Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 17
________________ (८ ) तटस्थ-श्रीअनुयोगद्वार सूत्र का नाम लिखा तो है ? -श्रीअनुयोगद्वार सूत्र के नाम से जो लोकों को धोखा देना शुरू किया है वह भी एक बुद्धि की अजीर्णता है। बड़े भारी महात्मा विद्वान् टीकाकार महाराज के किये अर्थ न मानकर अपनी कल्पना के अर्थ कर या टब्बेवाले ने जो कुछ लिखा उसमें भी न्यूनाधिक करके अपनी कल्पना के अर्थ कर लिये हैं, परन्तु यह नहीं शोचा है कि जो कुछ बालावबोधादि के आश्रय से हम अपना टट्ट चलाये जाते हैं वह भी तो पांचों आरे में बलकि टीकाकार महात्माओं के होने के समय से बहुत ही पीछे हुए हैं, तो टब्बाबनानेवाले का वचन प्रमाण, और टीकाकार का वचन अप्रमाण, यह कैसा मूढ़ता का काम है ? अफसोस है। परन्तु इस मानने में एक बड़ा भारी भेद है, जिसको और कोई मतावलम्बी जलदी से नहीं समझ सकता है, किन्तु हमतो अच्छी तरह सब भेद जानते हैं, वह यह कि टीका, भाष्य, चूर्णि, और नियुक्ति संस्कृत प्राकृत में होती है उस में दुीढयों की दाल गलती नहीं है और न उसमें न्यूनाधिक हो सकता है, और भाषा में (टब्बे में) जैसा मन में आया लिख मारा, बस इसीलिये ढुंढकपंथ में प्रायः व्याकरण का पढ़ना मुख्य नहीं माना जाता है, क्योंकि व्याकरण के पढ़ने से तो फिर “छीके बैठी देवी चने चावे, वाला वचन प्रमाण रह नहीं सकता है, परन्तु व्याकरण के पढ़े विना अर्थ का पूरा पूरा परमार्थ मालूम नहीं होसकता है, इतना ही नहीं बलकि अर्थ का अनर्थ हो जाता है, अपने पुत्र को शिक्षा देता हुआ पिता कहता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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