Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 114
________________ ( १०४ ) जैनशास्त्र में इस रीति का लेख दिखा देवे, अन्यथा पार्वती आप ही अपनी कल्पना से झूठी होचुकी है, ज़रा आंखों के आगे से पक्षपात का परदा हटाकर देख लेवे कि-पूर्वाचार्य क्या फरमाते हैं तथाहि :नामजिणा जिणनामा । ठवणजिणा पुण जिणंदपडिमाओ॥ दवजिणा जिणजीवा। भावजिणा समवसरणत्था ॥१॥ भावार्थ-जिनेश्वरदेव का नाम सो नामजिन । जिनेश्वरदेव की प्रतिमा स्थापनाजिन । जिनेश्वरदेव का जीव द्रव्यजिन । और समवसरण में विराजमान भावजिन । जिसका नाम उसी की स्थापना, उसी का द्रव्य और उसी का भाव, इस प्रकार चारों निक्षेप का समवतार होता है . श्रीभगवती सूत्रादि जैनागमों में " भवियदव्वदेव भवियदब्ब मनुअ" इत्यादि स्थल में जिस गति का बंध पड़ा होवे उस गति का द्रव्य मानना फरमाय, है, अर्थात् मनुष्यगति में विद्यमान है, परंतु देवगति का आयुष्यदल बांध लिया है, तो उसको द्रव्यदेव कहना, इसी तरह सब गति की अतीत अनागत पर्यायापेक्षा से उस २ गोत का द्रव्य उस २ जीव को मानना, जैसे जो आगे को होने वाले अरिहंत तीर्थंकर शास्त्रों में निश्चित होचुके हैं, वह सब द्रव्य अरिहंत-द्रव्य तीर्थकर-द्रव्य जिन कहाते हैं। तथा जो जिन-अरिहंत तीर्थकर-पदवी को भोग कर सिद्ध हो चुके, वह सब द्रव्य जिन-अरिहंत-तीर्थकर कहाते हैं, यदि ऐसे न माना जावे तो चउव्वीसत्था ( लोगस्स) झूठा मानना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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