________________
( ६७ )
योगजीवानंदस्वामी परमहंसका प्रदक्षिण त्रय पूर्वक क्षमा प्रार्थनमेतत् । भगवन् व्याकरणादि नाना शास्त्रों के अध्ययनाध्यापन द्वारा वेदमत गले में बांध मैं अनेक राजा प्रजा के सभा विजय करे देखा व्यर्थ मगज मारना है । इतना ही फल साधनांश होता है कि राजे लोग जानते समझते हैं फलाना पुरुष बड़ा भारी विद्वान् है परंतु आत्मा को क्या लाभ होसकता देखा तो कुछ भी नहीं । आज प्रसंगवस रेलगाडी से उतर के बठिंडा राधाकृश्नमंदिर में बहुत दूर से आनके डेरा किया था सो एक जैन शिष्य के हाथ दो पुस्तक देखे तो जो लोग ( दो चार अच्छे विद्वान् जो मुझ से मिलने आये ) थे कहने लगे कि ये नास्तिक (जैन) ग्रंथ हैं इसे नहीं देखना चाहिये अंत उनका मूर्खपणा उनके गले उतार के निरपेक्षबुद्धि के द्वारा विचार पूर्वक जो देखा तो वो लेख इतना सत्य व निष्पक्षपाती दीख पड़ा कि मानो एक जगत् छोड के दूसरे जगत् में आन खडा हो गया ॥
ओ आबाल्यकाल आज ७० वर्ष से जो कुछ अध्ययन काल व वैदिकधर्म बांधे फिरा सो व्यर्थसा मालूम होने लगा जैनतत्त्वादर्श व अज्ञानतिमिरभास्कर इन दोनों ग्रंथों को तमाम रात्रिं दिव मनन करता बैठा व ग्रंथकार की प्रशंसा वखानता बठिंडे में बैठा हूं इत्यादि" ।
जिन महात्मा की बाबत बड़े बड़े विद्वानों का ऐसा ख्याल है उनकी बाबत तेरा कहना तो ऐसा है जैसा कि चांद के ऊपर थूकना है ! सत्य है विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जनपीरश्रमम् । न हि बंध्या विजानाति गुर्वी प्रसववेदनाम् ||१|| भावार्थ - विद्वान पुरुष के परिश्रम को विद्वान् हीं जानता है मूर्ख नहीं, जैसेकि पुत्रजन्म का दुःख वांझ नहीं जानती है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com