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( ५४ ) निसीहि आए अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि अहो कायं काय संफास खमणिज्जो भे किलामो इत्यादि"
भावार्थ-मैं इच्छा करता हूं. हे क्षमाश्रमण ! वंदना करने को यथाशक्ति और काम का निषेध करके, आज्ञा दीजये मुझे मर्यादा सहित अवग्रह में आनेकी, इस ठिकाने गुरुकी आज्ञा पाकर अवग्रह में निसीहि पढ़ता हुआ प्रवेश करे, पीछे आवर्त हस्त को प्रदक्षिणा रूप फिराता हुआ "अहो कायं काय" इत्यादि पढ़े। जिसका मतलब यह होता है कि-हे सद्गुरो ! आप की-अधः काया-चरण को-मैं अपनी-उत्तम काया-मस्तक-के साथ स्पर्श करता हूं कृपा करके जो कुछ आपको इस में किलामणा (तकलीफ) होवे सो क्षमा करें इत्यादि ।
तथा पूर्वधारी श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण शब्दांभोनिधिगंधहस्तिमहाभाष्य अपरनाम विशेषावश्यक में गुरुके अभावमें स्थापना स्थापनकरने का प्रगट प्रतिपादन करते हैं तथाहि:"गुरुविरहम्मिय ठवणा गुरुवएसोवदंसणत्थं च । जिणविरहम्मि अ जिणबिंब सेवणामंतणं सहलं ॥१॥
पूर्वोक्त वर्णन से स्थापना आवश्यमेव रखनी सिद्ध है, और फलदायक भी है, तो भी कदाग्रही लोगों की निद्रा न खुले तो क्या किया जावे ? सूर्य के प्रगट होने पर उल्लू को नहीं दीखता है, उल्लू की आंखें बंद होजाती हैं तो सूर्य क्या बनावे ? उल्लूके ही कर्म का दोष है।
और देखो, पार्वतीने ही श्रीअनुयोगद्वार मूत्र का पाठ लिख कर स्थापना को साबित किया है यथा
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