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सक्रियावान् " जो क्रिया वाला सो पंडित, जो पंडित सो क्रियावाला “भवति" क्रिया का दोनों स्थान में अध्याहार होता है । तात्पर्य यह कि न केवल ज्ञान, और न केवल क्रिया, किन्तु ज्ञानक्रियायुक्त पंडित होता है, और इसीवास्ते चतुर्दश पूर्वधारी श्रीभद्रबाहु स्वामी जी श्री आवश्यक सूत्रनिर्युक्त में फरमाते हैं कि
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हयं णाणं किया हीणं हया अण्णा णओ किया पातो पांगुली दड्ढो धावमाणो य आंधलो तथा - संजोग सिद्धिइ फल वयंति नहु एग चक्केणहंपयायइ 'अंधोय पंगू यवणे समिच्चा ते संपउत्ता नगरे पविद्या”
इत्यादि तथा और भी पूर्व महर्षियोंने “ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः । फरमाया है, तो भी यदि अपना हठ नहीं त्यागे गी तो खोटी क्रिया करने वाले भी पार्वती को पंडित मानने पड़ेगें, ग्रथिल ( सौदाइ पागल) भी पंडित हो जायेंगे ! इसलिये पार्वती का किया अर्थ पूर्ण नहीं है ! और क्रियावान् को पंडित मानना, सो क्रिया भी शास्त्राधार होनी चाहिये, मनःकल्पित नहीं, परंतु ढुंढकपंथ में तो प्रायः बहुत क्रिया मनःकल्पित ही चलती हैं ! यथा-दीक्षा, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, योगोद्वहन, संथारा, श्राद्धद्वादशवतोच्चरण, श्राद्धप्रतिक्रमण, पौषध, सामायिक, इत्यादि क्रिया जिस विधि ढुंढक लोग करते हैं ढुंढक के माने शास्त्रों में से किसी भी शस्त्र में नहीं है बलकि किसी भी जैनशास्त्र में नहीं है, और इनीवास्ते पार्वती ने केवल क्रियावाले को पंडित बनाना चाहा है, परंतु वह तो हंस की पंक्ति में बगले के समान जिस समय वचन उच्चारण करेगा मूर्ख प्रगट हो जावेगा, अतः सिद्ध हुआ कि शास्त्रानुसार क्रियावान्
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