Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 111
________________ ( १०१ ) पीडत होता है, परंतु शास्त्र विना मनःकल्पित क्रिया करने वाले ढुंढिये कदापि पंडित नहीं हो सकते हैं ! जो शास्त्रानुसार क्रिया न करे, केवल क्रियावाला होवे यदि उसको पंडित माना जावे तो तामलितापस, जमालि, गोशाला प्रमुख सब को पंडित मानना पड़ेगा, क्योंकि जैसी उग्र क्रिया इन्होंने की है समग्र दुढिये मिल जावें तो भी एक की बराबरी नहीं हो सकेगी, विचारो कि ऐसे. क्रियावाले थे तो भी शास्त्रकारों ने इनको पंडित नहीं कहा है सो क्या बात है ? “प्रशंसापत्रदाता की पांडित्यता" पृष्ठ २८ से पृष्ठ ६७ तक जो कुछ आल जाल लिख मारा है नि केवल अवलाक्रीडा ही है, इस से अधिक फल कुछ भी नहीं । हां बेशक ! जो लोग आंख के अंधे, गांठ के पूरे, मतलब के यार हैं, वह प्रशंसापत्र प्रदानवत् मनमाना संकल्प विकल्प करें! देवी, आचार्या, पंडिता, बालब्रह्मचारिणी मरज़ी में आवे सो कहें उनका इखतायार है परंतु प्रशंसापत्र देनेवालोंने थोड़ासा भी ग्रंथ अवलोकन किया मालूम नहीं देता है, केवल किसी की दाक्षिण्यता से या अन्य किसी कारण से प्रशंसापत्र लिख दिया है, यदि ऐसे न होता तो-शास्त्री, बी०ए, प्रोफैमर, पंडित, गोस्वामी, योगीश्वर इत्यादि उपाधिधारक विद्वान्पुरुष सम्मति देने के समय जरूर ही सोचते कि पार्वती देवी की बनाई थोथी पोथी का " सत्यार्थचंद्रोदय जैन " यह नाम संस्कृत के नियमानुसार है या नहीं ? जब इतना भी पंडितों ने संशोधन नहीं किया, प्रत्युत मक्षिका स्थाने मक्षिकावत् वही नाम पीटा है, और लिख मारा है कि हमने समग्र पुस्तक देखा है ! तो इससे क्या बना ? हां बेशक ! जिल्द Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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