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४५ आगमों का परिचय उपरोक्त वाचना के बाद जो ग्रंथ आगम मे प्रसिद्ध है वे प्राचीनकाल में 'श्रुत' और 'सम्यक् श्रुत' से प्रसिद्ध थे । अब यहाँ पर श्वेताम्बर संप्रदाय मान्य ४५ आगमों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है ।
द्वादशांग (बारह अंग) जैन शास्त्रों में सबसे प्राचीन ग्रंथ अंग हैं । इन्हे वेद भी कहा गया है (ब्राह्मणों के प्राचीनतम शास्त्र भी वेद कहे जाते हैं)। ये अंग बारह है, इसलिये इन्हें द्वादशांग कहा जाता है । द्वादशांग का दूसरा नाम गणिपिटक है(बौद्धों के प्राचीनशास्त्र को त्रिपिटक कहा जाता है )। ये अंग भगवान महावीर के उपदेशों को गणधरों द्वारा सूत्र रूप से गुंफित किये गये हैं। बारहवें अंग का नाम दृष्टिवाद है, जिसमें चौदह पूर्वो का समावेश है । यह लुप्त हो गया है, इसलिये आजकल ग्यारह ही अंग उपलब्ध हैं । इन अंगों के विषयों का वर्णन समवायांग और नन्दीसूत्र में उपलब्ध होता है । इनमें प्राचीन जैन परंपरा, अनुश्रुतिया, लोककथाएँ, तत्कालीन रीतिरिवाज, धर्मोपदेश की पद्धतियाँ, आचार-विचार, संयम पालन विधि जैसे अनेक विषय समाविष्ट हैं । जिसके अध्ययन से तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक व्यवस्था विषयक जानकारी प्राप्त होती है । ११ अंगो के नाम :
१) आयार २) सुयगड ३) ठाणांग ४) समवाय ५) वियाहपण्णत्ति ६) णायाधम्मकहा ७) उवासगदसा ८) अंतगडदसा ९) अणुत्तरोववाइयदसा १०) पण्हावागरणाई ११) विवागसुय १२) दिट्ठिवाय ।
द्वादश उपांग वैदिक ग्रंथो में पुराण, न्याय और धर्मशास्त्र को उपांग कहा है। चार वेदों के भी अंग और उपांग होते हैं । शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, निरूक्त और ज्योतिष ये छह अंग है, तथा पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्मशास्त्र उपांग । बारह अंगो की भाँति बारह उपांगो का उल्लेख भी प्राचीन आगम ग्रंथो में उपलब्ध नहीं होता । नंदीसूत्र (४४) में कालिक और उत्कालिक रूप में ही उपांगो का उल्लेख मिलता हैं। अंगों की रचना गणधरों ने की है और उपांगो की स्थविरो ने, इसलिये भी अंगों और उपांगो का कोई संबंधविशेष सिद्ध नहीं होता । यद्यपि कुछ आचार्यों ने अंगो
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