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“यद्यपि बहु नाधीतं तथापि पठ पुत्र व्याकरणम् । स्वजनः श्वजनो मा भूत् सकृत् शकृत् सकलं शकलम्” ॥
और इसी बात के लिये श्रीमनव्याकरणादि सूत्रों में व्याकरण के पढ़ने की आज्ञा शास्त्रकार ने फरमाई है, ऋषिराज नामा ढुंढक साधु ने भी सखार्थ सागर के ३ पृष्टोपरि लिखा है कि- " अब पूर्ण शुद्ध शब्द शास्त्रार्थ तो समझने आता ही नहीं बुद्धि तुच्छ प्रश्न समुद्र सरीखे गंभीर बुद्धि विना कैसे समझे जाय इस वास्ते साधु श्रावकों को विद्या वा शास्त्रार्थ का जाणपणा चाहो तो व्याकर्ण तथा संस्कृत ग्रंथादि पढ़कर अनेक अपेक्षा से गुरु महाराज के उपदेश से देखो तव न्यायवंत होकर शुद्धमार्ग मुक्ति का समझो और प्रश्नव्याकर्ण सूत्र वा अनुयोगद्वारसूत्र में व्याकर्ण सूत्र पढ़ने की आज्ञा है"
और कितने ही वालावबोध और टब्बे की आदि में या अंत में साफ साफ लिखा हुआ होता है कि यह अर्थ हमने टीका के अनुसार लिखा है, इत्यादि ॥ जैसे कि श्री अनुयोगद्वारसूत्र के बालाववोधकी समाप्ति में बालावबोध के कर्त्ता ने लिखा है कि- श्रीजीवर्षि के चरण कमल में भ्रमण समान शोभर्षि के शिष्य माहन ने यह अनुयोगद्वार सिद्धांत का बालावबोध बनाया, तथा सर्व अर्थ यहां मैंने टीका में लिखा देख कर लिखा है, परन्तु अपनी बुद्धि से स्वल्प मात्र भी नहीं लिखा है, तो भी इसमें यदि कोई असस लेख लिखा गया होवे तो बुद्धिमानों को शुद्ध कर लेना योग्य है ।
तथाच तत्पाठः - श्री जीवर्षिक्रमांभोजमधुलिहा शोभर्षि दीक्षितेन माहननाम्ना विरचितोयमनुयोग
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