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ग्रह दिलमें बठाया, सुगति में जाना मिटाया, प्रायः आज तक इस पंथ में कोई विद्वान् नहीं होने पाया है, जिसका प्रमाण रा० रा. वासुदेव गोविंद आपटे, बी० ए० इंदौरकरने मुंबई की हिंदु यूनियन क्लब में दिसम्बर १९०३ ईस्वी सन में बताया है, जो कि विविधज्ञान विस्तार नामक मासिकपत्र के जनवरी सन १९०४ के अंकमें मुंबई में छप कर प्रसिद्ध हुआ है, उसका कुछक अनुवाद यहां दिया जाता है, जो ठीक ठीक अकल में आता है । ___ " ढूंढिये नामक जैनशाखा के लोक मलोत्सर्ग के समय जो घिनावना कार्य करते हैं, उस बीभत्सव्यापार के वर्णन करने में संकोच होता है !
(नोट) ढूंढियेलोग श्वेतांबरीजैनियों में से निकला हुआ एक छोटा सा फिरका है यह मत कोई २५० वर्ष से निकला हुआ जिनमत के शास्त्रों से सर्वथा विरुद्ध है-श्वेतांबरों में ही ढूंढिया नामक एक शाखा है-इन लोगों का उल्लेख ऊपर अनेक जगह आया है, इन्हीं का मालवा में सेवड़े नाम है परन्तु ये स्वतः अपने को साधुमा
ी अथवा मठमार्गी (थानक पंथी) कहते हैं, कारण कि यह लोक प्राय मठों में रहते हैं, यह पंथ बहुत विचित्र हैं, यह मूर्ति वगैरह नहीं मानते अर्थात् इन लोगों को मंदिरों की आवश्यकता नहीं है, मनोविकारों का दमन करना यही बड़ा धर्म है, ऐसा वे समझते हैं और इस धर्म का चितवन यही उसकी मानसपूजा है, तीर्थकरों के पवित्र आच रणों का अनुकरण करना ऐसा वे कहते हैं, परन्तु तीर्थकरों को कुछ विशेष मान देने की प्रथा उनमें नहीं है, उनके गुरु शुभ्रवर्ण के परन्तु कुछ मैले वस्त्र पहिनते हैं, श्वासोच्छवासक्रिया में उष्णश्वास से वायुकाय के जीव न मरें इसलिये मुख पर कपड़े की एक पट्टी
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