Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 74
________________ तथा पूर्वोक्त साहिब बहादुर ने संस्कृत में भी तारीफ लिखी है-तथाहिदुराग्रहध्वांतविभेदभानो, हितोपदेशामृतसिंधुचित्त । संदेहसंदोहनिरासकारिन्,जिनोक्तधर्मस्यधुरंधरोसि॥? अज्ञानतिमिरभास्कर-मज्ञाननिवृत्तये सहृदयानाम् । आहेततत्वादर्श ग्रथमपरमपि भवानकृत ॥२॥ आनंदविजय श्रीमन्नात्माराम महामुने । मदीय निखिल प्रश्न व्याख्यातः शास्त्रपारग॥३ कृतज्ञताचिन्हमिदं ग्रंथसंस्करणं कृतिन् । यत्नसंपादित तुभ्यं श्रद्धयोत्सृज्यते मया ॥ ४ ॥ कोलकातायाम् २२ आपल सन् १८९० । तरजुमा-( १) हे दुराग्रह रूप अंधेरे को दूर करने में सूरज समान ! हे हितोपदेश रूप अमृतके समुन्दर में चित्त स्थापन करने वाले! हे सन्देह के समुहों को दूर करने वाले ! आप जिनोक्त अष्टादश दूषण रहित सर्वज्ञप्रणीत धर्म के धुरंधर हैं (२) आपने सज्जन पुरुषों के अज्ञान की निति निमित्त अज्ञानतिमिरभास्कर और आर्हततत्वादर्श (जैनतत्वादर्श ) ग्रन्थ बनाये हैं (३) हे आनन्दविजय : हे श्रीमान् ! हे आत्माराम ! हे महामुने ! हे मेरे सम्पूर्ण प्रश्नोंके उत्तर देनेवाले ! हे शास्त्रों के पारगामी! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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