Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 98
________________ (६८) प्रथमादिविभक्तयतं नामैवगृह्यते तथाष्टीवभीक्तभदादष्टीवध च भवति न च प्रथमादि विभक्तयंतनामाष्टकमंतरणापरं नामास्त्यतो नामाष्टकेन सर्वस्य वस्तुनोभिधानद्वारेण संग्रहादष्टनामेदमुच्यते इति भावार्थः ॥ (४) इसी प्रकार श्रीस्थानांग मूत्रके अष्टमस्थान में विभक्तिस्वरूप प्रतिपादन किया है : ५-तथा और भी श्रीअनुयोगद्वार सूत्र का पाठ पढ़ो और विचार करो कि जिसको व्याकरण का बोध न होगा वह सूत्रपाठोक्त समास तश्चित धातु निरुक्त संबंधि नाम का ज्ञान प्राप्त कर सकेगा ? कदापि नहीं,क्यूंकि विना शब्दशास्त्र के बोधके समासादि का ज्ञान कदापि नहीं होसकता है और समासादि के ज्ञान विना समासादिक से उत्पन्न हुए नामादिका ज्ञान नहीं होसकता-तथाच तत्पाठः ॥ भावपमाणे चउबिहे पण्णते। तंजहा । समासिए तद्धितए धाउए निरुत्तए सेकिंतं समासिए २ सत्त समासा भवंति-तंजहा-दंदेअ बहुव्वीही कम्मधारए दिगुअ तप्पुरिसे अव्वईभावे एकसेसे अ सत्तमे । से किंतं दंदे दंदे दंताश्च ओष्ठौ च दंतौष्ठं स्तनौ च उदरंच स्तनादरं वस्त्रं च पात्रं च वस्त्रपात्रं अश्वश्व महिषश्च अश्वमाहिषं अहिश्च नकुलश्च अहिनकुलं सेतं दंदे सेकिंतं बहुब्बीही समासे २ फुल्ला इमंमि गिरिमि कुडयकयंबा सो इमो गिरी फुल्लियकुड यकयंबो सेतं बहुब्बीही समासे । सेकिंतं कम्मधारए २ धवलो वसहो धवलवसहो किण्हो मियो किण्हमियो सेतो पडो सेत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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