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निबंध
उपोद्घात। माणि को शुद्धधर्म की प्राप्ति और उस पर शुदश्रदान का पाना अतीव कठिन है, दो पैसे का मट्टी का वासन (वर्तन) खरीदना हो तो लोग परीक्षा पूर्वक खूब ठोक बजा कर खरीदते हैं, परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि धर्म रूपी अमूल्य रत्न के खरी. दने समय परीक्षा नहीं की जाती, वह रत्न भी कैसा ? जो भवातरों में मुख देनेवाला है, इसलिये सर्व साधारण के हितार्थ निवेदन है कि यदि आप को आत्मकल्याण की इच्छा है तो परीक्षा पूर्वक शुद्धधर्म को अङ्गीकार कर उसका पालन करें।
काल के प्रभाव से अनेक प्रकार के पाखण्ड मत प्रचलित हो गये और हो रहे हैं ॥ जैनमत की दो बड़ी शाखायें प्रसिद्ध हैं, । १. शेताम्बर, २ दिगम्बर, दोनों ही मूर्तिको मानते हैं, जो जैनियों का मूल सिद्धान्त है ॥
मूर्तिउत्थापक लुकागच्छ के बजरंग जी यति का शिष्य लवजी नाम शिष्य हुआ, उस लवजी ने अपने गुरु से परामः मुख हो दो और को अपने साथ ले विना गुरु धारे दीक्षा ली
और मुंह पर कपड़े की पट्टी वान्धी अर्थात सतारवें सैके में मूर्तिउत्थापक मुंहबन्धा पन्थ निकाला, जो ढूंढक, साधमार्गी और स्थानकवासी वगैरह नामों से आजकल पुकारा जाता है। ___यद्यपि इस पन्थवाले अपने आप को जैनमतानुगत की प्रगट करते हैं परन्तु वास्तव में वह न जैन हैं और न जैन को शाखा, बलकि जैनाभास हैं; क्योंकि इनका आचार व्यार वेष श्रद्धा और प्ररूपना सर्वथा जैनमत से विपरीत और निराली है जिनका विस्तार पूर्वक वर्णन करना हम उचित नहीं समझते
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