान का द्रव्य क्या है। पूर्व पक्षी-मूर्तिका द्रव्य जिससे मूर्ति बने क्योंकि शास्त्रों में द्रव्य उसे कहते हैं। जिससे जो चीज बने अर्थात् वस्तु के उपादान कारण को द्रव्य कहते हैं। __ उत्तर पक्षी-तो मूर्तिका द्रव्य (उपादान कारण) क्या होता है। और भगवान का प्रव्य ( उपादान कारण ) क्या होता है। पूर्व पक्षी-मूर्ति का द्रव्य (उपादान कारण) पाषाणादि होता है । और भगवान का द्रव्य (उपादान कारण) माता पिता का रज वीर्य आदिक मनुष्यरूप उदारिक शरीर होते हैं"। धन्य है !!! इस मूजिव तो पार्वती के और डंढिये साधुओं के साधुत्व का उपादानवारण पार्वती और ढुढिये साधुओं के माता पिता का रुधिर और वीर्य हुआ ! क्योंकि पार्वती और ढुंढिये माधुओं की उत्पत्ति माता पिता के रुधिर और वीर्य से हुई है, तब तो पार्वती की श्रदा और कल्पना के अनुमार उनको विषय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) सेवने का पाप कदापि नहीं होना चाहिये, प्रत्युत बढ़ा भारी - पुण्य और धर्म होना चाहिये कि जिस काम के करने से पार्वती और ढूंढिये साधु सदृश उत्तम जीव बने, क्योंकि उनके विषय सेवन से माता पिता का रुधिर और वीर्य मिलकर पार्वती और ढूंढिये साधुओं का उपादानकारण बना, जिस उपादान कारण से फिर पार्वती समान पंडिता और ढुंढिये साधु समान पंडित बने, निःसंदेह पार्वती की श्रद्धा और कल्पनानुकूल विषय सेवने वालों को खूब आनंद वन गया, विषयानंद भी लेलिया, पुण्य भी प्राप्त कर लिया, और ढूंढक साधु और साध्वी बनने वाले संतान भी बना लिये, वाह, वाह, पार्वती के समान बुद्धिवाली पंडिता जिस कुल या जाति में होवे, वह कुल. या जाति क्यों न प्रसिद्ध होवे, मालूम होता है कदाचित पार्वती की इस फिलासफी को सोचकर ही जगरांवां में ढुंढक साधु साध्वी का संमीलन हुआ होगा ॥ अरे भाई ! उपादान कारण वह होता है जो स्वयं कार्य रूप होजावे, जैसे कि घट कार्य का उपादान कारण मृत्तिका है, परंतु कुंभकार, चक्र, दंडा आदि नहीं. तात्पर्य यह है कि कार्य रूप पर्याय के पूर्व जो कारणरूप पर्याय होता है, उसका नाम उपादान कारण है, ना कि और किसी का इसवास्ते पार्वती का जो ख्याल है मत्र उजाड़ में रोना नयनों का खोना है, वस सिद्ध हुआ कि द्रव्यजिन जिनेश्वरदेव का जीव है, नाकि माता पिता का रुथिर और वीर्य ! खबर नहीं पूर्वोक्त अपूर्वज्ञान किस थेली में से पार्वती ने निकाला है, सत्य है मतांध प्राणी अनर्थ का ख्याल नहीं करता है, और वस्तु के उपादानकारण को द्रव्य कहना, यह भी पार्वती की अज्ञता का सूचक है. क्योंकि वस्तु तो आपही द्रव्य है । यथा जीव द्रव्य, अजीव द्रव्य, इनका उपादान कारण क्या कोई आकाश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com · Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.