Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 71
________________ की बाबत हम अपने अमूल्य समय को वृथा व्यय करना ठीक नहीं समझते हैं जैसे कि बीस पृष्ठ पर्यंत निक्षेप संबंधी जो जो कल्पना की है, शास्त्रानुसार बिलकुल ही नहीं हैं ? यदि जैनशैली के अनुमार हैं तो जैसे हमने पूर्वपि प्रणीत संस्कृत पाकृत पाठ दिखाये हैं, पार्वती को भी तदत् अपने किये अर्थ की मत्यता के लिये पूर्षि महात्माओं के किये अर्थ संस्कृत माकृत में दिखाने चाहिये, अन्यथा पार्वती के मनोपोटत अर्थ का मर्दन तो कर ही दिया है। तटस्थ-पृष्ठ २१ पर पार्वती ने लिखा है कि, “ आत्माराम तो विचारा संस्कृत पढ़ा हुआ था ही नहीं, क्योंकि संवत् १९३७ में हमारा चतुर्मास लाहौर में था वहां डाकुरदास भावड़ा गुजरांवालनगर वाले ने आत्माराम और दयानन्द सरस्वती के पत्रिका द्वारा प्रश्नोत्तर होते थे उनमें से कई पत्रिका हमको भी दिखाई थीं देखो आत्माराम जी कैसे प्रश्नोत्तर करते हैं तो उन में एक चिट्ठी दयानन्द वाली में लिखा हुआ था कि आत्माराम जी को भाषा भी लिखना नहीं आती है जो मूर्ख को मूर्ष लिखता है " इत्यादि। अरी क्या तुझ पंडितानी को ऐती बात लिखती हुई शरम भी • नहीं आती है ? जो एक तुच्छ होकर ऐसे बड़े महात्मा के विषय में कल्पित शब्द वर्णन करती है, और अपने आपको " हमाराहमको" इत्यादि बड़ाइके शब्दों में लिखती है, ला दिखला, मूर्खको मूर्ष कहां लिखा है ? या यूंही गप्पाष्टक ही चलाना जानती है ? ले देख, तुही पंडितानी बनकर अपनी ज्ञानदीपिका के पृष्ठ ३१ पंक्ति १३ तथा १६ पर "अभिलाषी" को " अभिलाखी " लिखती है, क्यों ? संतोष हुआ कि नहीं? ले और भी अपनी अशुद्धि देख, पृष्ठ ९१ पंक्ति १६ पर "परिग्रह" को "प्रग्रह" लिखती है, बस एतावन्मात्रेस ही विद्वान पुरुषों की सभा में तेरी अयोग्यता विदित होगई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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