Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 107
________________ ( 20 ) की खांड खिलाने वाली चतुराई पर ! "ज्ञानसहिता क्रिया फलवती" तटस्थ - पार्वतीजी ने सूयगडांग सूत्र की गाथा लिखी है सो कैसे है ? 66. विवेचक - अजी क्या पूछते हो? यह भी पार्वती की अज्ञानता की निशानी है, क्योंकि वहां तो साधुके आचार धर्म का कथन और क्रिया की प्राधान्यता बतलाई है, परंतु पढ़ने का निषेध नहीं किया. है, प्रत्युत पढ़ने की शिक्षा ( हदायत ) पाई जाती है, पढ़ा न होवेगा तो शुद्धधर्म क्या पार्वती का कपाल सुनावेगा ? वहां तो मतलब ही और है, परंतु हठधर्म के प्रताप से हठधर्मीयों को और का और ही दिखाई देता है, ज़रा अनुयोगद्वार सूत्र, ठाणांग सूत्रका'सक्कया पायया चेव" इत्यादि गाथा का अर्थ विचार लेती, तो क्यों हंसी होती, इसमें साफ लिखा है कि संस्कृत और प्राकृत दो प्रकार की भाषा मंडल में ग्रहण करके बोलने वाले साधुकी भाषा प्रशस्थ है ॥ तथा श्री उववाइय सूत्र में जहां गणधर महाराज का वर्णन है वहां लिखा है कि गणधर महाराज सव्वक्खरसन्निव। यसव्वभासाणुगामिणों " सर्व अक्षरों के सन्निपात ( जोड ) और सर्व भाषा के जानकार होते हैं । श्री राजप्रनीय सूत्र में भी इसी प्रकार का पाठ है। श्री दशवैकालिक सूत्र में लिखा है " पढमं णाणं तओ दया " पहिले ज्ञान और पीछे दया इत्यादि पाठों से ज्ञान की प्राधान्यता होने पर भी एकांत एक बात को खींच लेना यही तो मिथ्यात्व है ! परन्तु शास्त्रों के परम रहस्य को अज्ञ ढूंढिये क्या जानें ? गंभीर धुरंधर - पंडित जैनाचार्य ही जानते थे, और जानते हैं । इसीवास्ते श्रीअनुयोगद्वार 66 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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