Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 55
________________ ( ४५ ) या श्रीमहावीर स्वामी का नाम लेने से श्रीऋभदेव स्वामी का भाव कदापि नहीं आता है, इसका क्या कारण है ? क्योंकि ढुंढक भाइयों के हिसाब से तो भावही भाव है और कोई निक्षेप तो काम में आता ही नहीं है, और भावनिक्षेप तो सर्वमें एकही समान है, फिर क्या कारण है कि एक तीर्थकर का नाम लेने से दूसरे तीर्थकर में भाव नहीं जाता है ? किंतु खास उन ही महात्मा का ख्याल हो जाता है कि जिन का नाम लिया जाता है । बस इससे साफ ज़ाहिर है कि नामादिका आपस में जरूर कुछ न कुछ संबंध है। इसी तरह श्रीवीतरागदेव की स्थापना प्रतिमा के देखने से जिन तीर्थकर भगवान् की वह प्रतिमा होती है उन ही महात्मा का ख्याल वह कराती है, नामवत् ॥ बलकि नाम से भी ज्यादा, क्योंकि नाम तो एक अंश रूप है, और प्रतिमा नाम और स्थापना रूप दो अंश प्रत्यक्ष भान होते हैं। यदि नाम मात्र ही अपनी वास्तविकता को पहुंचा सकता है तो क्या नाम और स्थापना दो नहीं पहुंचा सकते हैं ? जरूर अतीव सुगमता के साथ पहुंचा सकते हैं। और इसीवास्ते स्तुतिकारों ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की है कि-नामा स्थापना, द्रव्य और भाव चारों प्रकार से तीन जगत के जीवों को पवित्र करने वाले अहन भगवंतों की सर्व क्षेत्र में और सर्व काल में हम स्तुति उपासना सेवा करते हैं। यदुक्तम्-नामाकृतिद्रव्यभावैः पुनतस्त्रिजगजनम् । क्षेत्रे काले च सर्वस्मिन्नर्हतः समुपास्महे॥१॥ तात्पर्य यह है अईन भगवंत के चारों ही निक्षेप जगद्वासी जीवों को उपकार करते हैं। कितनेक जीवों को नाम स्मरण से उपकार होता है, कितनेक को स्थापना से, कितने को द्रव्य से और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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