Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 30
________________ ( २२ ) भूतियुक्तो हि वै समाख्यातः । सर्वरिंद्रादिवदिहेंद नादि क्रियानुभवात् ॥ ४॥ व्याख्या-वक्तर्विवक्षित क्रियया विवक्षितपरिणामस्य इंदनादेरनुभवन मनूभूतिस्तया युक्तोर्थः स भावस्ततोऽभेदोपचारः सर्वज्ञः समाख्यातो निदर्शनमाह इंद्रादिवदित्यादि यथा इंदनादिक्रियानुभवात् परमैश्वर्यादिपरिणामेन परिणतत्वादिंद्रादिभाव उच्यते इत्यर्थः इत्यार्यार्थः॥ __ इसीप्रकार नामादि का स्वरूप श्रीहरिभद्र मूरि कि जिनका स्वर्गवास विक्रम संवत् ५८५ में हुआ है, जिसकी साक्षी अंग्रेज विद्वान्-डाकटर ए. ऐफ. रुडल्फ हार्नल साहिब तथा जर्मन प्रोफैसर हरमन जकोबी साहिब देते हैं, उन्हों ने भी इसी प्रकार वर्णन किया हैअब शोचना चाहिये कि १३८१ वर्ष के किये महात्माओं के अर्थ तो झूठे और आजकल के अभिमान के पूतलों के किये मनःकल्पित अर्थ सच्चे, बुद्धिहीन कदाग्री के विना ऐसा और कौन कह सक्ता है ? बस जैसे हमने १३८१ वर्ष के प्राचीन अर्थों का प्रमाण दिया है इसी प्रकार ढुंढकमतानुयायी को भी जो कुछ पार्वती ने मान के तान में गाना गाया है, और भोले भद्रिक जीवों को भरमाया है, संस्कृत या प्राकृत में प्राचीन महात्माओं के किये अर्थ दिखलाने चाहिये अन्यथा पार्वती के लेखोपरि कोई भी सुज्ञपुरुष विश्वाम नहीं करेगा और यदि : उष्ट्राणां विवाहे तु गर्दभा वेदपाठकाः। परस्परं प्रशंसंति अहो रूप महोध्वनिः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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