८ ) का फूल या गधे का शृङ्ग बनावेगी ? अमल बात तो यह है कि जैन शैलि के अनुसार नय निक्षेपों का ज्ञान ही पार्वती को नहीं है स्था ही अपनी टांग जानकारी में फंसाती है, देखो ! शास्त्रकार द्रव्यनिक्षेप किसको फरमाते हैं, अतीत अनागत पर्याय के कारण का नाम द्रव्य है :-" दव्वो भावस्स कारणं"। इतिश्री अनुयोगद्वार सूत्र वचनात् । इसवास्ते अरिहंत भगवंत का द्रव्यनिक्षेप उनके माता पिता के रुधिर और वीर्य को ठहराना पार्वती की मूर्खता है, और यदि अरिहंत पदवी का ख्याल किया जावे तो वह तीर्थकर नाम कर्म नामा पुणप्रकृति है । उसका उपादानकारण ज्ञातासूत्र में वर्णन किये बीस स्थानक हैं, नाकि माता पिता का रुधिर और वीर्य, और तीर्थंकर के निक्षेपवर्णन करते २ मूत्ति पर जा उतरना यह भी एक तिीरया चरित्र की चालाकी का नमूना है, इसकी बाबत प्रथम निक्षेपों के वर्णन में विस्तार पूर्वक दृष्टांत माहित लिखा गया है, उस पर विचार करने से स्वयमेव पता लग जावेगा; परंतु केवल डाकीया ( चिट्ठीरसां) वाला काम करने से कुछ भी परमार्थ नहीं मिलेगा, जैसे चिट्ठीरसां डाक की थैली लेकर ग्राम में फिरता है, (लिफाफा) में लिखा समाचार बिलकुल नहीं जान सकता है. इसीतरह गुरुगम्यता टीकादि के विना परमार्थ का मिलना अतीव कठिन है । चिट्ठी पर तो एक ही कागज का परदा पड़ा होता है परंतु सूत्र पर तो अनेक आशय रूप कागज के परदे हैं, जोकि शुद्ध आम्नाय बताने वाला मिले तब ही यथार्थ वांचे जाते हैं, अन्यथा कदापि नहीं। श्रीनदिसूत्र में फरमाया है कि:“सम्मदिछि परिग्गहियाणि मिच्छासुत्ताणि सम्मसुत्ताणि मिच्छादिछि परिग्गहियाणिसम्मसुत्ताणिमिच्छासुत्ताणि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) भावार्थ-सम्यग्दृष्टि के ग्रहण किये मिथ्यासूत्र सम्यक सूत्र हैं, और मिथ्याष्टि के ग्रहण किये सम्यक् सूत्र मिथ्यासूत्र हैं। मतलब कि सम्यग्दृष्टि गुरुगम्यता टीकादि के अनुसार नय नय की अपेक्षा परमार्थ को ग्रहण कर लेता है, इसवास्ते सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा मिथ्या शास्त्र भी सम्यक् शास्त्र हैं, और मिथ्यादृष्टि विपरीत श्रद्धावाला होने से टीकादि के अर्थ को छोड़ प्राचीन पद्धति को तोड़-अपनी मनि कल्पना का अर्थ जोड़-छिद्र ग्रहण करने की तरफ ही दृष्टि को मोड़ना है। इसवास्ते मिथ्याष्टि की ओक्षा सम्यक् शास्त्र नी मिथ्या शास्त्र हैं। सो यही बात पार्वती के किये ऊन पटांग अथों में ज्यों की त्यों पाई जाती है। इति तपगच्छाचार्य श्रीमद्विजयानन्दमूरिशिष्य महोपाध्याय श्रीमल्लक्ष्मीविजयशिष्योपाध्याय श्रीमदर्ष . विजय शिष्य श्रीमद् वल्लभविजय विरचित जैनभानु नाम्नो ग्रन्थस्य प्रथमो भागः समाप्तः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमथसे ग्राहक होनेवाले महाश्यों के नाम । सेठ हीराचंद सचेती अजमेर २०० लाला सावनमल मलेरकोटला १ । लाला नरसिंहदास बूटामल श्री आत्मानंद जैन सभा,, १ . गुजरांवाला ... २ लाला दुर्गाप्रसाद मुन्शीराम , मूलामलहुकमचंद पट्टी १ खंडेलवाल, उडमड ... २ भंडारी अनराज-सादडी ... ४ , श्रीनिवास जैनी शांकर १ ., ताराचंद , ... १ श्रीसंघ जंडीयाला ... ? जैनश्वेतांबरमित्रमंडली भूपाल-१ सेठ लाभचंद कोचर बीकानेर ४ लाला लबूराम विहारी लाल , अनदमल गुलावचंदकोचर सिरहाली बीकानेर ... ... २ , चूनीलाल मोतीलाल ., मगनलाल पुंजावत गुजरांवाला ... १ डदेपुर ... ,, मानकचंद लाहौर ... १ श्रीजैनविद्योतेजकममा पालनपुर " मुकदालाल जना पट्टा १ की मारफन (६४) नीचे मजिब मेठ सोरीमल केसरमल पाली १ श्रीजैनविद्योतेजक सभा ., चदंनमल नागौरी पालनपुर छोटीसादडी ५ ... ... . श्री जैनशाला दोसी मगन भाई लाला अरजनमल भीमामल। ककलचंद पालनपुर ५ रामनगर शा. मेताजी मंगलजी सेठ जेठालाल दसौरा,उदयपुर१ लाला पंजाबराय लुधियाना १ भाई ईश्चर भाई , , ,,उत्तमचंद पिंडीदास रावलपिंडीर , पारी तलकचंद रामचंद., ', ,, .. अमुलखभाईखूबचंद,. २ ', नंदलाल मूलचंद ,, ., पानाचंद खूबचंद ,, २ पिंडदादनखां ... १ ,, ताराचंद मालेरकोटला १ । कोठारी धर्मचन्द चेलजी की ,, पूरणचंद .. . ... १ मारफत ,, श्रीपतमल्ल ... ., ... १ वावजैनशाला वाव ... १ , भगवानदास ,, ... १ सेठ टीलचंद खेतमी ,, , दीनाराम .. ... १ पारी मरूपचंद पानाचंद ., १ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारा मगन मोतीचंद वाव १ कोठारी चमनलाल जीवराज ,, मूलकचंद जोईता ,, १ पालनपुर १ दोसी केवलरामाणी , १ मेता अमुलखगलजीभाई , १ कोरडीया परसोतमनथमल,, १ गांधी नहालचंद रायचंद, १ सेठ नरसिंग वस्ताचंद ., १ शागिरधरलाल धर्मचंद,, १ शा० त्रिभुवन गुलाबचंद , १ | शा०फोजराजत्रीभोवनदास, १ कोठारी धरमचंदचलजीपालनपुर पारी सूरजमल नहालचंद,, १ शा० मछालाल उजमचंद .. .. .. प्रमचंद वरधमान ,, १ दोसी ललाई रामचंद .. १ शा० मलूकचंद रायचंद , १ ,, नालचंद खमचंद , १ पारी प्रेमचंद केवलचंद ,, १ शाचूनीलाल उजम डंगर,, १ ला०तुलसीराम हंसराज रोपड १ गांधेि कस्तुर भाई मछाचंद,, . ला मिलखीराम धनीराम . पारी रवचंद उजमचंद . १ __ कसूर ... ... १ मेता चेला नाथुभाई , १ विशनलालकोठारी सरवार१ पारी परसोतम रवचंद ,, १ ___, सुगनचंद तातेड लश्कर १ मता वालुटोकरसी .. २ , सुगनचद कोठारी ,, १ भणसाली रवचंद रायचंद.. ., वस्तीमल कोठारी ,, १ शाजोवराज दलसुखचंद., , . . । श्रीयुत पं भैरवदानजी यति फतेपुर शा. टोकरमनजो ... ... १ .. १ कोठारी रोखवचंद उजमचंद .. १ . लालध्धुशाह जगन्नाथ नारोवाल ... ... पारी अमुलख तलकचंद , १ शा०पीयालक्ष्मीचंद परतापगढ२ २ शा० भवान छगन ... १ वरीआल चेला अमुलखभाई ,. १ । ,, गुलजारीमल सिवहरा १ ,, जोतीचंद चुनीलालपोरवाड पारी मणीलाल खुसालचंद .. १ मल्हारगढ ... ... १ मेता हीरालाल मानकचंद , रतन लाल तातेड भूपाल ५ झवरचंद ... . बाबू विसभरसहाय जैनी . १ कैराना ... ... १ -शा० गलाबचंद मगनलाल ,, १ शा. गुलाबचंद चिंतामणिदास शा० रतनचंद रामचंद . १ ढोर जौहरी जयपुर ... १ मेता कवरसींग उमदचंद ,, १ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यामली ... ... नंदलाल पारख भिलसा १ मेठ ज्वाहरलाल सकंदराबाद ५ शा० नाथूलाल-दुग ... १ ला. संतराम मंगतराम अंबाला ५.,, घेवरचंद चंदनमल ... जगतूमल सदासुख , ५ मरीकुप्यां ... ४ ., हीरालाल नौरातामल ,, ... नंदराम मोतीलाल मालवी मेठ मोभागमल हरकावत महीदपुर ... १ लश्कर ५., चिंतामणदास संजीत १ श्रीज्ञानवर्धक जनमित्र मंडल श्रीजनविद्योतेजकसभा सलाना ... ... ३] पालनपुर ... ३६ सेठ गोमाजी गंभीरचंद रतलाम १ | ला. रामचंद कपूरथला ... २ , केसरजी सूरजमल कोठारी |, रूपचंद शंभूराम जोहरी दिगठाण ... ... २ का डेरागाज़ो खां सेठ बुधुमल वल्द धूमसिंह श्राश्वतावरजनवल्लभपुस्तकालय जयपुर ... ... १ ., शिवधानमल श्यामलाल सरसा ... ... ..ला० मिट्टलाल जैना अरबसराय । ,, लक्ष्मीचंद केसरीचंद श्रीजैन आत्मानंद सभा सिवनी छप्परा ... १ । भावनगर१०० ,, हमीरमल धोका-पाली २., जैनधर्मप्रसारकसभा, १०० ला० अमीचंद जैनी पसरूर १ तारावत केशवदास न्यालचंद शा० मूलचंद वोहरा अजमेर | वनकोडा मुनि गुणमुनिजी सूरत ... १लाला प्रेमचन्द अमीचन्द शा० अखेचंद पारख मुंगेली १ सनखतरा दोसी चुनीलाल गोविंद जी नोलाल मोतीलाल गजरांवाला धालेराय ... ... . , कालुशाह कन्हैयालाल ,, १ शा० एच० एस० कोठारीजनी । " भागुशाह कुन्दनलाल , १ सैलाना .... .... १..तिलोकचन्द पलीडर लुधिहानार , खुशालजी लालाजी उपाध्याय श्रीवीरविजय जैन ___ अलीराजपुर ... ... १ श्वेतांवरी लायब्रेरी, भागरा ५ महता बखतावरचंद .न्यारेलाल सरनचंद विनौली ५. झालरा पटन ..। १) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (शुद्धिपत्र) अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति दुख्यांगे दुःखायँगे २ २ व्याख्य व्याख्या ८३ १९ हेता देता , भ्युगमो भ्युपगमो ,, २२ वर्णम् वर्णनम् ८ १६ विग्रह विग्रहः ,, २३ धीत धीषे १० २मक मेक ८४ १ भत् भूव ३ ग वान् ११ ६ मा __म ८५६ स्वाधान स्वाधीन , १० | द ण म ., १७ धी क्या तो तो क्या १४ १ हि कुहाड़ी कुदाड़ी १५ १४ | वे का ० , १६ष्ठीवभीक्त विभक्ति ना ना १७ १६|दी भाविष्य- । भविष्य-२१ ७/ 3 ना ९११८ णं ३२ २ मुचं मुंच ९५ ९ द्व , १३ चाकाक चालाक , १६ .तू ४१ ९ च तटस्थ विवेचक ४२ २४ फल फलं ऋम ऋषभ ४५. १ आवश्य अवश्य ५२१७ | च चा , १७ दीजिये ५४ ४ शस्त्र शास्त्र ,, १९ विवेचक- तटस्थ ६२ ३] की का १०१९ समुन्दर समुद्र ६४१३ ता श्रीमान् श्रीमन् ,. ११ प १०३२२ . की के ६६ २२ , २४ ७१२२ कसा कैसी १०६३ बड़ा १०७१ श्च ܀ ܘܲܘܕ । ढीजये A our ' og to ' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EDOM ॥ॐ॥ पुस्तक मिलने का पता. (1) जसवंतराय जैनी. लाहौर (पंजाब) (2) श्री जैन आत्मानंद सभा. भावनगर (काठीयावाड़) (३),श्री जैनधर्मप्रसारकसभा. भावनगर (काठीयावाड़) (1) श्रीआत्मानंद पुस्तक प्रचार मंडल छोटा दरीबा-दिल्ली Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com