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कितनेक को भाव से उपकार होता है। इसवास्ते चारों ही निक्षेप को मानना सम्यग्दृष्टिं का लक्षण है। परंतु एक दो का मानना और बाकी का निषेध करना सम्यग्दृष्टिका काम नहीं है ॥
तटस्थ-शास्त्रानुसार चारों ही निक्षेप का मानना सिद्ध हो चुका और गुप्ततया ( चोरी) दुढिये भी मानते हैं परंतु कदाग्रह के वश से प्रकटतया नहीं मानते हैं ॥
विवेचक-लो देखो ! हम प्रगट करके दिखाते हैं । भावको तो ढुंढये भाई साहिब मान्य करते ही हैं, और नामको रात्रि दिव रटते हैं, इस से दो निक्षेप तो सिद्ध हो चुके, वाकी द्रव्य और स्थापना उनकी बाबत पूर्व सविस्तर लिखा गया है, तो भी थोडी सी बात और दिखाकर ढुंढियों का द्रव्य और स्थापना का मानना ढुंढियों के नित्य कृत्यों से तथा पार्वतीके लेखसे ही सिद्ध कर दिखाते हैं। “श्रीजिनेश्वर देव के चारों ही निक्षेप
माननीय और वंदनीय हैं"।
जब चतुर्विंशतिस्तव ( लोगस्स ) पढ़ते हैं, तब " अरिहंते कित्तइस्सं चउवीसं पि केवली" पढ़ते हैं जिसका अर्थ चउबीप्त अरिहंतों की मैं कीर्तना करुंगा सो वह चउबीस भगवान् कि जिनका "उसभमाजअंचवंदे" इत्यादि पाठ द्वारा ऋषभदेव को वंदना करता हूं, ओजतनाथ को वंदना करता हूं, प्रत्यक्ष नाम उच्चारण किया जाता है, वर्तमान कालमें अरिहंत के भावनिक्षेपे तो है नहीं, किंतु सिद्ध के भावनिक्षेपे हैं, तो आप ही अपने दिल में सोच लेवें कि केवल भावनिक्षेप को मानके अन्य नामादि निक्षेपका निषेध करना कैमी अज्ञानता है ।
तटस्थ-जो चउबीस प्रभु मोक्ष को प्राप्त हो गये हैं उनको
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