Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 65
________________ __से किं तं ठवणा वस्सयं २ जण्णं कट्ठकम्मेवा (१) चित्तकम्मे वा (२) पोत्थकम्मे वा (३) लिप्पकम्मे वा (४) गंठिमे वा (५)वेढिमे वा (६) पूरिमे वा (७) संघाइमे वा (८) अक्खे वा (९) वराडए वा (१०) एगो वा अणेगो वा सब्भाव ठवणा वा असब्भाव ठवणा वा आवस्स एत्ति ठवणा किज्जइ सेतं ठवणा वस्सयं॥२॥ अस्यार्थः। प्रश्न-स्थापना आवश्यक क्या । उत्तर-काष्ठपै लिखा (१) चित्रों में लिखा (२) पोथीपै लिखा (३) अंगुली से लिखा,(४) गूंथ लिया (५) लपेट लिया (६) पूर लिया (७) ढेरी करली (८) कार बैंच ली (९) कौड़ी रखली (१०) आवश्यक करनेवाले का रूप अर्थात् हाथ जोड़े हुए ध्यान लगाया हुआ ऐसा रूप उक्त भांति लिखा है अथवा अन्यथा प्रकार स्थापन कर लिया कि यह मेरा आवश्यक है सो स्थापना आवश्यक-इसादि" लो इस बात का न्याय थोड़े समय के लिये हम उनको ही समर्पित करते हैं किजैसे आवश्यक करनेवाले का रूप हाथ जोड़े हुए ध्यान लगाया हुआ सद्भाव स्थापना कहाती है, ऐसेही पद्मासनस्थ ध्यानारूढ मौनकृति जिनमुद्रा सूचक प्रतिमा,स्थापनाजिन कही जावे या नहीं? यदि प्रतिमा स्थापनाजिन नहीं तो पूर्णोक्त स्वरूप स्थापना आवश्यक भी नहीं और यदि पूर्वोक्त स्वरूप सद्भाव स्थापना आवश्यक है तो जिनस्वरूप प्रतिमा भी स्थापनाजिन है, इसमें कोई संदेह नहीं है. इसीवास्ते पूर्वर्षि महात्माओं ने फरमाया है कि :नामजिणाजिणनामा,ठवणजिणापुण जिणंदपडिमाओ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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