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( २६ ) माई है । तथाहि :
"तिण्हं सद्दणयाणमित्यादि शब्दप्रधाना नयाः शब्दनया शब्दसमभिरूद्वैवंभूतास्ते हि शब्दमेवप्रधानमिच्छंतीत्यर्थं तु गौणं शब्दवशेनैवार्थ प्रतीतेस्त्रयाणां शब्दनयानांज्ञायकोथ चानुपयुक्त इत्येतदवस्तु न संभवतीदमित्यर्थः। कम्हति कस्मादेवमुच्यते इत्याह । यदि ज्ञायकस्तयनुपयुक्तो न भवति ज्ञानस्योपयोगरूपत्वादिदमत्र हृदयं। आवश्यकशास्त्रज्ञस्तत्रचानुपयुक्त आ गमतो द्रव्यावश्यकमिति प्राक् निर्णीतमेवं चामी न प्रतिपद्यन्ते यतो यद्यावश्यकशास्त्रं जानाति कथमनुपयुक्तोनुपयुक्तश्चेत् कथं जानाति ज्ञानस्योपयोगरूपत्वात्"।
और शास्त्र अनुयोगद्वार भी शब्दनय की अपेक्षा अवस्तु फरमाता है, अर्थनय की अपेक्षा नहीं, " तिण्हं सदनयाणमिति वचनात् " इसलिये द्रव्यनिक्षेप को सर्वथा अवस्तु मानना जैनशैली से बाहिर होना है, यदि शास्त्रकारका सर्वथा ही द्रव्यनिक्षेप को अवस्तु फरमाने का अभिप्राय होता तो श्रीपनवणाजी सूत्रादि सूत्रों में पंदरह भेद सिद्ध के प्रतिपादन करने की क्या जरूरत थी ? भाव की अपेक्षा तो सब एक ही समान हैं फिर स्वलिंगसिद्ध अन्यलिंगसिद्ध, इत्यादि भेद से शास्त्रकार भावातिरिक्त कोई अन्य वस्तु फरमाते हैं या नहीं ? यदि फरमाते हैं तो द्रव्य का सर्वदा अवस्तु प्रतिपादन करना अपने ही हाथों से अपना मुंह काला करने
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