Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 44
________________ ( ३६ ) इसी तरह मिथ्यात्वरूप पांडु रोग के कारण शंखसमान श्वेत तत्वरुचि के पदार्थ भी पीत भान होते हैं, श्रीठाणांग सूत्र के पूर्वोक्त पाठ में “ स्थापना " को भी सत्य फरमाया है, और इसी तरह चौथे ठाणे में भी स्थापनासत्य फरमाया है. "ठवणा सच्चे " इति वचनाव - इत्यादि पाठ प्रायः अनेक जैनशास्त्रों में आता है जिससे नाम तथा स्थापना निक्षेप भी फलदायक सिद्ध होते हैं सूत्र में तो केवल सूचनामात्र होती है " सूत्रं सूचनकृत् " इति वचनाव- परंतु सूक्त रहस्य का पूरा २ आशय तो श्रुतकेवली, पूर्वधर, गीतार्थ पूर्वाचार्य महात्माओं के किये नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका रूप अर्थों के विना कदापि भान नहीं हो सकता है । शोक की बात है कि जैसे प्रमेही पुरुष को घृत नहीं रुचता है, ऐसे ढुंढकमतानुयायी को महात्मा पुरुषों के किये प्राचीन अर्थ रुचते ही नहीं हैं, तो बताओ ? अब क्या उपाय किया जावे ? साध्य व्याधि का उपाय हो सकता है, परंतु असाध्य का उपाय तो धन्वन्तरि भी आकर नहीं कर सकता है ॥ तटस्थ - क्या पूर्वाचार्यों के अर्थ माने विना सूत्र का आशय कदापि प्राप्त नहीं हो सकता ? विवेचक - यदि पूर्वर्षि प्रणीत अर्थ के विना मूलमात्र से पूर्ण आशय निकल सकता है तो श्रीसमवायांग सूत्र में तथा श्री दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में २१ शबले दोष फरमाये हैं जिनमें - हस्तकर्म करे तो शबल दोष (१) मैथुन सेवे तो शबल दोष (२) रात्रिभोजन करे तो शबल दोष (३) आधाकर्मी भोजन करे तो शबल दोष (४) शय्यावर का पिंड ( आहारादि ) भोगे तो शवळ दोष (५) उद्दोशक, मूल्य लाया और सन्मुख लाया भोजन करे तो शबल दोष (६) इत्यादि बातों का निराकरण ढुंढकभाई कर देवें, अन्यथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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