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( १६ ) अनर्थ करे हैं, जिसमें सखार्थचन्द्रोदय का निष्पक्षपातता से विचार करना ही ससाससका निर्णय करना है, विना गुरुगमता के किताबों का बनाना, आचार्यापद का धारण करना इसादि स्त्रीगण के अनुचित काम का करना साहस नहीं तो और क्या है ? माया का तो पूछना ही क्या है ? प्रायः ससार्थचन्द्रोदय की सारी किताव ही माया से भरी हुई है। पूर्वाचार्यों के अर्थ न मानकर अपनी कल्पना से अण्ड वंड अर्थ के अनर्थ करने इससे और क्या मूर्खता होती है ? मान बड़ाई के लोभ में तो फंसी ही पड़ी है, वरना मरद दुढिये साधुओं के विद्यमान होते हुए व्याख्यान करना, आचार्या बनना किसने फरमाया है ? अशुचि का अनर्थ तो जो कुछ करती है आप ही जानती है, ऋतु के आने पर भी शास्त्राध्ययनादि का परहेज नहीं है, इससे अधिक और क्या अशुचि अपकर्म होगा ? शास्त्रवचनों के उत्थापने से अपने आप का घात करना इससे अधिक कौन सी निर्दयता है।
विवेचक-अच्छा ! प्रारब्ध की बात है, हम क्या करें। लो अब देखो ? नाम, स्थापना, द्रव्य, और भाव का अर्थ लिख दिखाते हैं, यदि परभव का डर होवे, और अपने कल्याण का मन होवे, यथार्थ अर्थ का विचार कर सस का स्वीकार और असस का परिहार तत्काल कर देना योग्य है आगे उनकी मरजी, वह जानें उनके कर्म ॥
नामनिक्षेपस्वरूपवर्णनम्।
अथ नामस्थापनाद्रव्यभावस्वरूपमभिधीयते तत्रादौ नामस्वरूपं यथा
यद्वस्तुनोभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थ निरपेक्ष
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