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ही नहीं सकता है तो परमार्थ का समझना कैसे हो सकता है ? इस वास्ते विद्याध्ययन करना अतीव जरूरी हैं ॥ तथा राजनीति का नाम लेकर
" पठकः पाठकश्चैव ये चान्ये शास्त्रचिंतकाः सर्वे व्यसनिनो मूर्खा यः क्रियावान् स पंडितः "
इस श्लोक का जो कुछ मतलब घसीटा है उस में सत्यता लेशमात्र भी सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि ज्ञान का अनादर करके एकांत क्रिया का आदर किया है, परंतु इस श्लोक का परमार्थ तो यह है कि- ज्ञान क्रिया सहित होवे, और क्रिया ज्ञान सहित होवे तो यथार्थ फल प्राप्त होता है, क्योंकि “ यः क्रियावान् स पंडितः इस पदका शब्दार्थ " जो क्रियावाला सो पंडित " इतना ही मात्र होता है, अब बात विचारने योग्य है कि किस प्रकार की क्रियावाला होना चाहिये ? जगत् में जितने फेल ( काम करनें ) हैं सब क्रिया हैं तब तो द्यूतक्रियावाले को, विषयाक्रयावाले को, हननक्रिया वाले इत्यादि सब को पार्वती के किये अर्थ अनुसार पंडित कहना चाहिये ! क्योंकि जो क्रियावाला सो पंडित है ऐसा पार्वती का मानना है, परंतु विद्वान पुरुष तो पंडित शब्द की अपेक्षा शीघ्र ही परमार्थ निकाल लेवेगा कि ज्ञानसहित क्रिया वाला अर्थात् शास्त्राधार क्रियावाला पंडित होता है क्योंकि "पंडा तत्त्वानुगा बुद्धि: - तत्त्रमनुगच्छतीति तत्त्वानुगा-सा पंडा (तत्त्वानुगा बुद्धिः ) जातः अस्य - जातार्थे इतः - स पंडितः " पंडित शब्द इस रीति से सिद्ध होता है, जब तत्त्वग्रहण करने की बुद्धि वाला पंडित कहाता है तो क्या वह ज्ञानरहित ही होगा ? कदापि नहीं, इस वास्ते चतुर्थ पद यः क्रियावान् स पंडितः “
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