Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 50
________________ ( ४२ ) तब गुरु ने कहा क्यों ऐसे बोलता है ? मैंने पढ़ाने में या आम्नाय बतलाने में कोई फरक नहीं किया है. उसने जवाब दिया कि यदि आपने फरक नहीं रक्खा तो इसने हथनी आदि सब वृत्तांत यथार्थ किस तरह जाना ? और मैंने क्यों नहीं जाना ? गुरु ने पूछा कि हे भली बुद्धिवाले ! तैंने यह सब वृत्तांत किस तरह जाना ? शिष्य ने कहा, महाराज ! आपकी कृपा से चिन्ह आदि के विचार करने सेयथा पिशाब के निशान से हथनी जान ली, दाई तर्फ से ही कहीं २ मुंह पाकर घास आदि भक्षण करने से मैंने मालूम किया कि वाम नेत्र से काणी है, पिशाब के निशान से ही स्त्री पुरुष का ज्ञान किया, तत्काल प्रसूत का होना दोनों हाथ जमीन पर लगा कर स्त्री के उठने से जान लिया, वृक्षोपरि लगी लाल मूत की तारों से लाल रंग के कपड़े का ज्ञान मैंने कर लिया, और पुत्र का होना रस्ते में स्त्री का दक्षिण पांव भारी पड़ा देखकर निश्चय कर लिया. तथा बुढ़िया के पुत्र का घर आना घड़ा जमीन से पैदा हुआ था फूटकर फिर ज़मीन के साथ मिल गया ॥ इसी प्रकार पूर्वोक्त वाक्यानुसार मैंने निश्चित किया, तब उस शिष्य की अपूर्व बुद्धि से खुश होकर गुरु ने दूसरे शिष्य को कहा कि वत्स ! यद्यपि तू अनेक प्रकार का विनय करता है, तथापि तेरा मेरे विषे बहुमान नहीं है. और इसका बहुमान है. और वैनयिकी बुद्धि भी भली प्रकार बहुमान पूर्वक विनय करने से ही तेज़ होती है, इसवास्ते इसमें मेरा कोई दोष नहीं है. इति ॥ पूर्वोक्त दृष्टांत से सिद्ध होता है कि महात्माओं प्रति बहुमान न करने से शास्त्र का परमार्थ पूरा २ फलीभूत नहीं होता है। तटस्थ-इसीवास्ते पूर्वाचार्यों प्रति जो अनादरता दिल में बैठी हुई है उसको त्याग शोच विचार करे तो आपही आप शास्त्राShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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