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(४८ ) क्योंकि बीस से अधिक तीर्थंकरों का एक समय में जन्म जैनशास्त्रा. नुसार कदापि नहीं होसकता. जब जन्मही एक समय बसिसे अधिक का नहीं होमकता तो केवलज्ञान भी एक समय बीस तीर्थकरों से अधिक को नहीं होसकता है, क्योंकि तीर्थंकरों का एक सदृश ही आयु होता है. और केवलज्ञान हुए विना तीर्थकर मानना उनकी श्रद्धा नहीं है, फिर बताओ जघन्यपद में बीस तीर्थकर का मानना उत्कृष्टपद के माने विना सिद्ध होसकता है ? कदापि नहीं ॥ और उत्कृष्टपद माना तो द्रव्यनिक्षेप बलात्कारसे गले में पड़ गया, जब द्रव्यनिक्षेप मानलिया तो फिर ऊंचे २ हांथ करके नाम, स्थापना और द्रव्यनिक्षेप वंदनीय नहीं हैं पुकारना उजाड़ में रोने और अपने नयनों के खोने के सिवाय और क्या है ?
तथा महाविदेह में आजकाल अमुक २ नाम के बीस तीर्थकर भावनिक्षेपे अर्थात् केवलज्ञान अवस्था में चौतीस अतिशय, पैंतीस वाणी के गुणसहित बारह गुणें करी विराजमान् विद्यमान हैं. ऐसा बत्तीस सूत्रों में से किस सूत्र के मूलपाठ में वर्णन है ? और एक यह भी बात विचारने योग्य है कि यदि महाविदेह के तीर्थंकरों की यहां अपेक्षा होवे तो “उसभ मजिअंच वंदे" इत्यादि पाठ के स्थान में महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के नाम का पाठ पढ़ना चाहिये ॥ यह तो कदापि नहीं होसकता कि नाम तो ऋषभदेवजी का लिया जावे, और वंदना श्रीसीमंधरस्वामी को मानी जावे, और यदि बीस विहरमान के नाम लिये जावें तो “ चउवीसत्था" के स्थान में “ वीसत्था " मानना पड़ेगा ॥ और जब “वीसत्था" माना जावेगा तो" चउवीसत्या" उड़ जावेगा, और चउवीसत्था के उड़ने से “ षडावश्यक " (सामायिक, चउवीसत्था, वंदना, पडिकमणा, काउसग्ग, और पञ्चक्खान) रूप नित्य अवश्य करणीय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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