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बुढ़िया जल लेने के वास्ते आई. उस बुढ़िया के बेटे को परदेश में गये बहुत समय हुआ, अब तक नहीं आया था, इसबास्ते बुढ़िया ने उन दोनों को पूछा कि मेरा बेटा कब आवेगा ? पूछने के समय बुढ़िया के सिर से घड़ा नीचे को गिर पड़ा, और फूट गया, तब उस मंदबुद्धि ने कहा कि :तज्जाएण य तज्जायं तण्णिभेणय तण्णिभं । तास्वेण य तारूवं सरिसं सरिसेण निदिसे ॥१॥ तज्जातेन च तज्जातं तन्निभेन च तन्निभम् । तद्रूपण च तद्रूपं सदृशं सदृशेन निर्दिशेत॥१॥
इस निमित्तशास्त्र के कथनानुसार तेरा पुत्र मर गया दूसरे ने कहा ऐसा मत बोल, पुत्र घर आगया है, जा बुढ़िये । जलदी अपने घर को चली जा वृथा संदेह में मत पड़ ॥ बुढ़िया खुश होकर जलदी घर में गई पुत्र को देखा और स्नेह के साथ पुत्र से मिली.
इधर दोनों शिष्य गुरु पास पहुंच गये, इतने में धन और धोती लाकर बुढ़िया ने सत्य बोलनेवाले उस दूसरे का सत्कार किया तब वह गुरू पर क्रोध करके बोला कि आप जैसे जानकार हो के भी यदि अपने शिष्यों में इतना अंतर (भेद) करते हैं तो और का तो कहना ही क्या ? यदि अमृतमय चन्द्रमा से आग की वर्षा होवे, सूर्य से अन्धकार पैदा होवे, कल्पवृक्ष की सेवा से दारिद्र होवे, चन्दन के वृक्ष से दुर्गंध आवे, अमृत से ज़हर चढ़ जावे, सजन पुरुष से. दुर्जनता होजावे, श्रेष्ठ वैद्य से रोग बढ़ जावे, और पानी से आग लग जावे तो इसमें किसको दोष दिया जावे ?
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