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कि बंध " जाजरू " अधिक दुर्गंधयुक्त और खुला हुआ न्यून दुर्गंधयुक्त होता है वैसे ही मुखपट्टी बांधने, दंतधावन, मुखप्रक्षालन, और स्नान न करने तथा वस्त्र न धोने से तुम्हारे शरीरों से अधिक दुर्गंध उत्पन्न होकर संसार में बहुत रोग करके जीवों को जितनी पीड़ा पहुंचाते हैं उतना ही पाप तुमको अधिक होता है जैसे मेले आदि में अधिक दुर्गंध होने से "विसूचिका " अर्थात् हैजा आदि बहुत प्रकार के रोग उत्पन्न होकर जीवों को दुःखदायक होते हैं और न्यून दुर्गंध होने से रोग भी न्यून होकर जीवों को बहुत दुःख नहीं पहुंचता इससे तुम अधिक दुर्गंध बढ़ाने में अधिक अपराधी और जो मुखपट्टी नहीं बांधते, दंतधावन, मुखप्रक्षालन, स्नान करके स्थान वस्त्रों को शुद्ध रखते हैं वे तुमसे बहुत अच्छे हैं । जैसे अत्यजों की दुर्गंध के सहवास से पृथक रहने वाले बहुत अच्छे हैं। जैसे अत्यजों की दुर्गंध के सहवास से निर्मल बुद्धि नहीं होती वैसे तुम और तुम्हारे संगियों की भी बुद्धि नहीं बढ़ती, जैसे रोग की अधिकता और बुद्धि के स्वल्प होने से धर्मानुष्ठान की बाधा होती है वैसे ही दुर्गंधयुक्त तुम्हारा और तुम्हारे संगियों का भी वर्तमान होता होगा " ॥ इत्यादि :
इसलिये अब स्वामी श्री दयानंद सरस्वतीजी का लिखना पार्वती मान लेवे अन्यथा कान पकड़ लेवे कि आगे को ऐसा काम न करूंगी ! भूल गई ! आप क्षमा करें !
तत्य-पूर्वोक्त विषय में तो केवल
पार्वती जी ने अपनी अज्ञानता ही प्रकट की है अन्य कुछ भी नहीं, क्योंकि पार्वती जी ने स्वामी जी के नाम से पूर्वोक्त वर्णन किया है तो क्या स्वामी जी मूर्ख शब्द को संस्कृत नहीं जानते थे भाषा जानते थे ? जो
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