Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 116
________________ ( १०६ ) को नहीं है कि मैंने जो अर्थ किया है वह उपादानकारण का है अथवा निमित्तकारण का? यह हाल और फिर बड़े २ महात्मा पूर्वाचार्यों के किये अर्थों को झूम करने का उद्यम करना कसा मूखता है क्या यही पार्वती की परंपरा की रीति है ? सुनवाचकवर्ग को मालूम कराने के लिये पार्वती पंडिता की कूख से निकला उपादानकारण का अर्थ जैमा का तैसा यहां लिखा जाता है। पाठकंद ज़रा सावधान होकर इम अपूर्व अर्थ का विचार करें, तथा सम्मतिप्रशंसापत्र देनेवाले भी देखें कि देवी साहिबा ने “सयार्थचंद्रोदयजैन " में क्या लिखा है। यथा : “उत्तर पक्षी-मूर्ति का द्रव्य क्या है और भगवान का द्रव्य क्या है। पूर्व पक्षी-मूर्तिका द्रव्य जिससे मूर्ति बने क्योंकि शास्त्रों में द्रव्य उसे कहते हैं। जिससे जो चीज बने अर्थात् वस्तु के उपादान कारण को द्रव्य कहते हैं। __ उत्तर पक्षी-तो मूर्तिका द्रव्य (उपादान कारण) क्या होता है। और भगवान का प्रव्य ( उपादान कारण ) क्या होता है। पूर्व पक्षी-मूर्ति का द्रव्य (उपादान कारण) पाषाणादि होता है । और भगवान का द्रव्य (उपादान कारण) माता पिता का रज वीर्य आदिक मनुष्यरूप उदारिक शरीर होते हैं"। धन्य है !!! इस मूजिव तो पार्वती के और डंढिये साधुओं के साधुत्व का उपादानवारण पार्वती और ढुढिये साधुओं के माता पिता का रुधिर और वीर्य हुआ ! क्योंकि पार्वती और ढुंढिये माधुओं की उत्पत्ति माता पिता के रुधिर और वीर्य से हुई है, तब तो पार्वती की श्रदा और कल्पना के अनुमार उनको विषय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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