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( १४ ) एक पार्वती क्या तो सब ढूंढक जैनमत से बिलकुल अनभिज्ञ हैं और ऐसी दशा में यदि ढूंढक लोक अर्थ का अनर्थ करें तो इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है।
यतः-एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेकः तदाद्भिखे सह संगमनं द्वितीयम् । एतद्वयं यदि न यस्य स तत्वतोंधस्तस्यापमार्गचलने खलु कोपराधः ॥१॥
और इसीवास्ते खास करके ऐसे मनुष्यों के लिये हमारी हितशिक्षा नहीं है, क्योंकि जिसकी जो आदत पड़ जाती है, प्रायः वह उपदेश द्वारा हटानी कठिन होती हैं, पानी को कितना ही गरम किया जावे परन्तु आखिर में फिर ठण्डा ही होजाता है, यतः
स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा। सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ॥ १ ॥
अथवायो हि यस्य स्वभावोस्ति स तस्य दुरतिक्रमः। श्वा यदि क्रियते राजा किंन अत्ति उपानहम् ॥१ ___ भावार्थ-जो जिसका स्वभाव पड़ जाता है दूर होना कठिन होता है, यदि कुत्ते को राजा बना दिया तो क्या वह जूती नहीं खाता है ? कुत्ते की दुम को चाहे बारह वर्ष नलकी में रक्खें फिर टेढ़ी की टेढ़ी, तथापि भव्य जीवों का ख्याल करके यह प्रयास फलीभूत समझा जाता है, और यदि किसी सत्यगवेपी को गुणकारी होजावे तो इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं ? पार्वती की अण्ड वण्ड मनःकल्पित फांसी में फंसने से
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