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जैन भानुः "नमोर्हत्सिद्याचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः” ऐंद्रश्रेणिनता प्रतापभवनं भव्यांगिनेत्रामृतं सिद्धांतोपनिषद्विचारचतुरैः प्रीत्या प्रमाणीकृता मूर्तिः स्फूर्तिमती सदा विजयते जैनेश्वरी विस्फुरन् मोहोन्मादघन प्रमादमदिरामत्तैरनालोकिता। १ । देवान् गुरून्नमस्कृत्य स्मृत्वा देवी सरस्वतीम् प्रत्युत्तरं ददे किञ्चित् हुँढकानां हिताय वै ॥१॥
विदित हो कि इस दुषमार पंचमकाल महाविकराल में प्रायः जहां देखो हाल बेहाल होरहा है, प्रयेक वस्तु की प्रायः हानि होती जाती है, जो कि कहने में नहीं आती है
पंचकल्प भाष्य में तथादुषमारे के अर्थात् पांचवें अरे के स्वाध्याय में फरमाया है कि-पंचमकाल में प्रायः पाणी बहुत दुःखी होवेंगे, नगर ग्राम समान होवेंगे, ग्राम मरघट (उमसान) समान होवेंगे पूर्ण ज्ञान और ज्ञानी नहीं होवेगा, मुक्ति भरतक्षेत्र में कोई नहीं पावेगा, वीतराग के वचन के उत्थापंक मन कल्पित पंथ के संस्थापक, कुमति जन बहुत होवेंगे, जो कदाग्रह के वश से अपने वचन का स्थापन, और शास्त्रवचन का उत्थापन करेंगे, धर्म के रस्त के तोड़नेवाले, पाखंड के जोड़नेवाले, ससार्थ के मेटनेवाले, अससार्थ की शय्या में लेटनेवाले, आगमशाखा के मेटक, दुराचारिणी की तरह चेटक के करने वाले अति होवेगे, चोर चरट अपने
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