Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 76
________________ ( ६६ ) CAI.CCTTA, 14th September, 1888. MY DEAR SIR, I am very much obliged to you for your kind letter of the 4th instant ; also to Muni Atmaramji for his very full replies. Please convey to the latter the expression of my thanks for the great trouble he has taken to reply so promptly and so fully to my questions. His answers are very satisfactory ; and I shall refer t) them in my forthcomingand express publicly my obligations to the Muni for his kindness. भावार्थ-मैं आपके चार तारीख के कृपापत्र का तथा मुनि आत्मारामजी के संपूर्ण उत्तरों का बहुत अहसानमंद हूं, मुनि जी ने मेरे प्रश्नों के उत्तर इतनी जल्दी और विस्तार पूर्वक देने में जो परिश्रम उठाया है उसका धन्यवाद कृपया उनसे निवेदन करें, उनके उत्तर अतीव संतोषकारक हैं, और मुनि जी की बाबत मैं अग्रिम........में निवेदन करूंगा और उनकी कृपा का धन्यवाद सर्व साधारण में प्रगट करूंगा। इत्यादि अंग्रेज विद्वानों का जिनकी बाबत ऐसा उत्तम अभिप्राय है, जिनके किये जैनतत्त्वादर्शादि ग्रंथ उनकी विद्वत्ता ज़ाहिर कर रहे हैं, जिनके बनाये ग्रंथों की बाबत बडे बडे पंडित लोक अपना उच्चमत ज़ाहिर करते हैं, तो क्या तेरे लिखने से उनकी पांडित्यता में कुछ न्यूनता हो सकती है ? कदापि नहीं । ले देख, महात्मा योगजीवानंद स्वामी अपने हस्त लिखित पत्र में ऐसे लिखतेहैं। स्वस्ति श्रीमजैनेंद्रचरणकमलमधुपायितमनस्क श्री ल श्रीयुक्त परिव्राजकाचार्य परम धर्मप्रतिपालक श्रीआत्माराम जी तपगच्छीय श्रीमन्मुनिराज बुद्धिविजयशिष्य श्रीमुखजी को परिव्राजक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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